अपने मौसम को ………
तुम ही तो थे
मेरे नेत्रों के वातायन से
असमय विरह पीर को
बरसाने वाले
मुझे अपने बाहुपाश में
प्रेम के अलौकिक सुख का
परिचय कराने वाले
मेरी झोली में विरह पलों को डालने वाले
क्या आलिंगन के वो मधुपल भ्रम थे
पर्दे के पीछे मेरी विरह वेदना को
सिसकियों में पिघलते
मूक बन कर देखते रहे
क्यों एक बार भी हाथ बढ़ा कर
मेरे व्यथित हृदय को
ढाढस बंधाने का प्रयास नहीं किया
मैं बिस्तर पर बिखरे वस्त्रों को समेटती रही
तुम्हारी बेतरतीब सी बिखरी किताबों में
तुम्हारे अक्स,तुम्हारे स्पर्श
महसूस करती रही
खाली पडी चाय की प्याली पर
तुम्हारे अधरों की अव्यक्त तृषा के भावों में
स्वयं को समाहित करती रही
मेरे नेत्रों की प्रणय प्रभा
तुम्हारी प्रतीक्षा की कल्पना में
साँझ के आवरण में लुप्त होने लगी
मैं बावली सी
इक बूँद प्यार की आस में
हर पल पाषाण पे मरती रही
अपने काजल से रात्रि को रंगती रही
कल्पना की चुनर से
अपने मयंक को तकती रही
अधर पे अंगार सजते रहे
मैं अपने मौसम को तरसती रही
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी रचना पर आपकी गहन मधुर प्रशंसात्मक अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार
आदरणीया राजेश कुमारी जी रचना पर आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
आदरणीय विजय निकोरे जी रचना पर आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी रचना पर आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया का तहे दिल से शुक्रिया
ओह ! ..
आज की पारिवारिक दशा की सहज और सरस अभिव्यक्ति... वाह !
हार्दिक बधाई आदरणीय
स्त्री की विरह व्यथा को सुन्दर शब्द लड़ियों में पिरोकर दी गई ये प्रस्तुति काबिले तारीफ़ है ,बहुत बहुत बधाई आपको आ० सुशील सरना जी .
इस भावपूर्ण रचना के लिए बधाई, आदरणीय।
मन को छू लेने वाली इस मनभावन रचना के लिए ढेर सारी बधाई सादर
विरहणी की भाव-दशा को, उसके मन की व्यथा को बहुत सम्वेदनशीलता से प्रस्तुत किया है आ० सुशील सरना जी
काजल से रात्री को रंगना और कल्पना की चूनर से मयंक को झांकना जैसे शब्दचित्र बहुत प्रभावित करते हैं .
इस प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारिये
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