Added by Dr. Vijai Shanker on September 10, 2014 at 4:13pm — 12 Comments
अच्छा ही करते हैं
कितना भी अपना हो
खून का हो या अपनाया हो प्यार से
मर जाने पर जला देते हैं
मुर्दा शरीर
न जलाएं तो सड़ने का डर बना रहता है
फिर इन्फेक्शन , बीमारी का भय
ज़िंदा लोगों के लिए खतरा ही तो है , किसी का मुर्दा शरीर
और फिर भूलने में भी सहायता मिलती है
कब तक याद करें
कब तक रोयें
जीतों को तो जीना ही है
अच्छा ही करते हैं जला के
कुछ रिश्ते भी तो मुर्दा हो जाते हैं / सकते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 1, 2014 at 4:30pm — 20 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 26, 2014 at 9:44am — 8 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 23, 2014 at 10:16pm — 21 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 20, 2014 at 11:17pm — 20 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2014 at 11:23am — 12 Comments
प्रिये , सुनती हो !
मैने सुना है आक्सीजन और हाईड्रोजन तैयार हो गये हैं
अपने ख़ुद के अस्तित्व खो देने के लिये
और एक रासायनिक प्रक्रिया से गुजरने के लिये
ताकि मिल पायें एक दूसरे से ऐसे, कि फिर कोई यूँ ही जुदा न कर सके
और बन सके पानी , एक तीसरी चीज़
दोनो से अलग
प्रिये,सुनती हो !
अब वो पानी बन भी चुके हैं
कोई सामान्यतया अब उन्हे अलग नही कर पायेंगे
अच्छा हुआ न ?
प्रिये , सुनती हो !
क्यों न हम भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 10, 2014 at 8:55am — 20 Comments
मेज़ के उपर सब कुछ शांत है
*************************
बड़ी सी मेज , साफ मेजपोश
ताज़े फूलों के गुलदस्तों सजी
करीने से लगी कुर्सियाँ
अदब से बैठे हुये अदब की चर्चा मे मशगूल
सभ्यता और संस्कृति की जीती जागती मूर्तियाँ
सामाजिक बुराइयों से लड़ते जो कभी न थके
सामाजिक उन्नति के नये-नये मानक गढ़ते
सब कुछ कितन भला लग रहा है , मेज के ऊपर
सामान्यतया क़रीब से देखने में
लेकिन ,
जो दूर बैठा है उस मेज से
देख सकता है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 3, 2014 at 1:30pm — 20 Comments
कँपकपी
********
तुम कौन हो भाई ?
जो शीत से कँपकपाती मेरी देह की कँपकपी को झूठी बता रहे हो
शीत एक सत्य की तरह है
और कंपकपी मेरी देह पर होने वाला असर है
शीत-सत्य पर मेरा अर्जित अनुभव , व्यक्तिगत , सार्वभौमिक तो नहीं न
क्या तुम्हारे माथे पर उभर आयीं पसीने की बून्दें भी झूठी है
क्या मैने ऐसा कहा कभी ?
ये तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है , इस मौसमी सच की आपकी अपनी अनुभूति
तुम्हारी देह की प्रतिक्रिया पसीना है , तो है , इसमे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 26, 2014 at 12:00pm — 9 Comments
निराशा की ऊँची लहरों
और आशा के सपाट प्रवाह के बीच
मन हिचकोले खा रहा है
कभी निराशा अपने पाश में बाँध कर खींच ले जाये
कभी आशाएँ
मुझे ले जाकर किनारे पहुँचा दें
कभी सोचता हूँ
बह चलूँ लहरों के साथ
कभी लगे
बाहर आ जाऊँ इस गर्दिश से
ये किस मुकाम पर हूँ
ये कौन सा मोड़ है
पल-पल उठती रौशनी भी
भ्रमित कर दे कुछ देर को
कि रास्ता बदल लूँ
या चलता रहूँ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by शिज्जु "शकूर" on July 17, 2014 at 1:02pm — 20 Comments
तुम्हारे फूल अलग रंग के क्यों लग रहे हैं आज
पत्तों का आकार भी बदला बदला सा है
तुम्हारे फूल और पत्ते ऐसे तो उगते न थे
पोषण किसी और श्रोत से तो प्राप्त नहीं करने लगे
जड़ या तना बदल तो नहीं लिया है तुमने
बेतुक की बडिंग तो नहीं करवा ली है
किसी और प्रजाति के पौधे से
प्रजातियाँ अच्छी बुरी तो नहीं होतीं
सभी अपनी जगह ठीक होतीं हैं
पर अपनी, अपनी होती है
तुक की होती है !
बात केवल स्वतंत्रता पर खत्म…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 12, 2014 at 9:00am — 18 Comments
कुछ ऐसी बात कह देना बे आवाज, महज़ इशारों से
जो नहीं कहनी चाहिये , किसी सूरत नहीं
या , कुछ ऐसी बात न कहना जिसे कह देना ज़रूरी है
किसी के भले के लिये ,खुशी के लिये , वो भी इसलिये
ताकि हम छीन सकें , किसी के होठों की हँसी
नोच सकें किसी के मन की शांति
उतार सकें , बिखरा सकें
विचारों के , भावों के समत्व को
अन्दर के प्यार को , ममत्व को
छितरा सकें मन की शांति
ताकि टूट जाये , बिखर जाये किसी का व्यक्तित्व
किसी को…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 4, 2014 at 11:30am — 15 Comments
आज कुछ....
आहट सी हुई, उस बंद
वीरान अन्धेरें से कोने में
जहाँ कभी
खुशियों की रौशनी थी
क्यों..?
