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जमाना और था जब प्यार आँसू पोंछ देता था - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

1222    1222     1222 1222
******************************
ये कैसी  हलचलें  नवयुग  बता  तेरी  रवानी में
बचे  भूगोल  में  नाले  नदी   किस्से  कहानी में
****
बनीं नित नीतियाँ ऐसी हुकूमत हो किसी की भी
नफा व्यापार  में  बढ़चढ़  रहे  फाका किसानी में
****
दिलों का जोश ठंडा है, उमर कमसिन उतरते ही
बुढ़ापा  हो गया हावी  सभी  पर  धुर  जवानी में
****
जमाना  और  था  जब  प्यार  आँसू पोंछ  देता था
मगर अब अश्क मिलते हैं मुहब्बत की निशानी में
****
कमी कंकड़ में  है  या  फिर  हमारा हाथ कच्चा है
लहर उठती नहीं जो अब कभी इस झील पानी में
****
सुना था  तुम  हुए मुंसिफ  उजालों  के  नगर  में अब
‘मुसाफिर’ आगये फिर क्यों तमस की हित बयानी में
****
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

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Comment by Samar kabeer on April 5, 2015 at 11:09pm
जनाब लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" जी,आदाब,वाह वाह वाह,क्या ही अच्छे जज़बात से भरपूर अशआर निकाले हैं आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 4, 2015 at 5:34pm

ये कैसी  हलचलें  नवयुग  बता  तेरी  रवानी में 
बचे  भूगोल  में  नाले  नदी   किस्से  कहानी में |---वाह ! अब तो नक्शें से भी गायब होते जा रहे है | सिर्फ कहानी किस्सों में ही मिएँगे 
जमाना  और  था  जब  प्यार  आँसू पोंछ  देता था
मगर अब अश्क मिलते हैं मुहब्बत की निशानी में --- वाह  ! बहुत खूब | उम्दा  भाव  | इस खूबसूरत गजल के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 3, 2015 at 6:55pm
यूँ तो सभी अश 'आर अच्छे हैं , ये तो कुछ बहुत ही अलग है ,
" बचे भूगोल में नाले नदी किस्से कहानी में "
बहुत बहुत बधाई ,आदरणीय लक्षमण धामी जी , सादर।
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 3, 2015 at 4:38pm

बहुत बढ़िया जनाब ...बधाई ...सादर 

Comment by Samar kabeer on April 3, 2015 at 2:58pm
जनाब लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर'जी,आदाब,वाह वाह वाह,क्या ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 12:23pm
अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय लक्ष्मण जी, दाद कुबूल कीजिए
Comment by Shyam Narain Verma on April 3, 2015 at 12:15pm
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को "
Comment by Sushil Sarna on April 2, 2015 at 9:00pm

जमाना और था जब प्यार आँसू पोंछ देता था
मगर अब अश्क मिलते हैं मुहब्बत की निशानी में
****
कमी कंकड़ में है या फिर हमारा हाथ कच्चा है
लहर उठती नहीं जो अब कभी इस झील पानी में

आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' साहिब आपकी इस ग़ज़ल ने तो हमें लूट ही लिया .... खासकर ये दो शे'र तो गज़ब ढा रहे है … कल्पना का चरम आपने दर्शाया है इनमें … आपकी इस बेहद उम्दा प्रस्तुति पर बन्दे की तहे दिल से दाद कबूल फरमाएं सर।

Comment by Shyam Mathpal on April 2, 2015 at 7:45pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी,

कितने सुंदर शब्दों मैं आपने दर्द का चित्र खींचा है .उन सब की ओर से भी आपको ढेरों बधाई.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 2, 2015 at 5:05pm

आओ धामी जी

बहुत उम्दा गजल

.जमाना  और  था  जब  प्यार  आँसू पोंछ  देता था
मगर अब अश्क मिलते हैं मुहब्बत की निशानी में
****

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