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सांसारिक स्वार्थग्रस्त प्रक्रियाओं से घबराकर

मुझसे ही कतराकर

चल बसी थी अकुलाती मेरी आस्था

उसके अंतिम संस्कार से पहले

टूटे विश्वास से फूटी तो थी रक्तधार

पर यह तो सदियों पुरानी बात है

समझ में न आए

कुलाँचते ख्यालों की अदृश्य रगों में

आज इतनी तपिश क्यूँ है

यादों के घावों को चोंच मार

छील गया कोई कैसे

कब से यहाँ जब कोई पास नहीं है

मेरी ही आन्तरिक कमज़ोरी को जानकर

तकलीफ़ भरे धूल भरे

भीतरी विवरों में झांककर 

नागिन-सी लिपटी मेरी दलीलों को दिलासा देने

चली आती होगी

मृत-आस्था की आत्मा

पर आ-आकर वह

असंख्य असत्यों के सरसराते काल-नाग की

भयावह फुँकार से

हार जाती होगी, डर जाती होगी

मेरी तरह भटक जाने से भयभीत

लौट जाती होगी

ऐसे में मैं ही शब्दों और तर्कों  के चक्रव्यूह में

कठिन मानव-प्रसंगो के अनबूझे समीकरण से

ऊबकर उकताकर घबरा कर

छील देता हूँ हृदय-सम्बन्धों के घावों को नाखुनों से

चोंच मारते हुए पक्षी-सा

भयानक गति से बार-बार

-------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by narendrasinh chauhan on January 3, 2017 at 2:34pm

खूब सुन्दर रचना 

Comment by vijay nikore on January 3, 2017 at 11:03am

// ह्रदय के हाहाकार को शब्दों में साकार कर देने की कला सीखने के लिए आपके पास समिधा लेकर आना होगा . पीड़ा की अभिव्यक्ति तो सभी करते हैं पर आपका शब्द शब्द मानो  पीड़ा का यथार्थ बयां करता है.//

आदरणीय मित्र गोपाल नारायन जी, कवि के हृदय से आप परिचित हैं ... उफ़ान उठता है, दर्द बहता चला आता है । आपसे मिला मान

मेरे लिए बहुमूल्य है। आपका हार्दिक आभार।

Comment by Samar kabeer on January 2, 2017 at 8:51pm
जनाब विजय निकोर जी आदाब,ये कविता इतनी संजीदा और जज़्बाती है कि मेरे लिये इसकी तारीफ़ करना मुश्किल हो रहा है,हैरत ज़दा हूँ कि आप इस्तेआरों के ज़रिये कितनी आसानी से अपनी बात कह गये, वाह बहुत ख़ूब जनाब,इसे कहते हैं कामयाब सृजन जितनी तारीफ़ की जाये कम होगी इस रचना की,सलाम करता हूँ आपके जादुई क़लम को,सुब्हान अल्लाह,इस प्रस्तुति पर दिल की गहराइयों से ढेरों दाद के साथ देरों बधाई स्वीकार करें ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 25, 2016 at 6:15pm

आ० निकोर जी ह्रदय के हाहाकार को शब्दों में साकार कर देने की कला सीखने के लिए आपके पास समिधा लेकर आना होगा . पीड़ा की अभिव्यक्ति तो सभी करते हैं पर आपका शब्द शब्द मानो  पीड़ा का यथार्थ बयां करता है. एक बात पूंछू -यह विष कहाँ पाया ? सादर .  

Comment by vijay nikore on December 23, 2016 at 11:46am

रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय आशीष जी।

Comment by आशीष यादव on December 23, 2016 at 2:04am
Ek gambhir ewam anubhawi rachna.
Badhai.
Comment by vijay nikore on December 22, 2016 at 6:03pm

आदरणीय महेन्द्र कुमार जी, जन्मदिन की शुभकामनाओं के लिए और इस रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by Mahendra Kumar on December 21, 2016 at 12:23pm
आदरणीय विजय निकोर जी, अपने जन्मदिन के शुभ अवसर पर बहुत ही संवेदनशील और शानदार रचना प्रस्तुत की है आपने। इस रचना सहित आपको जन्मदिवस की ढेरों बधाई। आपका आने वाला वर्ष ऐसे ही सृजनशील बना रहे यही कामना है। सादर।
Comment by vijay nikore on December 21, 2016 at 12:09pm

प्रिय मित्र मिथिलेश जी, आपने इस रचना को जो मान दिया है, वह अमूल्य है। आपके दिए ही सुझाव के लिए कृतज्ञ हूँ।

रचना को इतना समय दिया, मैं बहुत ही आभारी हूँ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2016 at 1:07am

आदरणीय विजय निकोर सर, आपने आस्था की मौत और उसके बाद की त्रासदी का जो 'शोकगीत' लिखा है, वह पाठक को भीतर तक हिला देता है. वास्तव में आस्था निस्वार्थ होती है जो मनुष्य को सबल बनाती है और उसका आत्मविश्वास व आत्मबल बनाएं रखती है किन्तु दुनियादारी के भ्रमजालों और स्वार्थों के दबाव में जब उसकी मौत होती है तो मनुष्य निसहाय हो जाता है.

आपने उस मृत आस्था की आत्मा के बिम्ब को लेकर मानव मष्तिष्क की संश्लिष्ट प्रक्रियायों को जिस तरह शाब्दिक किया है वह बहुत अधिक प्रभावित कर रहा है. उस त्रासदी को बहुत सधे शब्द मिले है. आस्था के मानवीकरण द्वारा मनोविश्लेषण की अभिव्यक्ति आपके वृहत जीवन अनुभवों का सार है. इस गंभीर और प्रभावकारी वैचारिक प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर 

कुछ टंकण त्रुटियाँ -

अंतिम संसकार- अंतिम संस्कार

तपश- तपिश 

तकलीफ़ भरे धूल भरे 

भयावनी को भयावह या डरावनी किया जा सकता है.

मैं ही शब्दों और तर्कों के चक्रव्यूह में या मैं ही शब्दों के,  तर्कों के चक्रव्यूह में

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