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दिनेश कुमार's Blog (90)

ग़ज़ल -- मैं अगर क़तरा हूँ दरिया कौन है ( दिनेश कुमार )

2122--2122--212



जो समेटे मुझको ऐसा कौन है

मैं तो इक क़तरा हूँ दरिया कौन है



ग़ौर से परखो मेरे किरदार को

मुझ में ये मेरे अलावा कौन है



कश्तियों का है सहारा नाख़ुदा

नाख़ुदाओं का सहारा कौन है



कृष्ण से मिलने की चाहत है किसे

द्वारिका में अब सुदामा कौन है



पत्थरों में आग बेशक है छिपी

ध्यान से इनको रगड़ता कौन है



सामने है पूर्वजन्मों का हिसाब

कौन है अपना, पराया कौन है



ज़हन में जिसके भरा है ' मैं ' ही… Continue

Added by दिनेश कुमार on January 9, 2017 at 10:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल -- जुमलों के तरकश ने तीर उछाले हैं ( दिनेश कुमार 'दानिश' )

22--22--22--22--22--2



जुमलों के तरकश ने तीर उछाले हैं

अच्छे दिन क्या सचमुच आने वाले हैं



नागनाथ और साँपनाथ में फ़र्क नहीं

तन उजले लेकिन मन इनके काले हैं



साँपों को भी दूध पिलाते हैं अक्सर

ज़ह्नों पर हम सब के कैसे ताले हैं



रोटी की फिर देखो बंदरबाँट हुई

कुछ भूखों के मुँह से छिने निवाले हैं



राहनुमा की शक़्ल में रहज़न हैं सारे

रात की आहट से ही डरे उजाले हैं



बारिश से बचते हैं जब तक रँगे सियार

शेर को भी तब… Continue

Added by दिनेश कुमार on January 3, 2017 at 10:00pm — 13 Comments

ग़ज़ल -- मेरी ग़ज़ल का हर एक पहलू नया नया है ( दिनेश कुमार )

121 22 -- 121 22 -- 121 22



नया ज़माना है पा में घुंघरू नया नया है

मुहब्बतों का ये रक़्स हर-सू नया नया है



कहाँ से सीखा है यूँ नज़र से शिकार करना

तेरी कमाँ पर ये तीर-ए-अब्रू नया नया है



निग़ाह-ए-साक़ी से मत उलझना ए दोस्त मेरे

वो मय से छलके है रिन्द भी तू नया नया है



जवान बेटे को देख मुझको यही है लगता

कि मेरे शाने पे एक बाज़ू नया नया है



मैं तिफ़्ले-मकतब हूँ मीरो-ग़ालिब को पढ़ने वाला

मेरी ज़बाँ पे ये रंग-ए-उर्दू नया नया… Continue

Added by दिनेश कुमार on November 8, 2016 at 1:06am — 6 Comments

तरही ग़ज़ल -- " तेरे बारे में जब सोचा नहीं था " ( दिनेश कुमार )

1222--1222--122



मेरे चेहरे पे जब चेहरा नहीं था

मैं उस आईने से डरता नहीं था



ग़मों से जब नहीं वाबस्तगी थी

मैं इतनी ज़ोर से हँसता नहीं था



नज़ाक़त... ताज़गी... कुछ बेवफ़ाई

किसी के हुस्न में क्या क्या नहीं था



नशेमन की उदासी बढ़ रही थी

परिन्दा शाम तक लौटा नहीं था



हवा से लड़ रहा था एक दीपक

अँधेरा चार सू फैला नहीं था



फ़िज़ा की शक़्ल में शय कौन सी थी

चमन में गुल कोई महका नहीं था



सभी रिश्तों पे हावी… Continue

Added by दिनेश कुमार on October 16, 2016 at 12:53am — 3 Comments

ग़ज़ल -- ज़ख़्म हँसते हैं लब नहीं हँसते ( दिनेश कुमार 'दानिश' )

2122--1212--22



ज़ख़्म हँसते हैं लब नहीं हँसते

लोग यूँ बे-सबब नहीं हँसते



ख़ुद में ही खोये खोये रहते हैं

महफ़िलों में भी सब नहीं हँसते



दर्दो-ग़म ने हमें ये सिखलाया

कब नहीं रोते कब नहीं हँसते



इस हँसी के भी कुछ म'आनी हैं

मसखरे रोज़ो-शब नहीं हँसते



पुर-तकल्लुफ़ है मेरा लहजा अब

वो भी अब ज़ेरे-लब नहीं हँसते



कैसे कह दूँ बहार आई है

फूल बाग़ों में जब नहीं हँसते



हम हैं इल्मो-अदब के राहनुमा

हम कभी… Continue

Added by दिनेश कुमार on October 9, 2016 at 8:50am — 7 Comments

ग़ज़ल -- मेयार शायरी का क़ायम जनाब रखना ( दिनेश कुमार दानिश )

