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All Blog Posts Tagged 'कविता' (987)

कविता :- परिंदों दे दो

परिंदों दे दो

अपने दाने दाने

पाने के संघर्ष के पल

हम मानवों…

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Added by Abhinav Arun on January 30, 2011 at 10:00pm — 2 Comments

स्वप्न और यथार्थ...

थाम के मैं हाथ तेरा चल पड़ी सपनों के नगर ..

एक अनजाना सा घर, एक  अनजानी डगर ..

ठान के ,हूँ साथ तेरे,कितना भी हो कठिन ये सफ़र..

पार भव कर ही लेंगे साथ मेरे तुम हो अगर..

 

छोड़ना मत हाथ मेरा तुम कभी वो हमसफ़र..

प्यार से सजाएंगे हम अपना ये प्रेम नगर..

करना नज़रंदाज़ मेरी गलती हो कोई अगर..

कोशिश तो बस ये मेरी, नेह में न हो कोई…

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Added by Lata R.Ojha on January 30, 2011 at 7:30pm — 8 Comments

वो स्थिर ...

कुछ भी तो स्थिर नहीं..

ना घूमती धरा…
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Added by Lata R.Ojha on January 30, 2011 at 12:30am — 5 Comments

खुद को सौंपा अब मैंने 'उनको '..



ओस की बूँद सी आँखों में सिमट आयी है...

फिर भी  क्यों लब पे हंसी छाई है..

सांझ का धुंधलका मेरे आसपास सिमटा है..

जैसे मेरे ज़ेहन की परछाई है..

 

क्यों मिले थे तुम ? क्यों पास हम आये थे?

क्यों अनजान बन के ख्वाब सजाये थे?

एक पत्थर से वो ख़्वाबों का घर बिखरा है..

जो हम अनजाने थे तो पहचाने से क्यों थे ?…

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Added by Lata R.Ojha on January 28, 2011 at 11:00pm — 3 Comments

स्मृति में..

 

पिताजी की डायरी से...

स्मृति में..



मेरे नगमे तुम्हारे लबो पर,

अचानक ही आते रहेंगें .

एक गुजरी हुई जिंदगी में ,

फिरसे वापस बुलाते रहेगें.



याद आयेगा तुमको सरोवर

और पीपल की सुन्दर ये छाया .

ये बिल्डिंग खड़ी याद होगी ,

जिसको यादों में हमने बसाया .

बरबस ये कहेंगे कहानी ,

और हम…

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Added by R N Tiwari on January 28, 2011 at 10:00am — 2 Comments

कविता : - केवल तूने ही नहीं खाईं गोलियाँ ..

कविता : -केवल तूने ही नहीं खाईं गोलियाँ ..

बापू केवल…

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Added by Abhinav Arun on January 26, 2011 at 7:00pm — 10 Comments

आज देखा हमने तिरंगे का बस दो रंग अपने चेहरे पर !

क्यों संसद खामोश और ट्विट्टर चिल्ला रहा ,


क्या बदनसीबी थी हमारी,
हमारा ही रोकेट, हमारे ही घर को जला गया कहीं !


100 मेडल्स जीते हमने इस बार पर,
100 करोड़ की कीमत चूका गया कोई !


ये कैसी विकास गंगा बहा दी अपने देश मे ,
अपने ही लोगो का खून सूखा गया कोई !


ये कैसी छाई है…
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Added by Sujit Kumar Lucky on January 26, 2011 at 9:30am — 6 Comments

कविता :- कहाँ गणतंत्र

कविता :- कहाँ गणतंत्र

 

फेल हुए सब मंत्र…

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Added by Abhinav Arun on January 25, 2011 at 3:51pm — 10 Comments

पिता जी की डायरी से....

पिता जी की डायरी से....



हाय भगवन क्या दिखाया ,

शांति मन में विक्रांति लाकर .

