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All Blog Posts Tagged 'ग़ज़ल' (726)


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प्रेमधारा मेरी बाधित है अभी ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122      2122      2122      212

.

आपकी पिछली कही मन में प्रवाहित है अभी

इसलिये तो प्रेमधारा मेरी बाधित है अभी

 .

अब सदा बहती ही रहती है उपेक्षा आँखों से

मै कहाँ हूँ आपके मन में ये साबित है अभी

 .…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 6, 2013 at 2:30pm — 29 Comments

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

हमारे नाम का चर्चा हुआ होगा सितारों में।

ज़माना खोजता होगा हमें भी बेसहारों में॥

.

किसी ने हाथ छोड़ा तो बढ़ा के रुक गया कोई,

हमारी तंगहाली भी नज़ारा थी नज़ारों में।

.

छुपाते हैं जिसे दिल में उसे ही छीन लेता है,

न जाने कौन क़ातिल है हमारे राज़दारों में।

.

न मुड़ के देखती है फिर लहर जो लौट जाती है,

बड़ी गहरी उदासी है समंदर के किनारों में।

.

रिवाज़ों के,समाजों के अजब रंगीन किस्से हैं,

वही जिनसे अदावत थी जमा हैं सोगवारों में।

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'रवी'… Continue

Added by Ravi Prakash on December 5, 2013 at 3:30pm — 31 Comments

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
.
ज़िंदगी कैसी बग़ावत हो गई।
मौसमों से भी अदावत हो गई॥
.
ले चली है हाँकती जाने किधर,
वासना सबकी महावत हो गई।
.
संयमी का पेट आधा ही भरा,
भोगियों की रोज़ दावत हो गई।
.
चापलूसी है चलन में इन दिनों,
वीरता केवल कहावत हो गई।
.
रुक गई थी काँप के दो पल 'रवी',
साँस मेरी फिर यथावत हो गई॥
.
-मौलिक व अप्रकाशित॥

Added by Ravi Prakash on November 28, 2013 at 8:48pm — 15 Comments

ग़ज़ल - अक्षरों में खुदा दिखाई दे !

ग़ज़ल –

२१२२ १२१२ २२

अक्षरों में खुदा दिखाई दे

अब मुझे ऐसी रोशनाई दे |

 

हाथ खोलूं तो बस दुआ मांगूँ,

सिर्फ इतनी मुझे कमाई दे |

 

रोशनी हर चिराग में भर दूं ,

कोई ऐसी दियासलाई दे |

 

माँ के हाथों का स्वाद हो जिसमें,

ले ले सबकुछ वही मिठाई दे |

 

धूप तो शहर वाली दे दी है,

गाँव वाली बरफ मलाई दे |

 

बेटियों को दे खूब आज़ादी ,

साथ थोड़ी उन्हें हयाई दे…

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Added by Abhinav Arun on November 14, 2013 at 7:45pm — 41 Comments

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ

.

आसनों पे हैं निशाचर जंगलों में राम है।

साधुओं के वेष में शैतान मिलना आम है॥

.

राहुओं को जीवनामृत, नीलकण्ठों को गरल,

अंत में प्रत्येक मंथन का यही अंजाम है।

.

और कितना द्रोपदी के चीर को लंबा करे,

दम बहुत दु:शासनों में, मुश्किलों में श्याम है।

.

क़ातिलों,बहरूपियों,पाखंडियों के हाट में,

ज़िंदगी मेरी-तुम्हारी कौड़ियों के दाम है।

.

गर न खाना मिल सके दो वक़्त,आदत डाल दे,

चार दिन है भुखमरी फिर क़ब्र में आराम… Continue

Added by Ravi Prakash on November 6, 2013 at 7:11pm — 15 Comments

ग़ज़ल (७) : ख़ुदकुशी अच्छी नहीं होती !

बहुत ज्यादा भी हो, पाकीज़गी, अच्छी नहीं होती 

न करना यार मेरे, ख़ुदकुशी, अच्छी नहीं होती//१ 

.

चलो माना, के जीने के लिए, खुशियाँ जरूरी है 

जरा भी ग़म न हो, ऐसी ख़ुशी, अच्छी नहीं होती//२ 

.

भले ही, आह उट्ठे है !!, दिलों से, वाह उट्ठे है !! 

मगर सुन, आँख की, बेपर्दगी अच्छी नहीं होती//३

.

