For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल -नूर -मुश्किल सवाल ज़ीस्त के आसान हो गए

22 12 12 11 22 12 12
मुश्किल सवाल ज़ीस्त के आसान हो गए,
ता-हश्र हम जो कब्र के मेहमान हो गए.
.

जब से कमाई बंद हुई सब बदल गया
अपनों पे बोझ हो गए सामान हो गए.
.
मेरे ये हर्फ़ बन न सके गीत और ग़ज़ल
उनके तो वेद हो गए कुर’आन हो गए.
.
उसने बना के भेजा हमें आदमी प् हम 
हिन्दू इसाई और मुसलमान हो गए.
.  
जब हश्र पर दिखाया गया आईना हमें  
ख़ुद के चलन पे ख़ुद ही पशेमान हो गए.
.
कुछ लोग इस जहान में इंसान भी नहीं, 
कुछ लोग ऐसे देखे जो भगवान हो गए.
.
ऐसा नहीं की आपने इस दिल को छू लिया  
मासूमियत पे आपकी कुर्बान हो गए. 
.
जब से बदल लिया है हवाओं ने अपना रुख
वाक़िफ थे लोग जितने भी अन्जान हो गए.  
.
मिसरे कहे थे चंद यूँ ही खेल खेल में
शायर के बाद उसकी वो पहचान हो गए.
.
बरसों ख़फ़ा रहे वो कभी बात तक न की
फिर एक दिन वो हम पे मेहरबान हो गए. 
.
वो रह न पाए साथ मगर धडकनों में हैं
मेरी हर एक नज़्म का उन्वान हो गए.
.
जब से हुआ है ‘नूर’ निगहबाँ चिराग़ का 
जितने भी थे रक़ीब वो तूफ़ान हो गए.
.
नूर 
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 889

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 31, 2015 at 1:58pm

शुक्रिया आ. लक्ष्मण जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 31, 2015 at 1:58pm

शुक्रिया आ. विजय शंक जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 31, 2015 at 1:57pm

शुक्रिया आ. समर कबीर साहब.
अमूमन हर शायर दाद पाने का ख्वाहिशमंद होता है लेकिन अगर दाद के साथ लाखों का मशविरा भी मिल जाए तो क्या कहने. आपके कहे अनुसार मूल प्रति में बदलाव कर लिया है.
सादर   
 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 31, 2015 at 12:31pm

आ० नीलेश जी

बड़ेबड़े विद्वान आपनी बात कह गए . मैं  क्या कहूं. एक्से एक बाहुस्न  शेर. शानदार मक्ता .

-मेरे ये हर्फ़ बन न सके गीत और ग़ज़ल
उनके तो वेद हो गए कुर’आन हो गए

जब हश्र पर दिखाया गया आईना हमें  
ख़ुद के चलन पे ख़ुद ही पशेमान हो गए.

कुछ लोग इस जहान में इंसान भी नहीं, 
कुछ लोग ऐसे देखे जो भगवान हो गए
----वगरह वगैरह .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 31, 2015 at 9:11am

निलेश भैया आपकी ग़ज़लें सटीक हुआ करती हैं चाहे भाव पक्ष कहिये या शिल्प किस शे'र को कोट करूँ सभी लाजवाब है हर शे'र के लिये दाद हाज़िर है

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 31, 2015 at 6:30am

आ0 भाई नीलेश जी इस सुंदर ग़ज़लक़े लिए हार्दिक बधाई .

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 31, 2015 at 4:11am
कुछ लोग इस जहान में इंसान भी नहीं,
कुछ लोग ऐसे देखे जो भगवान हो गए.
वाह क्या बात है, आदरणीय नीलेश नूर जी बहुत खूब , पूरी ग़ज़ल बहुत उम्दा है , बहुत बहुत बधाई, सादर ,
Comment by Samar kabeer on March 30, 2015 at 10:57pm
जनाब निलेश "नूर" जी,आदाब,ग़ज़ल का हक़ अदा कर दिया आपने,वाह वाह वाह,शैर दर शैर दाद क़ुबूल फ़रमाऐं,इस ग़ज़ल में जितने भी शैर हैं सब एक से बढ़ कर एक हैं,मुझे आज रात की ग़िजा मिल गई,आपका ये शैर सुनकर:-
" जब से कमाई बंद हुई सब बदल गया
अपनों पे बोझ हो गए सामान हो गए"

सानी मिसरा अगर इस तरह हो जाए तो शैर का हुस्न दो बाला हो जाएगा:-
"अपनो पे बोझ बन गए सामान हो गए",एक ही शब्द "हो गए" दो बार ठीक नहीं लग रहा,यह तनक़ीद नहीं एक दोस्ताना मशवरा है,अगर आप क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 9:38pm

शुक्रिया आ. दिनेश भाई जी ..

Comment by दिनेश कुमार on March 30, 2015 at 9:22pm
वाह वाह वाह आ. निलेश भाई, कमाल की ग़ज़ल हुई है। मैं मिथिलेश भाई की टिप्पणी से अक्षरशः सहमत हूँ। इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए मेरी तरफ से भी ढेरों दाद व मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए भाई।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
19 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service