221--2122--221--2122



मेयार शायरी का क़ायम जनाब रखना

ता-उम्र फ़िक्रो-फ़न के ताज़ा गुलाब रखना



जाती है जान जाए लेकिन न कम हो इज़्ज़त

सहराओं के मुक़ाबिल क्या चश्मे आब रखना



देना हिसाब होगा हम सबको रोज़-ए-महशर

गठरी में तुम भी अपनी कुछ तो सवाब रखना



तहज़ीब का तक़ाज़ा कहता है औरतों को

शर्मो हया का हर पल रुख़ पर नक़ाब रखना



हर वक़्त भागना ही जीवन नहीं है प्यारे

साँसों के इस सफ़र में कुछ सब्रो-ताब रखना



उम्मीद पर टिकी… Continue

Added by दिनेश कुमार on September 28, 2016 at 7:17am — 2 Comments

ग़ज़ल -- हरगिज़ न हमको मूकदर्शक पासबानी चाहिए ( दिनेश कुमार 'दानिश' )

2212--2212--2212--2212



हरगिज़ न हमको मूकदर्शक पासबानी चाहिए

दुश्मन का मुँह जो तोड़ दे अब वो जवानी चाहिए



फ़िरक़ा परस्ती की जड़ों को काटना है गर हमें

लफ़्ज़े-सियासत के लिए उम्दा म'आनी चाहिए



ये क्या कि हम बँटते गए दैरो-हरम के नाम पर

जम्हूरियत जब हो, रेआया भी सयानी चाहिए



उस उम्र में बच्चों के हाथों में यहाँ हथियार हैं

जिस उम्र में ख़ुशियों की उनको मेज़बानी चाहिए



ग़ुरबत अशिक्षा भुखमरी के मुद्दए तो गौण हैं

संसद में चर्चा… Continue

Added by दिनेश कुमार on September 26, 2016 at 5:32am — 4 Comments

ग़ज़ल -- रुख़-ए-पुरज़र्द को गुलफ़ाम कर दे। ( दिनेश कुमार 'दानिश' )

1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2

___________________



रुख़-ए-पुरज़र्द को गुलफ़ाम कर दे

तबीयत में मेरी आराम कर दे



थी अपनी इब्तिदा-ए-इश्क़ मद्धम

तू इसका सुर्ख़रू अंजाम कर दे



किसे मालूम जन्नत की हक़ीक़त

तू आना मयकदे में आम कर दे



पिला नज़रों से अपनी कुछ तो मुझको

नहीं कुछ और , ज़िक्र-ए-जाम कर दे



मोहब्बत की सज़ा ! तुझ गुलबदन को

तू आयद मुझ पे सब इल्ज़ाम कर दे



रगों में इसकी धोका झूट लालच

सियासत पल में क़त्ल-ए-आम कर… Continue

Added by दिनेश कुमार on August 20, 2016 at 4:52am — 5 Comments

ग़ज़ल -- डगर जीवन की जो समतल नहीं है। ( दिनेश कुमार )

1222--1222--122





डगर जीवन की जो समतल नहीं है

मेरी पेशानी पर भी बल नहीं है



समस्या आपकी सुलझाऊँगा मैं

मगर चिंता का कोई हल नहीं है



गवाही दे रही गलियों की रौनक

अभी उस गाँव में गूगल नहीं है



कोई तूफ़ान आएगा यक़ीनन

समन्दर में कहीं हलचल नहीं है



बनारस हो, गया, के हर की पौड़ी

कि अब गंगा कहीं निर्मल नहीं है



उसे हालात की भट्ठी ने ढाला

खरा सोना है वो पीतल नहीं है



मरेगा प्यास से फिर कोई… Continue

Added by दिनेश कुमार on July 4, 2016 at 12:55pm — 6 Comments

ग़ज़ल -- पाँव के नीचे से धरती सर से छप्पर ले गया। ( दिनेश कुमार )

2122--2122--2122--212



पाँव के नीचे से धरती सर से छप्पर ले गया

ज़लज़ला कुछ बेबसों के सारे गौहर ले गया



ज़िन्दगी के खुशनुमा लम्हों से वो महरूम है

शाम को जो साथ अपने घर में दफ़्तर ले गया



हौसला, हिम्मत, ज़वानी, ख़्वाहिशें, बे-फिक्र दिल

वक़्त का दरिया मेरा सब कुछ बहा कर ले गया



सारी दुनिया जीत कर भी हाथ खाली ही रहे

वक़्त-ए-रुख़सत इस जहाँ से क्या सिकन्दर ले गया



छु न पाये हाथ उसके जब मेरी दस्तार को

तैश में आकर वो काँधे से…

Continue

Added by दिनेश कुमार on May 18, 2016 at 5:30pm — 29 Comments

ग़ज़ल -- मेरे आँगन का बूढ़ा शजर.... ( दिनेश कुमार )

