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पत्थरों  के  बीच   रहकर  देवता  बनकर  दिखा
दीन मजलूमों के हित में इक दुआ बनकर दिखा
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कर  रहा  आलोचना  तो   सूरजों   की   देर  से
है अगर  तुझमें हुनर तो  दीप सा बनकर दिखा
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चाँद पानी में  दिखाकर स्वप्न  दिखलाना सहज
बात तब  है  रोटियों  को  तू तवा  बनकर दिखा
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देख  जलता  रोम  नीरो  सा  बजा मत बंशियाँ
जो हुए  बरबाद  उनको  आसरा  बनकर दिखा
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है सहोदर  तो  लखन  सा  पास  तेरे भी यहाँ
चाहता  गर त्याग  है तो राम सा बनकर दिखा
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आ रहा  है  साथ कोई भी नहीं  तो  क्यों रूदन
खुद  अकेले  ही समूचा  कारवाँ  बनकर दिखा
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हो  गई  रसहीन  चेटिंङ  फेसबुक  पर  तो बहुत
अब पुरानी चिट्ठियों का सिलसिला बनकर दिखा
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हैं दुआएँ साथ सब की पृष्ठ बनकर मत अकड़
त्याग कर फैलाव  को तू हाशिया बनकर दिखा
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चन्द  छाले  पड़ गए तो कोसता क्यों  राह को
है सरल  होना ‘मुसाफिर’ रास्ता बनकर दिखा
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आदरणीय लक्ष्मणजी इस पुरअसर ग़ज़ल के लिये दिली बधाई स्वीकार करें शेष चर्चायें तो ही ही चुकी है
आदरणीय लक्ष्मण भाई , बढिया गज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ ॥ आदरणीय मिथिलेश भाई जी की सलाह भी बहुत सहीं है , खयाल कीजियेगा ।
सुझावों और उचित सलाहों के बरअक्स आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल पर हार्दिक बधाइयाँ.
शुभेच्छाएँ.
ल्लाजवाब .आदरणीय बहुत उम्दा,
बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है ... दिल से दाद कुबूल फरमाएं
आदरणीय समर कबीर जी की सलाह से सहमती व्यक्त करते हुए एक निवेदन -
चाँद पानी में  दिखाकर स्वप्न  दिखलाना सहज
बात तब  है  रोटियों  को/का  तू तवा  बनकर दिखा
देख रोम  जलता  रोम देख नीरो  सा  बजा मत बंशियाँ
जो हुए  बरबाद  उनको /उनका आसरा  बनकर दिखा
आ रहा  है  साथ कोई भी नहीं  तो  क्यों रूदन
खुद  अकेले  ही समूचा  कारवाँ  बनकर दिखा.......कारवाँ का...... आँ काफिया ?
हो  गई  रसहीन  चेटिंङ  फेसबुक  पर  तो बहुत...... चेटिंग / चैटिंग 
अब पुरानी चिट्ठियों का सिलसिला बनकर दिखा
सादर
बहुत ही लाजवाब रचना और बात भी क्या खूब कही है जो कही न कहीं अनकही है सादर!
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