जिन्होंने रास्तों पर खुद कभी चलकर नहीं देखा
वही कहते हैं हमने मील का पत्थर नहीं देखा
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मिलाकर हाँथ अक्सर मुस्कुराते हैं सियासतदाँ
छिपा क्या मुस्कराहट के कभी भीतर नहीं देखा
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उन्हें गर्मी का अब होने लगवा अहसास शायद कुछ
कई दिन हो गए उनको लिए मफलर नहीं देखा
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सड़क पर आ गई थी पूरी दिल्ली एक दिन लेकिन
बदायूं को तो अब तक मैंने सड़कों पर नहीं देखा
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फ़क़त सुनकर तआर्रुफ़ हो गया कितना परेशां वो
अभी तो उसने मेरा कोई भी तेवर नहीं देखा
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अभी तो बाबुओं ने ही उसे दौड़ा के रक्खा है
अभी तो उसने ढंग का एक भी अफसर नहीं देखा
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ये जैसलमेर की जलती ज़मीं कुछ पूछती तुझसे
बता ऐ अब्र तूने क्यूं कभी मुड़कर नहीं देखा
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मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
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मिलाकर हाँथ अक्सर मुस्कुराते हैं सियासतदाँ
छिपा क्या मुस्कराहट के कभी भीतर नहीं देखा
अच्छी गज़ल के लिए बधाई।
शानदार ....हालात को एक नई कसौटी पर कसती हुई ग़ज़ल के लिए बधाई
//उन्हें गर्मी का अब होने लगवा अहसास शायद कुछ
कई दिन हो गए उनको लिए मफलर नहीं देखा // टंकण त्रुटि है शायद।
//फ़क़त सुनकर तआर्रुफ़ हो गया कितना परेशां वो
अभी तो उसने मेरा कोई भी तेवर नहीं देखा // बहुत ही खूबसूरत शेर हुआ है।
खूबसूरत उम्दा गज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई। अंतिम शेर बहुत पसंद आया
सोचते सोचते इस मुकाम पर पहुंचे हो
के ज़िद तूने अबतक पुख्ता इंसा नहीं देखा
हर शेर आजकी विसंगतियों को बखूबी साझा करता हुआ है. बदायूँ वाला शेर एकदम से मौजूं होने कारण लाजिमी है ध्यान खींचता है. अलबत्ता, बिम्बात्मक तो मफ़लर और जैसलमेर वाले शेर हुए हैं. ’तुझसे’ जैसे सर्वनाम के साथ संज्ञा ’अब्र’ को निभा जाना एकदम से मोह गया.
इस शानदार ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकारें.
सड़क पर आ गई थी पूरी दिल्ली एक दिन लेकिन
बदायूं को तो अब तक मैंने सड़कों पर नहीं देखा ...
वाह - वाह - वाह - वाह........बेहद उम्दा गजल हुई है भाई.... खासकर ये शेर तो कमाल हो गया.........
अभी तो बाबुओं ने ही उसे दौड़ा के रक्खा है
अभी तो उसने ढंग का एक भी अफसर नहीं देखा
हरिक शेर उम्दा है यथार्थ को खींचती गजल है वाहहहहहहहहहहहहहहहह हार्दिक अभिनंदन
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