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गजल-अब मैं थक कर हार रहा हूँ--उमेश कटारा

बह्र--222 221 122

लुट लुट कर बदहाल रहा हूँ
गम के आँसू पाल रहा हूँ 

जीवन से ता उम्र लडा मैं
हथियारों को डाल रहा हूँ

किस्मत ने भी खूब नचाया

मैं पिटता सुरताल रहा हूँ

सब हमको ही बेच रहे थे

सस्ता बिकता माल रहा हँ


मकडी मरती आप उलझकर

खुदको बुनता जाल रहा हूँ

मरजाऊँ तो आँख न भरना
मैं अश्कों का ताल रहा हूँ 

कर बैठा मैं प्यार अनौखा
रो रोकर बे-हाल रहा हूँ

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 2, 2013 at 8:04am

पुन: आप की ग़ज़ल पढ़ी ....आज काफ़िया ठीक लग रहा है .... मै अपनी पूर्व में की गई टिप्पणी वापस लेता हूँ ..क्षमा सहित...
सादर 
 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 2, 2013 at 3:53am

ग़ज़ल पर इस सार्थक बहस चलाने के लिए गुनीजनों का आभार. ग़ज़ल तो प्रथम दृ्ष्ट्या सही है. इस ग़ज़ल को बह्र फेलुन फेलुन में ही रखना था जिसकी आखिरी मात्रा फ़ा होती है.

शुभेच्छाएँ

Comment by विजय मिश्र on November 26, 2013 at 4:30pm
भावप्रधान और प्रवाह का निर्वाह करती एक आनन्ददायी रचना के लिए अनेकानेक बधाई उमेशजी .

"मरजाऊँ तो आँख न भरना
मैं अश्कों का ताल रहा हूँ --- शब्दों ने भाव के शमाँ बाँध दिए हैं ,बहुत खूब .
Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 26, 2013 at 1:59pm

आदरणीय उमेश जी ............................जीवन से ता उम्र लडा मैं
हथियारों को डाल रहा हूँ...वाकई जंग क्या मसलों का हल देगी ..हथियारों की जंग से सचमुच तौबा कर लेना चाहिए लेकिन कलम की आपकी ये जंग जारी रहे ....पिछली ग़ज़ल में काफिया की मेरी इसी भूल पर आदरणीय शिज्जू जी और आदरणीय वीनस जी का स्नेहिल मार्गदर्शन मुझे मिला था ....आदरणीय गिरिराज जी बिलकुल सही बयां कर रहे हैं ..मैं भी उनकी बातों से इत्तेफाक रखता हूँ ..बतौर एक रचना अपने सुंदर भावों के लिहाज से मुझे बहुत पसंद आयी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 25, 2013 at 6:42pm

आदरणीय , मठ्ठा , झगड़ा, पर्दा  ये हर्फे क़वाफी है जिसमे स्वर का निर्वाह किया गया है !!!! इसी तरह ,जहाँ ...आस्माँ -----वहाँ- ये भी हर्फे क़वाफी है जिनमे आँ  स्वर का निरवाह किया जा रहा है !!!

अब मैं थक कर हार रहा हूँ
गम के आँसू पाल रहा हूँ  ---- आपके इस मतले मे अ  स्वर का निर्वाह हो रहा है जिसे क़ाफिया नही माना जाता !!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 25, 2013 at 6:35pm

आदरणीय उमेश भाई ,

मुहब्बत करने वालों में ये झगडा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है -- इस शेर मे काफिया -आ  है जिसका निर्वाह किया गया होगा गज़ल मे , और डाल देती है

रदीफ है !! -- झगडा = झ + ग + ड़ + आ  और मठ्ठा = म+ठ+ठ+ आ - इस प्रकार आ काफिया हो रहा है !!

कभी किसी को मुकम्म्ल जहाँ नहीं मिलता 
कहीं जमीं तो कहीं आस्मां नहीं मिलता ------      इस शेर मे , नही मिलता रदीफ है और  आँ काफिया है !!!

आपके शे र मे ------ रहा हूँ ,  रदीफ  है  , और काफिया नही कुछ भी नही है , अ ( स्व्रर ) को काफिया नही माना जाता !!! 

अब मैं थक कर हार रहा हूँ
गम के आँसू पाल रहा हूँ

                                 कुछ समझा पाया हूँ  या नही  मै नही जानता ! बताइयेगा !

Comment by umesh katara on November 25, 2013 at 6:24pm

आदरणीय राना साहब की इसी गजल का अगला शेर है 
----------------------------------------------------
तवायफ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मन्दिर औ मस्जिद का पर्दा डाल देती है 

--------------------------इस गजल में झगडा----मट्ठा---पर्दा---कफिया है और   रदीफ --- डाल देती है .....इस तरह से है निदा फाजली साहब की गजल में रदीफ नहीं मिलता है और कफिया ---जहाँ ...आस्माँ -----वहाँ---इस तरह से हैं

Comment by umesh katara on November 25, 2013 at 6:01pm

आदरणीय--मुनब्बर राना साहब की गज़ल का मतला शेर है 

मुहब्बत करने वालों में ये झगडा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है 
-----------------------------------------------------------
निदा फाजली साहब की गजल का मतला

कभी किसी को मुकम्म्ल जहाँ नहीं मिलता 
कहीं जमीं तो कहीं आस्मां नहीं मिलता
--------------इनमें मात्राओं पर ही काफिया लिया गया है

Comment by umesh katara on November 25, 2013 at 5:40pm

आदरणीय निलेश जी गोपाल नारायन जी ,गिरिराज जी काफिया को मात्रा पर नहीं लिया जा सकता है क्या कृपया मार्गदर्शन करायें मैंने इसमें आअ काफिया लिया था जैसे हार,डाल ,,काट , मार ,क्या मात्रा पर काफिया लेना गलत है कृपया कर राय दें

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 24, 2013 at 4:08pm

भावपूर्ण है i

निलेश जी की राय आपके

लिए महत्वपूर्ण है i

कृपया ध्यान दे...

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