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अतुकांत ---- तुम , तुम ही न रहे तो क्या बचा ? ( गिरिराज भंडारी )

तुम्हारे फूल अलग रंग के क्यों लग रहे हैं आज

पत्तों का आकार भी बदला बदला सा है

तुम्हारे फूल और पत्ते ऐसे तो उगते न थे

 

पोषण किसी और श्रोत से तो प्राप्त नहीं करने लगे

जड़ या तना बदल तो नहीं लिया है तुमने

बेतुक की बडिंग तो नहीं करवा ली है

किसी और प्रजाति के पौधे से

प्रजातियाँ अच्छी बुरी तो नहीं होतीं  

सभी अपनी जगह ठीक होतीं हैं

पर अपनी, अपनी होती है 

तुक की होती है !

 

बात केवल स्वतंत्रता पर खत्म नहीं होगी

इमानदारी तक भी जा सकती है 

मौलिकता तक तो जाना ही है

 

तुम अब वो रहे ही कहाँ

जड़ें बदल बदल कर क्या से क्या हो चुके हो

उन्नति नहीं कह पा रहा हूँ मै इस परिवर्तन को

वास्तविकता खोने की क़ीमत है ये ?

 

और फिर ,

अगर मै, मै ही नहीं रहा तो क्या रहा ?

तुम , तुम ही न रहे तो क्या बचा ?

         ****************

मौलिक एवँ अप्रकाशित  

 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 21, 2014 at 11:12pm

आदरणीय सौरभ भाई , आपकी प्रतिक्रिया ने मेरी रचना का मान बड़ा किया ॥ रचना की सराहना और अनुमोदन के लिये आपका दिल से आभारी हूँ  ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2014 at 9:19pm

आदरणीय गिरिराजभाईजी,
संभावनाओं को भटकते हम अक्सर देखते हैं. लेकिन कुछ कर नहीं पाते कि सामाजिक विवशता आड़े आती है. लेकिन वहीं सामाजिक दायित्व एक संवेदनशील व्यक्ति को प्रोत्साहित भी करता है कि वह उन विवशताओं के पार जा कर खरी-खरी बात कहे. साहित्य एवं कला पक्ष ही वह संबल देता है ताकि सटीक तथ्य संप्रेष्य हों.   

इस कविता का कथ्य, उसकी संप्रेषणीयता और इसकी शैली ने चकित किया है. क्योंकि यह आपकी अबतक की प्रस्तुतियों से तनिक अलग है. लेकिन यह भी कहना चाहूँगा कि एक पाठक के तौर पर मैं इस रचना की प्रस्तुति के प्रति आश्वस्त हूँ.


इस अति प्रखर रचना के होने पर सादर बधाइयाँ तथा अनेकानेक शुभकामनाएँ आदरणीय


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 13, 2014 at 5:31pm

आदरणीय केवल भाई , रचना की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 13, 2014 at 5:30pm

आदरणीया राजेश जी , रचना के अनुमोदन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 13, 2014 at 5:29pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 13, 2014 at 5:28pm

आदरणीय बड़े भाई अखिलेश जी , आपको रचना पसंद आयी तो लिखना सफल हो गया , सराहना के लिये आपका आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 13, 2014 at 5:27pm

आदरणीय शिज्जु भाई , अतुकांत रचना की सराहना के लिये आपका शुक्रिया ॥

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 13, 2014 at 2:17pm

आ0 भण्डारी भाईजी, बहुत ही सुन्दर, सामयिक और सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 13, 2014 at 1:39pm

रचना के माध्यम से नव पीढ़ी को बहुत अच्छा सन्देश दिया है ,बहुत सुन्दर रचना ,बधाई आपको आ० गिरिराज जी |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 13, 2014 at 10:15am

रचना के माध्यम से आपने आज की एक कडवी सच्चाई को बयाँ किया है

बात केवल स्वतंत्रता पर खत्म नहीं होगी

इमानदारी तक भी जा सकती है 

मौलिकता तक तो जाना ही है................सही है , सब स्वतंत्र है पर बिन अनुशाशन के. हार्दिक बधाई आपको आदरणीय गिरिराज जी

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