" वाह !! बहुत खूब रितेश गुप्ता , तुमने संस्था का नाम ऊँचा किया है । हम सबको तुम पर गर्व है । " पीठ थपथपाकर मोहित सर ने जब शाबाशी दी तो रितेश दर्प से भर उठा ।
" सर , सब आपके मार्ग दर्शन का ही नतीजा है । "
" फिर तो मुझे गुरू दक्षिणा भी मिलना चाहिए तुम से । " मोहित सर की बाँछे खिल उठी ।
" क्या बात करते है सर ...? लाखों रूपयों की फीस के बाद अब यह गुरू दक्षिणा भी ___ ...? "
कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर और सारगर्भित लघुकथा , बधाई स्वीकारें..
आज हर क्षेत्र में व्यवसायिकता ने पाँव पसार लिए हैं. अपना सन्देश छोडती सफल लघुकथा पर बधाई आदरणीया कांता जी. गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें आपको
वाह आखिर में सही जगह चोट की है आपने बहुत बढ़िया
Kकांता जी
आप की लघुकथा शानदार है . बधाई .
विडम्बना यही है कि हर चरित्र के लोग हर संस्था में हैं |पर समाज और संस्था से हि लोग आगे बढ़ते हैं |और विविध चरित्र के लोग अपने जैसे मूल्यों को पोषित करते हैं ,आगे बढ़ाते हैं ,|सच्चाई को बड़ी साफगोई से व्यक्त किया आप ने |बधाई इस सद्प्रयास पर |
वाह वा, वाह वा ! कमाल !
आजके शिक्षा-संस्थानों की सच्चाई मुखर हो कर सामने आयी है. मुझे आपके कहे पर कोई सुझाव नहीं देना, आदरणीया. यह एक संयत प्रस्तुति है.
भाई गणेश जी, आपके सुझाव से जिस सात्विक वातावरण का निर्माण हो रहा है उसके लिए यह लघुकथा तैयार नहीं है. यह कथा जो कहना चाह रही है ह ऐसे ही स्पष्ट है. वातावरण को अनावश्यक सात्विक न किया जाय.
शिक्षा के व्यावसायिक पहलू को बखूबी उभारती हुई इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया.
सादर
हाँ रितेश बिलकुल, मुझे तुमसे फ़ीस के अतिरिक्त "गुरु दक्षिणा" भी चाहिए, तुम्हारे साथ एक ग्रुप फोटो, ताकि तुम हमेशा मुझे याद रहो.
आप अपनी लघुकथा में अगर यह पक्ति जोड़ दे तो आपकी पूरी लघुकथा ही बदल जायेगी.
गुरु दक्षिणा का अर्थ आवश्यक नहीं कि महंगे गिफ्ट या नगद ही हो. आपकी लघुकथा में कही यह प्रतीत नहीं होता कि गुरु वाला पात्र लालची है, हां यह जरुर भान हो रहा है कि शिष्य की सोच वैसा है. एक बात और 'रितेश गुप्ता' लिखने की कोई जरुरत नहीं, सामान्यतः शिक्षक सीधे नाम (रितेश) लेकर ही पुकारते हैं.
सादर.
आदरणीया कांता जी , सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई
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