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All Blog Posts Tagged 'अतुकांत' (257)

स्मृतियाँ और आंसू--डा० विजय शंकर

आँख में आया हरेक आंसू

तेरी वजह से हो ,जरुरी

नहीं होता है .

आँख में पड़ जाये कोई

छोटी सी किरकिरी

तो भी होता है .



दो बून्द आंसू की

एक अधखिला गुलाब,

यही स्मृतियाँ हैं तुम्हारी ,

कोई पर्वत नहीं ,

कोई सागर भी नहीं .

कि संभाल न सकूँ , छिपा न सकूँ ,

कि जिंदगी भर संजों न सकूँ .



हाँ , तुमको अपनी आँखों में जरूर

बसाया था ,और छिपाया भी था,

आंसू की तरह .

एक किरकिरी पड़ी आँख में ,

और तुम जरा भी सह न सके

और… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on September 10, 2014 at 4:13pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
रिश्तों का अंतिम संस्कार ( एक अतुकांत चिंतन ) गिरिराज भंडारी

अच्छा ही करते हैं

कितना भी अपना हो

खून का हो या अपनाया हो प्यार से

मर जाने पर जला देते हैं

मुर्दा शरीर

न जलाएं तो सड़ने का डर बना रहता है

फिर इन्फेक्शन , बीमारी का भय

ज़िंदा लोगों के लिए खतरा ही तो है , किसी का मुर्दा शरीर

 

और फिर भूलने में भी सहायता मिलती है

कब तक याद करें

कब तक रोयें

जीतों को तो जीना ही है

अच्छा ही करते हैं जला के

 

कुछ रिश्ते भी तो मुर्दा हो जाते हैं / सकते…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on September 1, 2014 at 4:30pm — 20 Comments

प्रगति आत्मबल से होती है --डा० विजय शंकर

सड़क आने जाने के लिए है ,

आवागमन को गति देने के लिए है

गढ्ढे प्रक्रिया की नैसर्गिक देन हैं ,

गत्यावरोध गति नियंत्रण का विधान है ,

व्यवधान ही प्रगति का सही समाधान है ॥



इंटरनेट , विश्व व्यापी सम्पर्क सूत्र है ,

दुनिया को कंप्यूटर के माध्यम से

पल भर में जोड़ देता है , युग की देन है ,

हमारा संपर्क सूत्र प्रायः टूटा रहता है ,

क्यों , यही तो हमारे लिए शोध का विषय है ,

नेटवाला बताएगा, फोन लाइन चेक कराओ ,

फोन वाला कहेगा , नेट चेक कराओ… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 26, 2014 at 9:44am — 8 Comments

एक मैं ही तो गैर था -- डा० विजय शंकर

बाँट दीं खुशियाँ तमाम हमने

कोई दुआएं दे के ले गया

कोई दबाव बना के ले गया

सब अपने ही थे ,कोई गैर नहीं था ||

बाँट दीं खुशियाँ तमाम हमने

कोई आँखें झुका के ले गया

कोई आँखें दिखा के ले गया

सब अपने ही थे कोई गैर नहीं था ||

कोई हंस के मिलता था ,

कोई जल के मिलता था ,

कोई मिल के छलता था ,

कोई छल के मिलता था ,

सब अपने लिए मिलते थे ,

कोई मुझसे नहीं मिलता था ||

लोग , सच कुर्सी पसंद होते हैं

हर मिलने वाला मुझसे नहीं

कुर्सी से… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 23, 2014 at 10:16pm — 21 Comments

गिरने पे चोट नहीं लगती--डा० विजय शंकर

आजकल गिरने पे चोट नहीं लगती , तभी तो

लोग कहीं भी कितना भी गिरने को तैयार रहते हैं

चोट लगेगी भी कैसे , जब भी कोई गिरता है ,

कहीं भी गिरता है , पहले से वहां

काफी गिरे हुए लोग होते हैं ,

जो उसको गिरते ही हाथों हाथ ले लेते हैं ,

उसे चोट लगने ही नहीं देते हैं

उसके बाद तो और गिरने का डर भी नहीं रहता

गिरे को और क्या गिरने का डर होगा

बस गिरे रहिये , पड़े रहिये , रेंगते रहिये

ऊंचाई में, थोड़ा ऊपर जाने में

हमेशा गिरने का डर बना रहता है

कौन कब,… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 20, 2014 at 11:17pm — 20 Comments

