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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-116

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 116वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब  फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम "

2122         2122           2122    212

 

फाइलातुन    फाइलातुन      फाइलातुन   फाइलुन

(बह्र:  रमल मुसम्मन महज़ूफ़ )

रदीफ़ :- समझ बैठे थे हम।
काफिया :- आ( क्या, दीवाना, कैसा, प्यारा, अपना, तेरा आदि)

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 21 फरवरी दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 22 फरवरी दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

जनाब रवि शाहिद साहिब, गज़ल पसन्द करने और आपकी इस इनायत का बहुत बहुत शुक्रिया 

आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सादर अभिवादन । उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

जनाब भाई लक्ष्मण धामी साहिब, गज़ल पसन्द करने और आपकी हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया 

जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

जनाब समर साहिब आ दाब, गज़ल पसन्द करने और आपकी हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया 

अच्छी ग़ज़ल हुई है तसदीक़ जी

तस्दीक़ अहमद ख़ान साहब बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है बहुत बहुत बधाई 

आदरणीय तस्दीक साहब बहुत अच्छी ग़ज़ल आपने आज के मुशायरे में कही इसके लिए मेरी ओर से शेर दर शेर दिली मुबारकबाद कुबूल करें। सादर।

ज़नाब तस्दीक साहब , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है़ दाद कुबूल करें । 

इस लिए करते रहे दीदार दिलबर रात भर
माह ए - कामिल को तेरा चहरा समझ बैठे थे हम l

आदरणीय अहमद खान जी बहुत बढ़िया ,बधाई स्वीकार करें'

\

शिव शरण में आ के जाना सब उन्हीं के अन्श हैं
'इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम'।

2122 / 2122 / 2122 /  212

मौत को सबने कहा, सच्चा समझ बैठे थे हम
जिन्दगी को इस तरह माया समझ बैठे थे हम।१।
***
देह नश्वर  सबकी  चाहे  आत्मा  तो  है अमर
अन्त तनका ही, सफर पूरा समझ बैठे थे हम।२।
***
जब भी पूजा अर्चना की कुछ न कुछ मागा किए
भक्ति के हर  भाव  को  सौदा  समझ बैठे थे हम।३।
***
धार कर शिव ने स्वयं हर शक्ति पायी फिर भला
नार को क्यों मुक्ति पर ताला समझ बैठे थे हम।४।
***
शिव ही पालक हैं सभी के शिव ही तारनहार हैं
दम्भ में औलाद  को  पाला  समझ बैठे थे हम'।५।
***
शिव शरण में  आ के  जाना  सब उन्हीं के अन्श हैं
'इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम'।६।

***

कण्ठ में जिन के  हलाहल  शीष  बैठा चाँद है
सब के दाता को फकीरों सा समझ बैठे थे हम।७।
***
साँस रुकने का हमारी  अर्थ  शिव से था  मिलन
नासमझ थे जिसको मर जाना समझ बैठे थे हम'।८।

***
मौलिक.अप्रकाशित

आदरणीय लक्ष्मण भाई, आपको महाशिवरात्रि की ढेरों शुभकामनाएं। आपकी ग़ज़ल – जो कि आज के दिन के लिए बिलकुल उपयुक्त है – पढ़ कर आनंद आ गया। आपको इस सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई। दूसरे शेर में 'तनका' को 'तन का' और 'सफर' को 'सफ़र', और तीसरे शेर में 'मागा' को 'माँगा' कर लीजियेगा। आपने तरही मिसरे पर गिरह बहुत सुंदर लगाई है, और आख़िरी शेर मुझे ख़ास तौर पर बहुत अच्छा लगा। इस ग़ज़ल के लिए शेर दर शेर दाद क़ुबूल करें। सादर...

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