आज उस बेजान लगने वाली
बंजर भूमि में
नमी सी आ गई
और दिखने लगा
एक आशा का अंकुरण
उस अंकुर में
जो कभी
हमने मिल कर
बोया था
हमारे वर्तमान और भविष्य
की छाँव
और फल के लिए
हाँ..! कुछ तो बाकी है
जो अमिट रहा
शायद....!
यही तो रिश्ता होता…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 2, 2014 at 2:05am — 10 Comments
फूल कैसे खिलें ? ( एक अतुकांत चिंतन )
***************
प्रेम विहीन हाथ मिले तो ज़रूर
मुर्दों की तरह , यंत्रवत
तो भी खुश हैं हम
शायद अज्ञानता और बेहोशी भी खुशी देती है ,एक प्रकार की
झूठी ही सही
और झूठी इसलिये
क्यों कि बेहोशी का सुख हो या दुख , झूठा ही होता है
इसलिये भी, क्योंकि
हम स्वयँ जीते ही कहाँ है
जीती तो है एक भीड़ हमारी जगह ,
भीड़ विचारों की , तर्कों – कुतर्कों की
भीड़ शंकाओं- कुशंकाओं की ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 6:42pm — 22 Comments
मन की...
तपती धरा पर
कुछ बूंदें ही बारिश की
यूँ पड़ी..
न कोई राहत ,न ही सौंधी सी महक
सिर्फ बेचैनी और उमस
कहीं संवेदनाओं की मिट्टी
पत्थर तो नहीं हो गई
या वर्ष भर के
लम्बे विरह से
मिलन की ,भूख-प्यास चाहती हो
खूब टूट-टूट कर
बरसें ये बादल
हाँ..! यही सच है
शायद..
मन भी यही चाहता है.
जितेन्द्र’गीत’
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on June 29, 2014 at 11:00am — 22 Comments
वह वृद्ध !!
कड़कती चिलचिलाती धूप मे
पानी की बूंद को तरसता
प्यास से विकल होंठो पर
बार बार जीभ फेरता
कदम दर कदम
बोझ सा जीवन, घसीटता
सर पर बंधे गमछे से
शरीर के स्वेद को
सुखाने की कोशिश भर करता
अड़ियल स्वेद
बार बार मुंह चिढ़ाता
थक कर चूर हुआ
वह वृद्ध !!
कुछ छांव ढूँढता
आ बैठा किसी घर के दरवाजे पर
गृह स्वामी का कर्कश स्वर –
हट ! ए बुड्ढे !!
दरवाजे पर क्यों…
ContinueAdded by annapurna bajpai on June 12, 2014 at 7:22pm — 18 Comments
‘’ हमारे रिश्ते ‘’
*****************
अगर रिश्ते सच में हैं , तो
मीलों की दूरियाँ
कमज़ोर नही करती रिश्तों की मज़बूती
मिलन की प्यास बढाती ज़रूर है
रिश्ते , मृग मरीचिका नहीं होते
कि , पास पहुँचें तो नज़र न आयें
भावनायें प्यासी रह जायें
रिश्ते
रेत मे लिखे इबारत भी नही होते
कि ,सफल हो जायें, जिसे मिटाने में
समय के समुद्र में उठती गिरती कमज़ोर लहरें भी
रिश्ते
शिला लेख की तरह…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 28, 2014 at 9:30pm — 33 Comments
फौलाद भी
चोट से आकार बदल लेते हैं
या टूट जाते हैं
फिर इंसान की क्या बिसात
कब तक सहेगा चोट
आखिर टूटना पड़ेगा
इंसान ही तो है
मगर
टूटकर भी कायम रहेगा
या बिखर जायेगा
ये इंसान की प्रकृति तय करेगी
हालात बदलने को तैयार है
पुरानी सड़क पर
डामर की नई परत बिछेंगी
खण्डरों का जीर्णोद्धार होगा
पुरानी इमारत के मलबे पड़े हैं
कुछ मलबे काम आयेंगे
कुछ मलबे मिटाये जायेंगे
ये…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 15, 2014 at 6:08pm — 36 Comments
ईश्वर होना चाहता भी हूँ या नहीं
******************************
आज पूजा जा रहा हूँ ।
दूर दूर से आ कर
नत मस्तक हो हज़ारों हज़ारों भक्त
दुआयें मांगते हैं , चढ़ावे चढ़ाते हैं ,
अपनी अपनी मुरादों के लिये ।
उनकी अटूट ,गहरी आस्थाओं ने, विश्वासों ने
सच में ज़िन्दा कर दिया है
मेरे अंदर , ईश्वरत्व ,
वो ईश्वरत्व
जो सारे ब्रम्हांड के कण कण में है ।
पूरी हो रहीं है मुरादें भी,
पर ,
कैसे कहूँ मै शुक्रिया उन…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 3, 2014 at 6:43pm — 19 Comments
उठो हे स्त्री !
पोंछ लो अपने अश्रु
कमजोर नही तुम
जननी हो श्रृष्टि की
प्रकृति और दुर्गा भी,
काली बन हुंकार भरो
नाश करो!
उन महिसासुरों का
गर्भ में मिटाते हैं
जो आस्तित्व तुम्हारा,
संहार करो उनका जो
करते हैं दामन तुम्हारा
तार-तार,
करो प्रहार उन पर
झोंक देते हैं जो
तुम्हें जिन्दा ही
दहेज की ज्वाला में,
उठो जागो !
जो अब भी ना जागी
तो मिटा दी जाओगी और
सदैव के लिए इतिहास
बन कर रह जाओगी…
Added by Meena Pathak on May 1, 2014 at 2:10pm — 19 Comments
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