बचपन को बचपन ही रहने दो - डॉ o विजय शंकर

( चित्र काव्य पर एक अलग द्दृष्टि - चामत्कारिक कल्पनाओं से हट कर )



एक हाथ में राखी का भार

दूसरे में ध्वज बना तलवार ,

पैर पादुका नहीं ,वस्त्र नीवी नहीं

सामने कोई रास्ता दिखता नहीं ,

मंजिल कोई उसे बताता नहीं

उमंग छोड़ कुछ भी पास है नहीं ,

दूर कहाँ तक जाएगा यह अबोध

जल्दी ही लौट आएगा यह अबोध |

अर्द्धनग्न आधा पेट खायेगा सो जाएगा

दिन ढले रात ढलेगी नया सवेरा आएगा

वो उत्साहित फिर थोड़ी दौड़ लगाएगा

ऐसे ही उसका जीवन बढ़ता जाएगा |

सरसठ… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2014 at 11:23am — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
प्रिये , सुनती हो ! ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

प्रिये , सुनती हो !

मैने सुना है आक्सीजन और हाईड्रोजन तैयार हो गये हैं

अपने ख़ुद के अस्तित्व खो देने के लिये

और एक रासायनिक प्रक्रिया से गुजरने के लिये

ताकि मिल पायें एक दूसरे से ऐसे, कि फिर कोई यूँ ही जुदा न कर सके

और बन सके पानी , एक तीसरी चीज़

दोनो से अलग

 

प्रिये,सुनती हो !

अब वो पानी बन भी चुके हैं

कोई सामान्यतया अब उन्हे अलग नही कर पायेंगे

अच्छा हुआ न ?

 

प्रिये , सुनती हो !

क्यों न हम भी…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 10, 2014 at 8:55am — 20 Comments


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मेज़ के उपर सब कुछ शांत है , ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

मेज़ के उपर सब कुछ शांत है

*************************

बड़ी सी मेज , साफ मेजपोश

ताज़े फूलों के गुलदस्तों सजी

करीने से लगी कुर्सियाँ

 

अदब से बैठे हुये अदब की चर्चा मे मशगूल

सभ्यता और संस्कृति की जीती जागती मूर्तियाँ

सामाजिक बुराइयों से लड़ते जो कभी न थके

सामाजिक उन्नति के नये-नये मानक गढ़ते 

सब कुछ कितन भला लग रहा है , मेज के ऊपर

सामान्यतया क़रीब से देखने में

लेकिन ,

जो दूर बैठा है उस मेज से

देख सकता है…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 3, 2014 at 1:30pm — 20 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कँपकपी - एक अतुकांत चिंतन ( गिरिराज भंडारी )

कँपकपी

********

तुम कौन हो भाई ?

जो शीत से कँपकपाती मेरी देह की कँपकपी को झूठी बता रहे हो

शीत एक सत्य की तरह है

और कंपकपी मेरी देह पर होने वाला असर है

शीत-सत्य पर मेरा अर्जित अनुभव , व्यक्तिगत  , सार्वभौमिक तो नहीं न

 

क्या तुम्हारे माथे पर उभर आयीं पसीने की बून्दें भी झूठी है

क्या मैने ऐसा कहा कभी ?

ये तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है , इस मौसमी सच की आपकी अपनी अनुभूति

तुम्हारी देह की प्रतिक्रिया पसीना है , तो है , इसमे…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 26, 2014 at 12:00pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आशा और निराशा- अतुकांत

निराशा की ऊँची लहरों

और आशा के सपाट प्रवाह के बीच

मन हिचकोले खा रहा है

कभी निराशा अपने पाश में बाँध कर खींच ले जाये

कभी आशाएँ

मुझे ले जाकर किनारे पहुँचा दें

कभी सोचता हूँ

बह चलूँ लहरों के साथ

कभी लगे

बाहर आ जाऊँ इस गर्दिश से

 

