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खेलों में चयन प्रक्रिया में ईमानदारी न बरतना, विद्यालय-महाविद्यालय की टीम से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक हो ही रहा है| इन दिनों कुछ खेलों में यह प्रश्नचिन्ह भी लगा हुआ है| अपनी इस रचना के माध्यम से आपने जो प्रश्न उठाया है, वो केवल एक चाचाजी के लिए नहीं है, वरन देश की प्रतिभाओं और देश की प्रगति के ऊपर भी है| सादर बधाई स्वीकार करें आदरणीय सर इस सामयिक रचना हेतु |
अच्छा कथ्य चुना आपने आ. प्रदीप कुमार पाण्डेय जी ! बधाई
एक आकांक्षा की हत्या हो ही गई ,पाण्डे जी। यह समाज का वीभत्स चेहरा है। 
आपके पात्र के साथ सहानुभूति हुई। 
शिल्प पर थोड़ा प्रयास और करेंगे , मेरे नाम-राशि ?
प्रयास अच्छा है किन्तु सीधी-सादी सपाट बयानी है आ० प्रदीप कुमार पाण्डेय जी I प्रतिभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकारें I
दिल को छू गई ये लघु कथा ..साथ ही अपने यहाँ के सिस्टम पर मन आक्रोशित भी है बिना सोर्स के यहाँ कोई काम नहीं होता .
बहुत अच्छा लिखा है आपने हार्दिक बधाई आ० प्रदीप कुमार जी |
आपकी टिप्पणी यहाँ कैसे ?
हार्दिक बधाई आदरणीय प्रदीप जी ! बहुत अच्छी और समयानुकूल लघुकथा है!आज की तारीख में यह सब खेल कूद रसूखदार लोगों के लिए हैं जो बिना खेले करोडों में खेलते हैं!
आकांक्षा(लघुकथा)
कई वर्षों से इसी शहर में नौकरी करता हुआ,आज मैं दफ्तर सुपरडेंट की पोस्ट पर प्रमोट हुआ हूँ ।
गाँव से शहर पढ़ने आया और सर्विस करते हुए, आज इसी शहर की एक कालोनी में अपना घर बना, बच्चों को कालिज में पढ़ा रहा हूँ ।
ऊम्र भर जैसे मैनें नौकरी की है, और इसके साथ मेरी जाति का कच्चा चिठ्ठा मेरे आने से पहले इस दफ्तर में भी पहुँच गया था ।
आज जब साहिब ने जब बुला कर कहा “ये जो लोग नौकरी के लिए यहाँ आते है, इन्हें कहना चाहिए कि ये लोग अपना जद्दी पुस्ती काम करें ,इस से उनके काम में निपुणता हासल होगी ” ।
तो मेरा ध्यान मेरे गाँव में काम करते भाईयों की तरफ गया, वे लोग कितनी मेहनत करते, और अपने काम में निपुण भी हैं, मगर गाँव में काम के साथ जुडी हीनता,
कुछ पल के लिए मुझे लगा जैसे साहिब ने ये कह कर मुझे भी उसी हीनता की तरफ धकेल दिया हो।
और साहिब के कहे हुए शब्दों ने, मेरे अब तक कि सब किए करे पर पानी फेर दिया हो ।
हर बार जब भी कोई इस तरह की बात होती, तो पता नहीं मुझे ये क्यूँ लगता कि जिंदगी में सब कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी मैं आधा अधुरा ही जी रहा हूँ ।
बात काम की नहीं उस कि साथ जोड़ी जाती जाति हीनता के सांप की जो न जाने कब किसी को डस जाए ।
और तब पैसा व पढाई की रौशनी भी उसे रोक न पाए, अभी उनकी इस कही बात से मुझे लगा, मेरा साहिब के सामने खड़े होने के हौंसले को पस्त कर दिया हो कि इन्हें अपना जद्दी पुस्ती काम करना चाहिए।
मगर फिर मैनें खुद कि होंसले को समेटते हुए कहा, “बचपन मन में ये तथाकथित जाति हीनता का डर कभी पनपने न पाए, साहिब जी ये ख्याल रखना चाहिए, वरना यह जिंदगी भर साथ नहीं छोड़ता ।
“बस,जाति -पाति के दुश्मन को पछाड़ कर,सभी लोग एक दूसरे के हाथ से हाथ मिला कर काम करें, काम केवल काम हो, जाति नहीं”, मैनें वहाँ दफ्तर में खड़े ऊँची आवाज़ से कहा ।
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