212--212--212----212--212--212



अब्र का एक टुकड़ा है वो ......और मैं हूँ बशर धूप का

दिल के सहरा में खोजूं उसे, मैं क़फ़न बाँध कर धूप का



ज़िन्दगी की लिए जुस्तजू ..एक मुद्दत से बेघर हूँ मैं,

गाम दर गाम तन्हाइयाँ....हम-सफ़र है शजर धूप का



बर्फ़ बेशक जमी है बहुत, ख़त्म लेकिन मरासिम नहीं

मैं करुँगा जो करना पड़े... इन्तिज़ार उम्र भर धूप का



नाख़ुदा है मिरा हौसला, और पतवार........ बाज़ू मिरे

अपने साहिल पे पहुँचूँगा मैं, पार करके भँवर धूप… Continue

Added by दिनेश कुमार on May 4, 2016 at 7:19pm — 9 Comments

ग़ज़ल -- मैं कमाता हूँ बड़ी मेहनत से। ( दिनेश कुमार )

2122--1122--22



भाई माँ बाप वफ़ा है पैसा

दौरे-हाज़िर का ख़ुदा है पैसा



हाथ का मैल ही मत समझो इसे

जिस्म की एक क़बा है पैसा



जा के बाज़ार में देखो तो सही

हर तरफ जल्वा-नुमा है पैसा



जिसको हासिल है वही इतराए

खूबसूरत सा नशा है पैसा



यूँ दुआ अपनी जगह काम आए

अस्पतालों में दवा है पैसा



वक़्त से पहले या किस्मत से अधिक

आज तक किसको मिला है पैसा



मैं कमाता हूँ बड़ी मेहनत से

मुझको मालूम है क्या है… Continue

Added by दिनेश कुमार on May 4, 2016 at 7:11pm — 7 Comments

ग़ज़ल -- "मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ" बशीर साहब की ज़मीन में एक कोशिश। ( दिनेश कुमार )

11212--11212--11212--11212



लो गुनाह और सवाब की, मैं ये रहगुज़ार बुहार लूँ

या तो खुद को कर लूँ तबाह मैं , या हयात अपनी सँवार लूँ



तू हर एक शै में समाया है...के वो ज़र्रा हो या हो आफ़ताब

मेरी बन्दगी है यही ख़ुदा, के मैं खुद में तुझ को निहार लूँ



मुझे माँगने में हिचक नहीं, न वो नाम का ही रहीम है

जो लिखा न मेरे नसीब में.. उसे मैं ख़ुदा से उधार लूँ



मेरी साँस साँस तड़फ रही, तेरी इक नज़र को मिरे ख़ुदा

मुझे अपने पास बुला या फिर,मैं तुझे… Continue

Added by दिनेश कुमार on April 17, 2016 at 8:52am — 6 Comments

ग़ज़ल -- ख़बर कहाँ थी मुझे पहले इस ख़ज़ाने की ( दिनेश कुमार )

1212--1122--1212--22





ख़बर कहाँ थी मुझे पहले इस ख़ज़ाने की

ग़मों ने राह दिखाई .........शराबख़ाने की



चराग़े--दिल ने की हसरत जो मुस्कुराने की

तो खिलखिला के हँसी आँधियाँ ज़माने की



मैं शायरी का हुनर जानता नहीं ....बेशक

अजीब धुन है मुझे क़ाफ़िया मिलाने की



वजूद अपना मिटाया किसी की चाहत में

बस इतनी राम कहानी है इस दिवाने की



वो घोसला भी बनाएगा बाद में ...अपना

अभी है फिक्र परिन्दे को आबो-दाने की



मैं अश्क बन… Continue

Added by दिनेश कुमार on April 15, 2016 at 6:08pm — 4 Comments

ग़ज़ल -- फ़क़ीर हूँ मैं नवाब जैसा। ( दिनेश कुमार )

