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हमें वो वेवफा कह कर बुलाते है सितम देखो
चुरा कर नीद रातो की सताते है सितम देखो

कभी मै देखता भी तो नहीं था जाम के प्‍याले
कसम दे कर मुझे अपनी पिलाते है सितम देखो

बडे अरमान से जिसने  बनाया आशिया मेरा
वही उस आशिये को अब जलाते है सितम देखो

न रूठे वो कभी हमसे हमारे साथ चलते थे
मगर अब साथ गैरो का निभाते है सितम देखो

खुले जो लब कभी जिनके हमारा नाम ही निकले
न जाने क्‍यो वही हमको भुलाते है सितम देखो

मौलिक व अप्रकाशित अखंड गहमरी

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 1, 2014 at 10:36am

आदरणीय अखंड भाई , गज़ल खूब सूरत कही है , बधाइयाँ ॥ आ. शिज्जु भाई , निलेश भाई की बातें का खयाल करें ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 1, 2014 at 10:10am

वाह्ह्ह... बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है अखंड जी मजा आ गया पढ़ के ,आ० नीलेश जी का सुझाव सही है ,वहीँ पर मैं भी अटकी हूँ आशियाना होता है आशिया नहीं. आप इस शेर को यूँ कह सकते हैं ----बडे अरमान से जिसने  बनाया आशियाना था 
वही उस आशियाने को  जलाते   है सितम देखो| ---एक बात और ---उला में जिसने आ रहा है तो जलाते आने से दोष पैदा हो रहा है या तो जलाता आता किन्तु वो काफिये में नहीं आ सकता इसलिए आपको जिसने को ही चेंज करना पड़ेगा ----जैसे कर सकते हैं --बडे अरमान से दिल से  बनाया आशियाना था -----   फिलहाल ढेरों बधाई आपको |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 1, 2014 at 10:03am

आदरणीय अखंड जी, बहुत सुंदर गजल प्रस्तुति.दिली बधाई आपको


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 30, 2014 at 10:24pm

ग़ज़ल अच्छी लगी, आदरणीयभाई निलेश जी ने बढ़िया सुझाव दिया है, बधाई स्वीकार करें। 

Comment by बृजेश नीरज on June 30, 2014 at 9:05pm
बहुत सुन्दर प्रयास। आपको बधाई।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 30, 2014 at 5:59pm

बहुत खूब ग़ज़ल के लिए बधाई ..
.
वही उस आशिये को अब जलाते है सितम देखो... इस आशिए में थोड़ी उलझन है 
वही उस आशियाने को जलाते है सितम देखो... ऐसा बेहतर होगा शायद 
सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 30, 2014 at 3:19pm

आदरणीय अखंड भाई मेहनत आपकी रचनाओं में नज़र आ रही है बहुत बहुत बधाई
एक बात और जाम और प्याला समानार्थी शब्द हैं।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 30, 2014 at 12:41pm

गहमरी जी

अति सुन्दर  i बेहतरीन i

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 30, 2014 at 11:32am

आ० भाई गहमरी जी , ग़ज़ल अच्छी हुई इसके लिए हार्दिक बधाई कबूलें l दूसरे शेर में संभवत्यः कसम की जगह कमस हो गया है इसे दुरस्त कर लें l शुभ -शुभ ....  

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