ये किस मुकाम पर हूँ

ये कौन सा मोड़ है

पल-पल उठती रौशनी भी

भ्रमित कर दे कुछ देर को

कि रास्ता बदल लूँ

या चलता रहूँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by शिज्जु "शकूर" on July 17, 2014 at 1:02pm — 20 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अतुकांत ---- तुम , तुम ही न रहे तो क्या बचा ? ( गिरिराज भंडारी )

तुम्हारे फूल अलग रंग के क्यों लग रहे हैं आज

पत्तों का आकार भी बदला बदला सा है

तुम्हारे फूल और पत्ते ऐसे तो उगते न थे

 

पोषण किसी और श्रोत से तो प्राप्त नहीं करने लगे

जड़ या तना बदल तो नहीं लिया है तुमने

बेतुक की बडिंग तो नहीं करवा ली है

किसी और प्रजाति के पौधे से

प्रजातियाँ अच्छी बुरी तो नहीं होतीं  

सभी अपनी जगह ठीक होतीं हैं

पर अपनी, अपनी होती है 

तुक की होती है !

 

बात केवल स्वतंत्रता पर खत्म…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on July 12, 2014 at 9:00am — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हत्या ( अतुकांत चिंतन ) गिरिराज भन्डारी

कुछ ऐसी बात कह देना बे आवाज, महज़ इशारों से

जो नहीं कहनी चाहिये , किसी सूरत नहीं

या , कुछ ऐसी बात न कहना जिसे कह देना ज़रूरी है

किसी के भले के लिये ,खुशी के लिये , वो भी इसलिये

 

ताकि हम छीन सकें , किसी के होठों की हँसी

नोच सकें किसी के मन की शांति

उतार सकें , बिखरा सकें

विचारों के , भावों के समत्व को

अन्दर के प्यार को , ममत्व को  

छितरा सकें मन की शांति  

ताकि  टूट जाये , बिखर जाये किसी का व्यक्तित्व

किसी को…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 4, 2014 at 11:30am — 15 Comments

हाँ..! कुछ तो बाकी है (अतुकांत)

आज कुछ....

आहट सी हुई, उस बंद

वीरान अन्धेरें से कोने में

जहाँ कभी

खुशियों की रौशनी थी

क्यों..?

आज उस बेजान लगने वाली

बंजर भूमि में

नमी सी आ गई

और दिखने लगा

एक आशा का अंकुरण

उस अंकुर में

जो कभी

हमने मिल कर

बोया था

हमारे वर्तमान और भविष्य

की छाँव

और फल के लिए

हाँ..! कुछ तो बाकी है

जो अमिट रहा

शायद....!

यही  तो रिश्ता होता…

Continue

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 2, 2014 at 2:05am — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
फूल कैसे खिलें ? ( एक अतुकांत चिंतन ) गिरिर्राज भंडारी

फूल कैसे खिलें ?  ( एक अतुकांत चिंतन )

***************

प्रेम विहीन हाथ मिले तो ज़रूर

मुर्दों की तरह , यंत्रवत

तो भी खुश हैं हम

शायद अज्ञानता और बेहोशी भी खुशी देती है ,एक प्रकार की

झूठी ही सही

और झूठी इसलिये

क्यों कि बेहोशी का सुख हो या दुख , झूठा ही होता है

 

इसलिये भी, क्योंकि

हम स्वयँ जीते ही कहाँ है

जीती तो है एक भीड़ हमारी जगह ,

भीड़ विचारों की , तर्कों – कुतर्कों की

भीड़ शंकाओं- कुशंकाओं की ,…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 6:42pm — 22 Comments

हाँ..! यही सच है (अतुकांत)

मन की...

तपती धरा पर

कुछ  बूंदें  ही बारिश की

यूँ पड़ी..

न कोई राहत ,न ही सौंधी सी महक

सिर्फ बेचैनी और उमस

कहीं संवेदनाओं की मिट्टी

पत्थर तो नहीं हो गई

 

या वर्ष भर के

लम्बे विरह से

मिलन की ,भूख-प्यास चाहती हो

खूब टूट-टूट कर 

बरसें   ये बादल

हाँ..! यही सच है

शायद..

मन भी यही चाहता है.

