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भावों के विहंगम

तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से

ऐ परिंदे!

हिलोर आ जाती है

स्थिर,अमूर्त सैलाब में

और...

छलक जाता है 

चर्म-चक्षुओं के किनारों से

अनायास ही कुछ नीर.

हवा दे जाते हैं कभी

ये पर तुम्हारे

आनन्द के उत्साह-रंजित

ओजमय अंगार को,

उतर आती है

मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,

अमृत की तरह.

विखरते हैं जब

सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग,

तेरे आ बैठने से.

चेतना फूंकती है सुगंधी

जड़, जीर्ण और...अचेतन में.

बोल,भावों के विहंगम!

है कहाँ तेरा घरौंदा?

कण-कण में या हृदय में,

या फिर दूर...

यथार्थ के उस यथार्थ में,

जो कई बार अननुभूत रह जाता है.

-विन्दु

(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 12, 2014 at 9:33am

बोल,भावों के विहंगम!

है कहाँ तेरा घरौंदा?

कण-कण में या हृदय में,

या फिर दूर...

यथार्थ के उस यथार्थ में,

जो कई बार अननुभूत रह जाता है..............बहुत सुंदर व् गहरे भाव से संजोयी रचना

हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया वंदना जी

Comment by shashi purwar on February 11, 2014 at 11:25pm

वंदना जी सुन्दर रचना है भावों की  सुन्दर अभिव्यक्ति की है आपने

तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से

ऐ परिंदे!

हिलोर आ जाती है

स्थिर,अमूर्त सैलाब में

और...

छलक जाता है 

चर्म-चक्षुओं के किनारों से

अनायास ही कुछ नीर.. बहुत खूब बधाई आपको

Comment by MAHIMA SHREE on February 11, 2014 at 9:34pm

बोल,भावों के विहंगम!

है कहाँ तेरा घरौंदा?

कण-कण में या हृदय में,

या फिर दूर...

यथार्थ के उस यथार्थ में,

जो कई बार अननुभूत रह जाता है...... वाह प्रिय वंदना जी बहुत ही सुंदर प्रस्तुति .. कुछ पल को खो गयी ...हार्दिक बधाई आपको


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 11, 2014 at 7:03pm

भाव की महिमा के प्रभावों/या कहें की भाव-खेल  में डूबा-डूबा मन आनंद में बतियाता भाव का ही मूल खोजता..

रचना की अंतर्धारा पसंद आयी

 

एक आध टंकण त्रुटी है उसे सुधार लीजिये 

बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर प्रिय वंदना जी 

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 10, 2014 at 9:30pm

आदरणीय वंदनाजी, इस भावपूर्ण प्रस्तुति के लिये बधाई

Comment by vijay nikore on February 10, 2014 at 9:30pm

सारी रचना में भाव अति गहरे हैं... एक से एक बढ़ कर ... पर निम्न पंक्तियाँ तो एक दम छू गईं

 

//बोल,भावों के विहंगम!

  है कहाँ तेरा घरौंदा?

  कण-कण में या हृदय में,

  या फिर दूर...

  यथार्थ के उस यथार्थ में,

  जो कई बार अननुभूत रह जाता है.//


आपकी रचना को कई बार पढ़ा और आनन्द लिया। हार्दिक बधाई आदरणीया वन्दना जी।

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2014 at 8:50pm

आदरणीया वन्दना जी , सुन्दर रचना के लिये आप्को बहुत बधाई ॥

Comment by ram shiromani pathak on February 10, 2014 at 4:31pm

विखरते हैं जब सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग, तेरे आ बैठने से. चेतना फूंकती है सुगंधी जड़, जीर्ण और...अचेतन में. /////आहा क्या चित्रण किया है आपने अनुपम। …  हार्दिक बधाई आदरणीया वंदना जी। …… सादर

Comment by coontee mukerji on February 10, 2014 at 3:43pm

वसन्त  रास्ते पर है....आहट दरवाज़े  तक सुनाई दे रही है. युवा भावनाएँ मुखरित हो रही है...मन का  कोयल कुहूक रहा है.

बोल,भावों के विहंगम!

है कहाँ तेरा घरौंदा?

कण-कण में या हृदय में,

या फिर दूर...

यथार्थ के उस यथार्थ में,

जो कई बार अननुभूत रह जाता है......बहुत सारी शुभकामनाएँ सहित .

Comment by Meena Pathak on February 10, 2014 at 2:49pm

बहुत सुन्दर .... बधाई वंदना जी 

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