तजुर्बे का, अलग तासीर है, यारों मुहब्बत में 

हमेशा इश्क़ में, हो ताज़गी, अच्छी…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 19, 2013 at 12:19pm — 38 Comments

ग़ज़ल (६) : ज़िंदगी बेचैन करती है !

करूं मै क्या? मेरी आवारगी बेचैन करती है 

बनूँ गर रहनुमा तो, रहबरी बेचैन करती है//१ 

.

समंदर से सटा है घर, मगर लब ख़ुश्क है मेरा 

तेरी जो याद आये, तिश्नगी बेचैन करती है//२ 

.

के अच्छी मौत है, इक बार ही जमकर सताती है 

मुझे दिन-रात, अब ये ज़िंदगी बेचैन करती है//३ 

.

मुहब्बत है मुझे भी, चाँदनी की नूर से लेकिन 

निगाहे-हुस्न तेरी, रौशनी बेचैन करती…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 18, 2013 at 5:00pm — 20 Comments

ग़ज़ल - मेरे महबूब कभी मिलने मिलाने आजा ( सलीम रज़ा रीवा )

मेरे  महबूब  कभी  मिलने  मिलाने  आजा !

मेरी   सोई   हुई   तक़दीर  जगाने   आजा !!

तेरी आमद को समझ लूँगा मुक़द्दर अपना !

रूह बनके मेरी   धड़कन मे समाने आजा !!

मैं तेरे  प्यार  की   खुश्बू  से महक जाऊगा !

गुलशने  दिल को मुहब्बत से सजाने आजा !!

 

तेरी    उम्मीद   लिए    बैठे    हैं    ज़माने  से !

कर  के  वादा  जो  गये  थे वो निभाने आजा !!

बिन तेरे सूना है ख़्वाबो का ख़्यालो का महल !

ऐसी    वीरानगी  …

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Added by SALIM RAZA REWA on October 17, 2013 at 9:30am — 16 Comments

ग़ज़ल (५) : वो शाइरी सी है !

फ़िदा है रूह उसी पर, जो अजनबी सी है 

वो अनसुनी सी ज़बाँ, बात अनकही सी है//१ 

.

धनक है, अब्र है, बादे-सबा की ख़ुशबू है 

वो बेनज़ीर निहाँ, अधखिली कली सी है//२ 

.

कभी कुर्आन की वो, पाक़ आयतें जैसी 

लगे अजाँ, कभी मंदिर की आरती सी है//३ 

.

ख़फ़ा जो हो तो, लगे चाँदनी भी मद्धम है 

ख़ुदा का नूर है, जन्नत की रौशनी सी है//४ 

.

वो…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 16, 2013 at 5:00pm — 20 Comments

ग़ज़ल (४) : बताओ माँ, मेरी चादर कहाँ है !

कहाँ है कील, शर, नश्तर कहाँ है

मेरा काँटों भरा, बिस्तर कहाँ है//१

.

उठा के मार, मंदिर में पड़ा ‘वो’  

भला क्या पूछना, पत्थर कहाँ है//२

.

तभी सोंचू के, मैं क्यूँ उड़ रहा हूँ

अमीरों क़र्ज़ का, गट्ठर कहाँ है//३

.

लगे मय पी रहा है, आज वो भी

जहर पीता था, वो शंकर कहाँ है//४

.

बुराई झाँकती है, देख दिल से

छुपा उसको, तेरा अस्तर कहाँ है//५

.

सपोलें मारने से, कुछ न होगा 

चलो खोजें छिपा, अजगर कहाँ…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 16, 2013 at 4:30pm — 19 Comments

ग़ज़ल (३) : मुझे लड़की बनाना !

मेरे अल्लाह ! तू लड़की बनाना

मुझे आता नहीं, चोटी बनाना//१

.

बनाना चाहता हूँ ‘आदमी’ को

बुरा है पर, ज़बरदस्ती बनाना//२

.

मुझे इक 'माँ' लगे है, देख लूं जो        

सनी मिट्टी लिए रोटी बनाना//३

.

न डूबेगा समंदर में, लहू के  

शिकारी सीख ले कश्ती बनाना//४

.

चला वो, तीर-भाले को पजाने

सिखाया था जिसे बस्ती बनाना//५

.

उजालों से मुहब्बत है, मुझे भी

सिखा दे माँ मुझे तख्ती…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 12, 2013 at 5:00pm — 33 Comments

ग़ज़ल (२) : क़ब्र के पत्थर !

न ज़िंदगी को सजाना, गड़े खज़ाने से

नसीब ‘राख़’ है, साँसों के रूठ जाने से//१

.