121 22 -- 121 22



बहिश्त के इक गुलाब जैसा

बदन वो जामे शराब जैसा



मैं उसको पढ़ता हूँ झूमता हूँ

सुख़न की वो इक किताब जैसा



न पूछो दीवानगी का आलम

सुकूँ का पल इज़्तिराब जैसा



हर एक ख़्वाहिश सराब जैसी

हर एक लम्हा अज़ाब जैसा



वो अपने चेहरे से कब है ज़ाहिर

कि उसका चेहरा नक़ाब जैसा



है इश्क़ करना गुनाह बेशक

गुनाह लेकिन सवाब जैसा



फिसलता मुट्ठी से वक़्त हर पल

ये अपना जीवन हुबाब जैसा



जो… Continue

Added by दिनेश कुमार on April 5, 2016 at 6:59pm — 10 Comments

ग़ज़ल -- दुनिया का ढब दुनिया जैसा होता है। -- दिनेश कुमार

22--22--22--22-22--2





दुनिया का ढब दुनिया जैसा होता है

जो भी होता है वो अच्छा होता है



शाम ढले जब चिड़िया अपने घर लौटे

चोंच में उसके यारों दाना होता है



बाद में तो समझौते होते हैं दिल के

प्यार तो केवल पहला पहला होता है



अपने दम पर अब तक़दीर सँवारो तुम

मेहनतकश हाथों में सोना होता है



सोच रहा है आँगन का बूढ़ा बरगद

घर का आखिर क्यों बँटवारा होता है



चूड़ी कंगन पायल सब बेमानी हैं

लज्जा ही औरत का गहना होता… Continue

Added by दिनेश कुमार on March 9, 2016 at 6:00am — 10 Comments

ग़ज़ल -- ज़िन्दगी मैंने गुज़ारी ख़्वाब में। ( दिनेश कुमार )

2122--2122--212



हौसले जिनके बहे सैलाब में

उम्रभर फिर वे रहे गिर्दाब में



हो मुबारक चापलूसी आपको

अपनी दिलचस्पी नहीं अलक़ाब में



ढो रहें हैं बोझ हम तहज़ीब का

गर्मजोशी अब कहाँ आदाब में



कुछ अधूरे ख़्वाब, आहें और अश्क

बस यही है अब मेरे असबाब में



कौन करता रौशनी की कद्र अब

ढूँढ़ते हैं दाग़ सब महताब में



गीत ग़ज़लें छन्द मुक्तक हम्द नात

क्या नहीं है शायरी के बाब में



इसकी ख़ुशहाली का कारण ये भी… Continue

Added by दिनेश कुमार on January 21, 2016 at 7:27am — 8 Comments

ग़ज़ल -- दोस्तों का दिनेश भाई है

2122--1212--22



पीर आँखों में जो पराई है

हम फकीरो की ये कमाई है



दौरे-हाज़िर में रोज़ सूरज ने

इन अँधेरों से मात खाई है



बाप को फिर से एक बेटे ने

उसकी नज़रों की हद बताई है



जिसने रिश्वत में रोशनाई दी

उस पे किसने क़लम उठाई है



अपनी हद में रहो, सबक देकर

मौज़ साहिल से लौट आई है



क्या ज़मीं आसमान मिल ही गए

कहकशां जो ये मुस्कुराई है



दुश्मनों का अगरचे है दुश्मन

दोस्तों का दिनेश भाई… Continue

Added by दिनेश कुमार on November 1, 2015 at 2:55pm — 4 Comments

ग़ज़ल -- आईना बना ले मुझको .... दिनेश कुमार

2122-1122-1122-22



अहले महफ़िल की निग़ाहों से छुपा ले मुझको

मैं तेरा ख़्वाब हूँ आँखों में बसा ले मुझको



अपनी मंज़िल पे यकीनन मैं पहुंच जाऊँगा

कोई बस राहनुमाओं से बचा ले मुझको



रात कटती है न अब दिन ही मेरा तेरे बग़ैर

मेरी आवारगी नेजे पे उछाले मुझको



सबके दुखदर्द में जब मैंने मसीहाई की

इस ग़मे जाँ में कोई क्यूँ न सँभाले मुझको



शख़्सियत तेरी सँवारूंगा ये वादा है मिरा

अपनी तक़दीर का आईना बना ले मुझको



दिल के दरिया में… Continue

Added by दिनेश कुमार on September 15, 2015 at 4:30pm — 11 Comments

ग़ज़ल -- कोई रास्ता मिले ...( बराए इस्लाह ) .... दिनेश कुमार

221-2121-1221-212



मंज़िल मिले न मुझको कोई रास्ता मिले

सहरा-ए-ज़िन्दगी में फ़क़त नक्शे पा मिले



मरने से भी ग़ुरेज़ न मुझ जैसे रिन्द को

लेकिन ये हो कि मर के मुझे मयकदा मिले



क़ैद-ए-नफ़स से रूह जो आज़ाद हो मिरी

फिर उसको पैरहन न कोई दूसरा मिले



बेचैन हूँ मैं गर्मी-ए-अहसास-ए-हिज्र से

अब तो तुम्हारे प्यार की ताज़ा हवा मिले



पुरपेंच पुरख़तर है ये जीवन की रहगुज़र

अच्छा हो रहनुमा जो अगर आप सा मिले



तूफाँ की ज़द में आ गयी कश्ती… Continue

Added by दिनेश कुमार on September 8, 2015 at 4:38pm — 18 Comments

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