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आदमी को आदमी ही अब समझ ले आदमी (गजल)/सतविन्द्र कुमार राणा

2122 2122 2122.212
प्यार के अहसास को दिल की चुभन तक ले चलो
नफरतों को भूलकर फिर से मिलन तक ले चलो।

आदमी को आदमी ही अब समझ ले आदमी
आदमीयत को जमाने के चलन तक ले चलो

बन नहीं सकती अगर सरकार खुद के जोर से
साथ लेकर औरों को इसके गठन तक ले चलो

भूख से तड़पे न कोई ठण्ड से काँपे नहीं
रोटी कपड़ा हर किसी के अब बदन तक ले चलो

छोड़ कर जिसको हूँ आया चन्द सिक्कों के लिए
याद आता है मुझे,मेरे वतन तक ले चलो

छोड़ना तन को था मुश्किल बिन तेरे दीदार के
हो गया दीदार बस अब तो कफ़न तक ले चलो

मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on March 13, 2017 at 6:37pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर जी।बहुत सुन्दर गज़ल।

छोड़ कर जिसको हूँ आया चन्द सिक्कों के लिए
याद आता है मुझे,मेरे वतन तक ले चलो

Comment by Samar kabeer on March 12, 2017 at 6:06pm
जनाब सतविन्द्र कुमार जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Gurpreet Singh jammu on March 12, 2017 at 7:35am
वाह वाह आदरणीय सत्वेंद्र जी क्या गज़ल कही है आपने.हरेक शेअर शानदार हुआ है.आपकी अब तक मैने जितनी गजलें पढ़ी हैं उनमें यह गज़ल मुझे सब से ज्यादा पसंद आई.किसी एक शेअर का ज़िक्र करना नहीं चाहूंगा..सभी शेअर लाजवाब हैं..बहुत बहुत बधाई आपको.
Comment by Mohammed Arif on March 10, 2017 at 11:31pm
आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी आदाब, हर शे'र लाजवाब । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।

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