खड़े हैं क़ब्र के पत्थर-से लोग चौखट पर   

जवान बेटी की इज्ज़त को यूँ गंवाने से//२

.

पकड़ के पूँछ कलाई, पे बांध लेता मैं

जो मान जाता कभी वक़्त भी मनाने से//३

.

न आफ़ताब को हो फ़िक्र तो मिटेगा क्यूँ 

कोई न फ़र्क है जुगनूँ के दिल जलाने से//४

.

सुना है अश्क़ दवाई से कम नहीं होता   

तो छोड़ रात में पलकों को यूँ नहाने से //५

.

तुझे…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 6, 2013 at 1:30pm — 30 Comments

फूल बागो में खिले --- गजल

फूल बागों में खिले ये सबके मन को भाते है

मंदिरों के नाम पर ये रोज तोड़े जाते है .



फूल माला में गुथे या केश की शोभा बने

टूट कर फिर डाल से ये फूल तो मुरझाते है



फूल का हर रंग रूप तो सुरभि भी पहचान है

फूल डाली पर खिले तो भौरों को ललचाते है



फूल चंपा के खिले या फिर चमेली के खिले

फूल सारे बाग़ के मधुबन को ही महकाते है



भोर उपवन की देखो तितली से ही गुलजार हुई

फूलों का मकरंद पीने भौरे भी  मंडराते है



पेड़ पौधो से सदा…

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Added by shashi purwar on October 5, 2013 at 5:00pm — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मोतबर चुप है ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122     1212    22  

       

जुल्म को देख रहगुज़र चुप है

गाँव सारा नगर नगर चुप है

खामुशी चुप ज़ुबां ज़ुबां है  चुप

दश्त चुप है शज़र शज़र चुप है

दोस्त चुप चाप दुश्मनी भी…

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Added by गिरिराज भंडारी on October 4, 2013 at 8:00am — 39 Comments


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हाथ काटे जा चुके हैं फिर तू आंखें लाल कर ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122     2122          2122            212

कोशिशों का अब कहीं नामों निशां रहता नहीं 

हाल अपना संग है वो ,जो कभी ढहता नहीं

हादसे कैसे भी हों कितने भी हों मंज़ूर सब

ख़ून अब बेजान आंखों से कभी बहता…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 30, 2013 at 8:30pm — 38 Comments


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दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा ( गज़ल - गिरिराज भंडारी )

212    212    212     212 

.

छांव में धूप का क्यों गुमाँ हो रहा

दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा

 

सड़ चुकी मान्यता सांस फिर ले रही

दिन चढ़े तक कोई शख़्स ज्यों सो रहा  

 

ज़ाहिरन बात ये कह रहा है करम

बढ़ गया पाप जब तो कोई धो…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 23, 2013 at 12:00pm — 38 Comments

ग़ज़ल (१) : आशिक़ी मौत से बदतर है !

आज फिर याद कई, ज़ख्म पुराने आये

धड़कने बंद करो, शोर मचाने आये//१

.

लेके मरहम न सही, हाथ में गर खंजर हो  

हक़ उसी को है, मेरा दर्द बढ़ाने आये//२

.

इश्क़ में आह की दौलत के, बदौलत हम हैं   

कोई तो हो जो मेरा, ज़ख्म चुराने आये//३ 

.

रोते-रोते ही कहा, मुझको मुआफ़ी  दे दो 

अश्क़ अपना जो, समंदर में छुपाने आये//४

.

कम चरागें न जलाई थी, तेरी यादों की  

जल रहा दिल है, उसे कोई बुझाने आये//५

.

आशिक़ी मौत से…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on September 21, 2013 at 4:00pm — 27 Comments

मैंने बस राख में हवा की है -अभिनव अरुण ||ग़ज़ल||

ग़ज़ल –

२१२२  १२१२  २२

तुझसे मिलने की इल्तिज़ा की है ,

माफ़ करना अगर खता  की है |

 

राज़ पूछो न मुस्कुराने का ,

चोट खायी तो ये दवा की है |

 

अब मुझे हिचकियाँ नहीं आतीं ,

मेरे हक़ में ये क्या दुआ की है |

 

फूल तो सौ मिले हैं गुलशन में ,

खुशबुओं की तलाश बाकी है |

 

तुम इसे शाइरी समझते हो ,

मैंने बस राख में हवा की है |

 

एक पत्थर ख़ुशी से पागल था ,

आईनों ने ये इत्तिला…

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Added by Abhinav Arun on September 19, 2013 at 4:30am — 46 Comments

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