सरज का नव पुष्प कोमल , 

अग्नि ज्वाला में फसाकर,

वेड ही दिवस महिना ,

श्वेत ही वर्ण था निशा का,

शास्त्र ही दिन शेष था.

सूर्य था पश्चिम दिशा का.

उत्साह का उस दिन था पहरा ,

नयन सबही के खिले थे.

एक वर वधु के व्याह में ,…

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Added by R N Tiwari on January 23, 2011 at 6:30pm — 4 Comments

वो कौन है ...

वो कौन है ...

यह तो एक पहेली है
उसकी अठखेली है...
दिखता वह अनजान है
पर हम सब की जान है
यह पहेली सुलझाने को 
युगों से अनेक ऋषि-मुनि 
हुए हैं अशांत
लेकिन वह तो हमेशा से ही
दिखता प्रशांत 
चैन की बंशी बजाता है
अपनी ही चलाता है
 नमस्कार बन्धु....
बहुत ठीक है तुम अपनी ही चलाओ 
सारी दुनिया को…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on January 21, 2011 at 8:30am — 6 Comments

आज नही कल शाम को जाना!

बहूत दिनों के बाद मिलें हो क्योँ जाने कि जिद करते हो|
आ ही गए हो ठहर के जाना, आज नही कल शाम को जाना|


तुम्हे रोकने कि ख्वाहिश नहीं है, पर कहना है मेरे दिल का|
तेरे साथ मैँ बरबस ना करुँगा, कुछ समझो मेरी मुश्किल का|


पहले भी तुम जा सकते हो, पर करना ना झुठा बहाना|
आ ही गए हो ठहर के जाना, आज नही कल शाम को जाना|


पहले लू जैसा आलम था, अब बारिश सा मौसम होगा|
दिल में घटाएं घिरने लगेँगी और आँखोँ में सावन…
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Added by CHANDAN KUMAR on January 21, 2011 at 1:00am — 2 Comments

ज़िन्दगी..

कुछ ज़िन्दगी का साथ मैंने यूं निभाया ..

कभी आग पे चली और कभी लुत्फ़ उठाया ..


कभी तूफ़ान से लड़ी तो कभी साथ उड़ चली…
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Added by Lata R.Ojha on January 19, 2011 at 8:00pm — 6 Comments

ऐसी 'जिद'... ऐसा 'फितूर'...!!

कुछ 'ऐसी' ज़िद है...

ऐसा 'फ़ितूर' है...

नहीं तलाशनी पड़ती...

कोई 'वजह'...

हंसने-रोने को...

नाराज हूँ 'खुद' से...

या 'किस' से... "क्यों"...

नहीं जानती...

जानना 'भी' नहीं चाहती...

चल रही जिन 'राहों' में...

जाते 'किस' मंजिल...

नहीं 'पहचानती'...

क्यों नहीं आता कोई मोड़ 'नया'...

जहाँ "थम" जाऊं...

ना 'थकती' चल-चल…

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Added by Julie on January 18, 2011 at 12:00am — No Comments

मैं.. बस एक अंश..

उस दिव्य ज्योति की अंश मात्र..

हूँ उस असीम की कृपापात्र..

इस रंगमंच पे जीना है..

कुछ वर्ष-माह मुझे मेरा पात्र..



कुछ ज्ञान कहीं जो सुप्त सा है..

उसको जड़ता से…

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Added by Lata R.Ojha on January 16, 2011 at 4:30am — 2 Comments

सफ़र

बातों बातों में कट गया सफ़र पता ही न चला

आखिर में था न कोई शिकवा न कोई था गिला

बातों बातों में कट गया सफ़र पता ही न चला



कभी रस्ते में सताया इस भीड़ ने

गिरे भी तो उठाया इस भीड़ ने

यों ही चलता रहा सिलसिला

पता ही न चला ..