जितेन्द्र’गीत’

(मौलिक व् अप्रकाशित)

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on June 29, 2014 at 11:00am — 22 Comments

वह वृद्ध !! // अतुकांत कविता // अन्नपूर्णा बाजपेई

वह वृद्ध !!

कड़कती चिलचिलाती धूप मे

पानी की बूंद को तरसता

प्यास से विकल होंठो पर

बार बार जीभ फेरता

कदम दर कदम

बोझ सा जीवन, घसीटता

सर पर बंधे गमछे से

शरीर के स्वेद को

सुखाने की कोशिश भर करता 

अड़ियल स्वेद

बार बार मुंह चिढ़ाता

थक कर चूर हुआ

वह वृद्ध !!

कुछ छांव ढूँढता

आ बैठा किसी घर के दरवाजे पर

गृह स्वामी का कर्कश स्वर –

हट ! ए बुड्ढे !!

दरवाजे पर क्यों…

Continue

Added by annapurna bajpai on June 12, 2014 at 7:22pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
‘’हमारे रिश्ते‘ -अतुकांत (गिरिराज भंडारी)

‘’ हमारे रिश्ते ‘’

*****************

अगर रिश्ते सच में हैं , तो

मीलों की दूरियाँ

कमज़ोर नही करती रिश्तों की मज़बूती

मिलन की प्यास बढाती ज़रूर है

 

रिश्ते , मृग मरीचिका नहीं होते

कि , पास पहुँचें तो नज़र न आयें

भावनायें प्यासी रह जायें

 

रिश्ते

रेत मे लिखे इबारत भी नही होते

कि ,सफल हो जायें, जिसे मिटाने में

समय के समुद्र में उठती गिरती कमज़ोर लहरें भी

रिश्ते

शिला लेख की तरह…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on May 28, 2014 at 9:30pm — 33 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
उपयोगिता

फौलाद भी

चोट से आकार बदल लेते हैं

या टूट जाते हैं

फिर इंसान की क्या बिसात

कब तक सहेगा चोट

आखिर टूटना पड़ेगा

इंसान ही तो है

मगर

टूटकर भी कायम रहेगा

या बिखर जायेगा

ये इंसान की प्रकृति तय करेगी

 

हालात बदलने को तैयार है

पुरानी सड़क पर

डामर की नई परत बिछेंगी

खण्डरों का जीर्णोद्धार होगा

पुरानी इमारत के मलबे पड़े हैं

कुछ मलबे काम आयेंगे

कुछ मलबे मिटाये जायेंगे

ये…

Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on May 15, 2014 at 6:08pm — 36 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
'' ईश्वर होना चाहता भी हूँ या नहीं " ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

ईश्वर होना चाहता भी हूँ या नहीं

******************************

आज पूजा जा रहा हूँ ।

दूर दूर से आ कर

नत मस्तक हो हज़ारों हज़ारों भक्त

दुआयें मांगते हैं , चढ़ावे चढ़ाते हैं ,

अपनी अपनी मुरादों के लिये ।

उनकी अटूट ,गहरी आस्थाओं ने, विश्वासों ने  

सच में ज़िन्दा कर दिया है

मेरे अंदर , ईश्वरत्व ,

वो ईश्वरत्व

जो सारे ब्रम्हांड के कण कण में है ।

पूरी हो रहीं है मुरादें भी,

पर ,

कैसे कहूँ मै शुक्रिया उन…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on May 3, 2014 at 6:43pm — 19 Comments

हे स्त्री !!

उठो हे स्त्री !

पोंछ लो अपने अश्रु

कमजोर नही तुम

जननी हो श्रृष्टि की

प्रकृति और दुर्गा भी, 

काली बन हुंकार भरो

नाश करो!

उन महिसासुरों का

गर्भ में मिटाते हैं

जो आस्तित्व तुम्हारा, 

संहार करो उनका जो

करते हैं दामन तुम्हारा

तार-तार,

करो प्रहार उन पर

झोंक देते हैं जो

तुम्हें जिन्दा ही

दहेज की ज्वाला में,

उठो जागो !

जो अब भी ना जागी

तो मिटा दी जाओगी और

सदैव के लिए इतिहास

बन कर रह जाओगी…

Continue

Added by Meena Pathak on May 1, 2014 at 2:10pm — 19 Comments

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