For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे -ग़ज़ल

1222    1222    1222    1222

**********************************
दुखों से दोस्ती रख कर सुखों के घर बचाने हैं
मुझे  अपनी  खुशी  के रास्ते खुद ही बनाने हैं

**
परिंदों  को पता  तो है  मगर मजबूर हैं वो भी
नजर तूफान की कातिल  नजर में आशियाने हैं

**
पलों की कर खताएँ कुछ मिटाना मत जमाने तू
किसी का  प्यार पाने  में  यहाँ लगते जमाने हैं

**
न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे
गलत मन के इरादे हैं  गलत तन के निशाने हैं

**
खिलाफत रूढि़वादों की सिखाना है भला लेकिन
सिखाओगे ये  तुम  कैसे  हिमायत  में सयाने हैं

**
न आओ तुम समर्थन में हमें इतना ही कहना बस
यही आरोप तुम पर  भी  समय ने कल लगाने हैं

**
शहीदों ने फिकर कब की सरों के कट के गिरने की
लड़ेंगे  खाक  जालिम  से  जिन्हें  परचम झुकाने हैं

**
मौलिक और अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

Views: 507

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by वीनस केसरी on July 29, 2014 at 2:31am

अच्छी ग़ज़ल है ... दाद क़ुबूल करें

वैसे मेरे कुछ संदेह हैं जो यहाँ रखे जा रहा हूँ .. इनका समाधान हुआ तो आभारी रहूँगा
खिलाफत शब्द का प्रयोग अर्थ के मायने में विरोधाभासी दिख रहा है 
फिकर शब्द का प्रयोग मात्रिकता के हवाले से परेशान कर रहा है
और सबसे बड़ा संदेह ये हिया कि क्या हम बचाने/बनाने को काफिया बना सकते हैं,कहीं ईता ऐब तो नहीं आ जायेगा

/यही आरोप तुम पर  भी  समय ने कल लगाने हैं/
इस मिसरे में मुझे वैसा अटपटापन नहीं दिख रहा जैसा सौरभ जी कह रहे हैं, इसलिए ये भी मेरे लिए संदेह का विषय है, शायद मुझ पर दिल्ली का असर ज़ियादा हो ...

इस शेर में उलझा हूँ ...
परिंदों  को पता  तो है  मगर मजबूर हैं वो भी
नजर तूफान की कातिल  नजर में आशियाने हैं

सानी में नज़र किसकी है ... अगर तूफ़ान की नज़र है तो आगे देखें तो कातिल भी तूफ़ान ही है और आगे कातिल की नज़र का भी जिक्र है ... फिर नज़र शब्द का दोहराव क्यों ?
अगर नज़र परिंदों की है तो नज़र तूफ़ान की क्यों कहा गया ? कहीं पहला शब्द नज़र भर्ती का तो नहीं है
भी शब्द की शेर में क्या ज़रुरत है !!!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 28, 2014 at 10:44pm

बेहतर प्रयास है और परिणाम भी सही है. बधाई कुबूल कीजिये भाईजी.

न आओ तुम समर्थन में हमें इतना ही कहना बस
यही आरोप तुम पर  भी  समय ने कल लगाने हैं
समय ने कल लगाने हैं.. यह दिल्ली में चलता है, जानता हूँ. लेकिन हिन्दी-व्याकरण इस तरह से कारक की ने विभक्ति को नहीं स्वीकारता. ग़ज़ल के बारे में नहीं कह सकता. टकसाली जुबान के नाम पर शायद कुछ लोग इसकी इजाजत दे दें.

बहरहाल, शेर कहन के लिहाज से बहुत बड़ा है.
शुभ-शुभ



सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 28, 2014 at 11:59am

आदरणीय लक्ष्मण भाई , अंतिम अश आर तक ग़ज़ल बहुत बेमिसाल कही है , पूरी गज़ल के लिये आपको बधाइयाँ ॥

बस - नज़र वाले शे र मे दो बार नज़र कहने से सुन्दरता कम हो रही है , पहले आये  नज़र के स्थान मे  अभी कह सकते हैं , सोचियेगा , ज़रूरी नही है  मिसरा यों हो जाये गा - अभी तूफान की कातिल  नजर में आशियाने हैं ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 27, 2014 at 7:50pm

धामी जी

गुनीजनो ने कई  शेर उधृत  किये   i अब उन्हें क्या दुहराए  i बहुत सुन्दर ही कहूँगा i

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2014 at 5:56pm

आदरणीय भाई विजय शंकर जी, गजल का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 27, 2014 at 5:33pm
न आओ तुम समर्थन में हमें इतना ही कहना बस
यही आरोप तुम पर भी समय ने कल लगाने हैं
बहुत अच्छा है , बधाई।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2014 at 5:33pm

आदरणीय भाई विजय निकोर जी , आपकी उपस्थिति से गजल का मान अत्यधिक बढ़ गया । निरंतर आपका मार्गदर्शन ही मेरा मार्ग सरल कर देता है । स्नेह बनाए रखें । शुभ -शुभ ....

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2014 at 5:30pm
आदरणीय भाई सुशील जी, गजल को इतना मनान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद । यह सब आप लोगों का स्नेह ही है जो मुझे लेखन में निरंतर सुधार की प्ररणा देता है । आपकी चंद पंक्तियां जो मन को भा गई उनके लिए बधाई ।
Comment by vijay nikore on July 27, 2014 at 3:55pm

//पलों की कर खताएँ कुछ मिटाना मत जमाने तू
किसी का  प्यार पाने  में  यहाँ लगते जमाने हैं

**
न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे
गलत मन के इरादे हैं  गलत तन के निशाने हैं//

बहुत खूब...बहुत खूब। हार्दिक बधाई।

Comment by Sushil Sarna on July 27, 2014 at 3:22pm

परिंदों को पता तो है मगर मजबूर हैं वो भी

नजर तूफान की कातिल नजर में आशियाने हैं

निःशब्द हूँ आपकी इस प्रस्तुति पर आरणीय लक्ष्मण जी हर शेर को आपने अपनी ग़ज़ल में बेहद खूबसूरत अंजाम दिया है .... इस बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें - चार लाइनें आपके नज़र :

हौसला कभी  करते न वो
ग़र होती खबर तूफ़ान की
पंखों से कह देते न करना
कभी चाहतें आसमान की

@सुशील

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
yesterday
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Friday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service