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ग़ज़ल -तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें ( गिरिराज भंडारी )

तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें

1222   1222   122  

*****************************
ये रिश्ते भी न बदतर होके लौटें

तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें

 

ये चट्टानें , न ऐसा हो कि इक दिन

मैं टकराऊँ तो कंकर हो के लौटें

 

इसी उम्मीद में कूदा भँवर में

मेरे ये डर शनावर हो के लौंटें  

 

बनायें ख़िड़कियाँ दीवार में जब

दुआ करना, कि वो दर हों के लौटें

 

दिवारो दर, ज़रा सी छत औ ख़िड़की

मै छोड़ आया कि वो घर हो के लौटें

 

कुछ इक सूखी निगाहें ऐ ख़ुदा, मैं

रखूँ उम्मीद क्या , तर हो के लौटें ?


नहीं कुछ भी यक़ीं , पर भेजता हूँ

मेरे ये मसअले सर हो के लौटें

********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 9, 2016 at 12:06am

बहुत खूब आदरण्य गिरिराज भाईजी. अच्छी ग़ज़ल के लिए दाद कुबूल कीजिये
शुभ-शुभ

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 8, 2016 at 11:52pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज जी, दाद कुबूल कीजिए

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on September 8, 2016 at 5:59pm

उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय | हार्दिक बधाई

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 8, 2016 at 11:03am
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , गहरे विचारों वाली इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई , सादर।
Comment by Manan Kumar singh on September 8, 2016 at 10:57am
आदरणीय गिरिराज भाई,एक अच्छी गजल के लिए मुबारकवाद कबूल फरमायें,सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 8, 2016 at 10:52am

आदरणीय गिरिराज जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, मुश्किल को ज़मीन को क्या खूब निभाया है आपने, बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 7, 2016 at 10:15pm

उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय | हार्दिक बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2016 at 8:21pm

आदरणीय विनय भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

Comment by विनय कुमार on September 7, 2016 at 7:10pm

//मै छोड़ आया कि वो घर हो के लौटें//, वाह वाह, बेहतरीन| बहुत बहुत बधाई इस शानदार ग़ज़ल के लिए 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2016 at 6:44pm

आदरणीय सतविन्द्र भाए , हौसका अफज़ाई का शुक्रिया आपका ।

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