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ग़ज़ल -- "मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ" बशीर साहब की ज़मीन में एक कोशिश। ( दिनेश कुमार )

11212--11212--11212--11212

लो गुनाह और सवाब की, मैं ये रहगुज़ार बुहार लूँ
या तो खुद को कर लूँ तबाह मैं , या हयात अपनी सँवार लूँ

तू हर एक शै में समाया है...के वो ज़र्रा हो या हो आफ़ताब
मेरी बन्दगी है यही ख़ुदा, के मैं खुद में तुझ को निहार लूँ

मुझे माँगने में हिचक नहीं, न वो नाम का ही रहीम है
जो लिखा न मेरे नसीब में.. उसे मैं ख़ुदा से उधार लूँ

मेरी साँस साँस तड़फ रही, तेरी इक नज़र को मिरे ख़ुदा
मुझे अपने पास बुला या फिर,मैं तुझे फ़लक़ से उतार लूँ

मैं वो रहमतों का फरिश्ता हूँ...जो ख़ुदा के फ़ज़्ल से है यहाँ
मेरा काम बिगड़ी सँवारना ...मैं गुलों के बदले में ख़ार लूँ

मैं ग़ज़ल में दर्द पिरोऊं जब... तू खुशी के गीत सुना मुझे
यूँ ही महफ़िलों का ये दौर हो.. यूँ ही ज़िन्दगी मैं गुज़ार लूँ

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 7, 2016 at 2:04pm

भाई दिनेश जी ..आनंद आ गया गुनगुनाने में ..कमाल की इस रचना पर ह्रदय से बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Rahila on May 16, 2016 at 9:50am
खूब ग़ज़ल हुई आदरणीय दिनेश सर जी! हर शेर बहुत शानदार लगा । बहुत बधाई ।सादर नमन
Comment by दिनेश कुमार on May 5, 2016 at 1:28pm
हार्दिक आभार आप सभी का।
Comment by vijay nikore on April 26, 2016 at 1:44pm

बहुत ही खूबसूरत खयाल हैं इस गज़ल में । बधाई।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 24, 2016 at 4:53pm

बहुत ही शानदार....ढेर सारी बधाइयाँ 

 

Comment by Sushil Sarna on April 20, 2016 at 1:51pm


लो गुनाह और सवाब की, मैं ये रहगुज़ार बुहार लूँ

या तो खुद को कर लूँ तबाह मैं , या हयात अपनी सँवार लूँ

तू हर एक शै में समाया है...के वो ज़र्रा हो या हो आफ़ताब

मेरी बन्दगी है यही ख़ुदा, के मैं खुद में तुझ को निहार लूँ

वाह आदरणीय बहुत ही नायाब अहसासों को आपने अपनी ग़ज़ल में पिरोया है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

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