कुछ डोरियां
कच्चे धागों की होती हैं ,
कुछ दृश्य होती हैं ,
कुछ अदृश्य होती हैं ,
कुछ , कुछ - कुछ
कसती , चुभती भी हैं ,
पर बांधे रहती हैं।
कुछ रेशम की डोरियां ,
कुछ साटन के फीते ,
रंगीले-चमकीले ,फिसलते ,
आकर्षित तो बहुत करते हैं ,
उदघाट्न के मौके जो देते हैं ,
पर काटे जाते हैं।
इस रेशम की डोरी
की लुभावनी दौड़ में ,
ज़रा सी चूक ,
बंधन की डोरियां
छूट गईं या टूट गईं ,
रेशम की डोरियां …
Added by Dr. Vijai Shanker on January 4, 2018 at 9:30am — 10 Comments
जीवन-कविता
बिटिया बैठी पास में
खेल रही थी खेल
मैं शब्दों को जोड़-तोड़
करता मेल-अमेल |
उब के अपने खेल से
आ बैठी मेरी गोद
टूट गया यंत्र भाव
मन को मिला प्रमोद |
बिना विचारे ही पत्नी ने
दी मुझको आवाज़
मैं दौड़ा सिर पाँव रख
ना हो फिर से नाराज़ |
लौटा सोचता सोचता
क्या जोड़ू आगे बात
पाया बिटिया पन्ना फाड़
दिखा रही थी दांत…
ContinueAdded by somesh kumar on December 12, 2017 at 10:30am — 5 Comments
दोहरा
पत्नी पर पराई-दृष्टी से
होकर खिन्न
डांट कर कहता
तू लोक लाज विहीन
“चल भीतर |”
_______________
पड़ोसिन को सामने पा
स्वागत में मुस्कुरा
गाता हूँ-तिनक धिन-धिन
आप सा कौन कमसिन !
खड़ा रहता हूँ-बाहर |
सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Added by somesh kumar on December 4, 2017 at 6:07pm — 5 Comments
तुम शब्द हो
और मैं अर्थ
तुम हो तो मैं हुं
शब्द बिन अर्थ बेकार
निशब्द संसार
तुम प्रीत हो
और मैं जोगन…
ContinueAdded by जयति जैन "नूतन" on December 1, 2017 at 7:30pm — 3 Comments
चोर-मन
कमर खुजाती उस स्त्री पर
पंजे मारकर बैठ गई आँख
मदन-मन खुजाने लगा पांख |
अभी उड़ान भरी ही थी कि
पीठ पर पत्नी ने आके ठोका
रसगुल्लामुँह हो गया चोखा |
जवाब में रख दीं बातें इमरती
छत की धूप और सुहानी सरदी
सचेती स्त्री संभल के चल दी |
बहलाने लगा मूंगफली के बहाने
चोर-मन ढूंढता बचने के ठिकाने
भर चिकोटी पत्नी लगी मुस्कुराने |
सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by somesh kumar on November 28, 2017 at 9:36am — 4 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on November 13, 2017 at 10:57am — 15 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on November 7, 2017 at 8:30am — 11 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on October 24, 2017 at 10:29am — 21 Comments
मृत्यु...
जीवन का वह सत्य
जो सदियों से अटल है
शिला से कहीं अधिक।
मृत्यु पूर्व...
मनुष्य बद होता है
बदनाम होता है
बुरी लगती हैं उसकी बातें
बुरा उसका व्यवहार होता है।
मृत्यु पूर्व...
जीवन होता है
शायद जीवन
नारकीय
यातनीय
उलाहनीय
अवहेलनीय।
मृत्यु पूर्व...
मनुष्य, मनुष्य नहीं होता
हैवान होता है
हैवान, जो हैवानियत की सारी हदें
पार कर देना चाहता…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on October 22, 2017 at 9:33am — 18 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on October 17, 2017 at 7:34am — 12 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on October 12, 2017 at 6:48pm — 10 Comments
इतने साल बीत गये
ना वो बदली जरा ना मैं !
आज भी उसे नहीं पसंद
मेरा किसी और से बात करना !
मुझे भी आजतक नहीं भाया
उसका किसी को देख मुस्काना !
उसे अच्छा नहीं लगता जब
मेरा ध्यान उससे हट जाना !
मुझे पसंद नहीं आता उसका
मुझे छोड़ टी.वी. तक देखना !
वो कहती है सुनो प्रिय
मैं सामने हुं तो मुझे ही देखो !
मुझे भाता है उसे चिडाना
दूसरों को देख देख मुस्काना !
उसे पसंद तक नहीं मेरा चश्मा
मेरी आंखों पर हमेशा रहता…
Added by जयति जैन "नूतन" on October 5, 2017 at 4:00pm — 5 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on September 30, 2017 at 10:45am — 10 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on September 30, 2017 at 10:44am — No Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on September 25, 2017 at 8:04pm — 16 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 27, 2017 at 8:00am — 11 Comments
कितनी सहज हो तुम
कोई रिश्ता नही
मेरा ओर तुम्हारा
फिर भी
अनगिनत पढ़ी जा रही हो,मुझे
बिन कुछ कहे
बस मुस्कुरा कर
अनवरत सुनी जा रही हो ,मुझे
बस यही अहसास काफी है
संपूर्ण होने का,मेरे लिए !!
"मौलिक व अप्रकाशित"
© हरि प्रकाश दुबे
Added by Hari Prakash Dubey on August 2, 2017 at 11:30pm — 2 Comments
दिल्ली में भी
सूरज उगता है
शहादरा में
काले धुएं की, ओट से
धीरे –धीरे संघर्ष करते
ठीक उसी तरह जैसे
माँ के गर्भ से कोई
बच्चा निकलता है
बड़ा होता है
बसों और मेट्रो में
लटक –लटक कर
धक्के खा-खा कर
जीवन जीना सीखता है
पसीने को पीता जाता है
पर थक हार कर भी
जनकपुरी की तरफ बढ़ता जाता है
रक्त से लाल होकर
वहीँ कहीं किसी स्टाप पर
चुपके से उतर जाता है
पर, सूरज का जीवन…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on July 24, 2017 at 11:10pm — 1 Comment
उसने मिलते ही कहा..
उस उम्र से ये उम्र की उम्र हो गई
जाने कहाँ कब कैसे वो उम्र खो गई
मीठे लम्हों से जो निखरी थी
खट्टे लफ्ज़ो से जो बिख़री थी
जहाँ मैं तुं नहीं सिर्फ हम थे
वहाँ हम नहीं सँभल पायें
चलो फिर कही ढुंढते है
जिस…
Added by संजय गुंदलावकर on July 7, 2017 at 10:30am — 5 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 3, 2017 at 10:12am — 12 Comments
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