For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल :-लुक़्मा समझ के हम को मज़ेदार खा गई

बह्र :- मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ाइलुन

लुक़्मा समझ के हम को मज़ेदार खा गई
दुनिया है एक डायन-ए-बदकार खा गई

निकला जो चाँद मैंने ये समझा कि आप हैं
धोका मेरी नज़र ये कई बार खा गई

पहले तो इसने उनको ज़मींदार कर दिया
फिर ये ज़मीन सारे ज़मींदार खा गई

लिल्लाह अब ये ज़ुल्म-ओ-सितम रोक दीजिये
नफ़रत की आग कितने ही घर बार खा गई

जो कह रहा हूँ कोई नई बात तो नहीं
रोटी की भूक सेकड़ों फ़नकार खा गई

कपड़े ही सिल सके हैं ,न दीपक जला सके
मँहगाई हम ग़रीबों के त्यौहार खा गई

हम भी इधर उदास हैं ,वो भी उधर उदास
खुशियाँ तमाम सह्न की दीवार खा गई

मंज़िल क़रीब आई तो दम लेने रुक गए
तक़दीर बस वहीं प "समर" मार खा गई


"समर कबीर"
मौलिक / अप्रकाशित

Views: 660

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by shree suneel on May 12, 2015 at 5:53pm
आदरणीय समर कबीर सर, सारे अशआर ख़ूबसूरत, बेशकीमती कारीगरी से भरे.
लुक़्मा समझ के हम को मज़ेदार खा गई
दुनिया है एक डायन-ए-बदकार खा गई/
जो कह रहा हूँ कोई नई बात तो नहीं
रोटी की भूक सेकड़ों फ़नकार खा गई/
सही बात आदरणीय.. ख़ूब ग़ज़ल हुई है.. बधाई आपको
Comment by vijay nikore on May 12, 2015 at 4:48pm

खूब, बहुत खूब। हार्दिक बधाई इस अच्छी गज़ल के लिए।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 12, 2015 at 2:41pm

आदरणीय समर कबीर जी ..इस रचना को पढने के बाद बरबस ही मुह से निकल पड़ता है वाह वाह ...

पहले तो इसने उनको ज़मींदार कर दिया
फिर ये ज़मीन सारे ज़मींदार खा गई...................लाजबाब 

लिल्लाह अब ये ज़ुल्म-ओ-सितम रोक दीजिये
नफ़रत की आग कितने ही घर बार खा गई.....सच कहा है आपने .भावुक करता शेर 

जो कह रहा हूँ कोई नई बात तो नहीं
रोटी की भूक सेकड़ों फ़नकार खा गई..................दुखद है पर वाकई हकीकत यही है 

कपड़े ही सिल सके हैं ,न दीपक जला सके
मँहगाई हम ग़रीबों के त्यौहार खा गई..............................पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ 

हम भी इधर उदास हैं ,वो भी उधर उदास
खुशियाँ तमाम सह्न की दीवार खा गई.....सही है 

मंज़िल क़रीब आई तो दम लेने रुक गए
तक़दीर बस वहीं प "समर" मार खा गई................इस शेर की तारीफ़ के लिए शब्द नहीं मिल रहे हैं 

वाकई कमाल की ग़ज़ल 

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 12, 2015 at 11:02am

वाह वाह भी इस ग़ज़ल पर मार खा गई ....बहुत बढ़िया ....सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 12, 2015 at 10:43am

क्या खूब ..वाह वाह वाह ..
मकते पर झुक झुक के सलाम करता हूँ जनाब ..क्या कहने वाह 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 12, 2015 at 9:27am

कपड़े ही सिल सके हैं ,न दीपक जला सके
मँहगाई हम ग़रीबों के त्यौहार खा गई

हम भी इधर उदास हैं ,वो भी उधर उदास
खुशियाँ तमाम सह्न की दीवार खा गई   -- वैसे पूरी गज़ल शानदार कही है , आदरणीय समर भाई आपने , पर ये दो शे र मुझे बहुत सुन्दर लगे ॥ दिल से बधाइयाँ स्वीकार कीजिये ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 12, 2015 at 6:43am
लिल्लाह अब ये ज़ुल्म-ओ-सितम रोक दीजिये
नफ़रत की आग कितने ही घर बार खा गई
जो कह रहा हूँ कोई नई बात तो नहीं
रोटी की भूक सेकड़ों फ़नकार खा गई॥
बहुत खूब , आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , बहुत बहुत बधाई इस ग़ज़ल पर , सादर।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
50 minutes ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Sunday
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Friday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service