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“अब्बास ये आतंकवादी दीन और ईमान की बात करते हैं, आतंकवादियों का कोई दीन कोई मजहब होता है क्या? बंदूक के ज़ोर पर आतंक फैलाकर कौन सा दीन कायम करना चाहते हैं ?“

अब्बास टी वी की तरफ इशारा करते हुये- “ये बंदूकवाले आतंकवादी खुद मारते और मरते हैं पर कुछ आतंकवादी सिर्फ ज़ुबान चला कर आतंक फैलाते हैं, खुद नहीं मरते मारते ये काम दूसरों से करवाते हैं, दीनो ईमान इनका भी नहीं होता।”

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 21, 2014 at 9:04am

आदरणीय श्याम नारायण जी आपका हार्दिक आभार

Comment by harivallabh sharma on December 20, 2014 at 1:55pm

बहुत सामयिक , वास्तव में आतंकवादी लोगों के दिमाग पर कब्ज़ा कर उनसे मनचाहा कार्य कराने में माहिर शातिर लोग ही हैं ..जिन्हें मानवीयता से कुछ सरोकार नहीं...अति सुन्दर, लघुकथा हेतु बधाई आदरणीय.

Comment by somesh kumar on December 19, 2014 at 11:58pm

पर्दे की पीछे और पर्दे के आगे दोनों तरफ एक जैसे दिनों ईमान वाले |सार्थक सामयिक लघुकथा बधाई आदरणीय


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 19, 2014 at 12:38am

समसामयिक विषय पर आधारित इस बेहतरीन रचना  पर आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीय शिज्जु जी  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 18, 2014 at 10:49pm

सामयिक घटनाओं पर दृष्टि बनी रहे. इस विधा में आपको रचनाकर्म करते देखना भला लगा, भाई शिज्जूजी.
हार्दिक शुभकामनाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 18, 2014 at 8:02pm

सुन्दर, सामयिक लघुकथा के लिये बधाई , आदरनीय शिज्जु भाई ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 18, 2014 at 7:51pm

सच कहा है शिज्जू भैय्या कुछ परदे के पीछे कुछ बाहर पर सब एक ही हैं मारने वाले मारने के लिए उकसाने वाले बराबर गुनहगार हैं 

अच्छी सामयिक लघु कथा बधाई आपको 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 18, 2014 at 6:20pm

शिज्जू भाई

आपने वह छवि दिखाई जो आवरण में होने से नजर नहीं आती i सादर बधाई i

Comment by Hari Prakash Dubey on December 18, 2014 at 11:42am

आतंकवादियों का कोई दीन कोई मजहब होता है क्या? सत्य है ,हार्दिक बधाई आदरणीय  शिज्जु "शकूर" जी !

Comment by Shyam Narain Verma on December 18, 2014 at 10:02am

बहुत बेहतर लघुकथा. बधाई आपको

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