बातों बातों में कट गया सफ़र पता ही न चला



जागते थे रात भर उजाले की चाह में

वो सपने ही सहारे थे उस राह में

यों ही एक दिन मिल गया शिखर पता ही न चला



बातों बातों में कट गया सफ़र पता ही न चला …

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Added by Bhasker Agrawal on January 15, 2011 at 2:00pm — 2 Comments

स्वप्निल सुबह

गुनगुनाती मध्यम धूप सुबह की, 

तन -मन मैं बिखेर देती है अनगिनित उजाले'

कहीं खो जाते है इस स्वर्णिम चमक में,

मन में छुपे कुछ बादल काले

 

खिल जाती हैं, नयी उमीदों की नयी कोपलें

नई धुन पर तैयार ,नई गुनगुनाहटे,  

  पहले से जवान, पहले से हसीन, 

  मन के कोने से निकलकर कहीं,                           

कोरे कैनवास…

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Added by anupama shrivastava[anu shri] on January 14, 2011 at 1:00pm — 6 Comments

धर्म का पालन

में रोज जब घर से निकलता हूँ

तो खुला आसमान दिखता है

जैसे कि वो अपनी अनन्तता में

मेरा स्वागत कर रहा हो,

 

हवाएं मेरे बालों को सहलाती,

पंछी गीत गाते मुझे सुकून देते हैं

जमीन मेरा बोझ उठाकर

मुझे सम्हाले रखती है,

 

ये इनका रोज का नियम है ,

उनका प्रेम है जो, कभी कम नहीं होता

शायद वो अपना धर्म नहीं जानते ,

वरना मुझे छोड़ आपस में ही

वाद विवाद में उलझे होते,

 

या फिर शायद वो अपना…

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Added by Bhasker Agrawal on January 14, 2011 at 10:00am — 5 Comments

ग़र साथ नहीं तेरी किस्मतें...

 

यूँ तो उड़ सकता है कोई कागज़ का पुर्ज़ा भी
पैर ज़मीन पर पसारे,
कभी कभी भाग्य के सहारे,
लेकिन उड़ नहीं पाता वही…
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Added by Veerendra Jain on January 13, 2011 at 11:30am — 13 Comments

कश्तियाँ

बहती हैं कश्तियाँ लहरों में
या उन्हें चीर के चली जाती हैं
या किनारे पे खड़ी खड़ी
अकेली मुस्कराती हैं

काश कोई बता देता मुझको
कि ये लहरें कहाँ पे जाती हैं
बहाती हुई ये अपने संग सबकुछ
किनारे पर ही क्यों ले आती हैं

लड़ता हूँ जब थक कर में
लहरों कि इन लपटों से
तब ये क्यों तट पर आते ही
खुद ही ठंडी हो जाती हैं

किनारे पे है अंत इनका
किनारे से प्रारंभ है
काश कोई बता देता मझको
के ये बहती हैं या बहाती हैं

Added by Bhasker Agrawal on January 7, 2011 at 8:52pm — 2 Comments

ओ बावरी हँसी मुझे छोड़ो नहीं

ओ बावरी हँसी मुझे छोड़ो नहीं

रह जाओ मेरे संग

मेरी संगनी बनकर

मुझे छोड़ो नहीं



तुम बिन में क्या

एक बेमतलब का खिलौना

आओ खेलो मेरे संग

मुझे छोड़ो नहीं

ओ बावरी हँसी मुझे छोड़ो नहीं



मेरी साँसों के संग तुम चलो

दिल में मेरे तुम धडको

शांति बनकर विराजो मस्तक कमल पर

मुझे छोड़ो नहीं

ओ बावरी हँसी मुझे छोड़ो नहीं



आओ उड़ चलें गगन के पार

वहां घर बसाएंगे

मिलकर कुछ गुल खिलायेंगे

एक बगिया अपनी भी… Continue

Added by Bhasker Agrawal on January 6, 2011 at 6:12pm — 2 Comments

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