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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (503)

सात फेरों की रस्में निभाओ मगर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122    1221    2212

**********************

रूह  प्यासी  बहुत  घट ये  आधा न दो

आज ला के निकट कल का वादा न दो



रूख  से  जुल्फें  हटा  चाँदनी  रात में

चाँद को  आह  भरने  का मौका न दो



फिर  दिखा  टूटता नभ  में तारा कोई

भोर  तक  ही  चले  ऐसी आशा न दो



प्यार  के  नाम  पर  खेल कर देह से

रोज  मासूम  सपनों  को धोखा न दो



सात फेरों  की  रस्में  निभाओ  मगर

देह  तक ही  टिके  ऐसा  रिश्ता न दो



चाहिए  अब …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:00am — 10 Comments

प्यार माथे का पसीना पोछ दे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२   २१२२२ २१२

*********************

हो गया  है  सत्य  भी मुँहचौर  क्या

या  दिया हमने ही उसको कौर क्या

****

कालिखें  पगपग  बिछी  हैं निर्धनी

तब  बताओ  भाग्य होगा गौर क्या

****

मार  डालेगा  मनुजता  को  अभी

जाति धर्मो का उठा यह झौर क्या

****

हैं  परेशाँ   आप   भी   मेरी   तरह

धूल पग की हो गयी सिरमौर क्या

****

फूँक  दे  यूँ  शूल  जिनके घाव को

मायने  रखता है  उनको धौर क्या

****

प्यार  माथे  का …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2015 at 11:46am — 20 Comments

एक बूढ़ी माँ अकेली रह गई - लक्ष्मण धामी ' मुसाफिर '

2122    2122    212

*********************

बस गया है लाल बाहर क्या करे

हो  गया है  खेत  बंजर क्या करे

***

एक बूढ़ी माँ  अकेली  रह  गई

काटने को  दौड़ता घर क्या करे

***

चाँद  लौटेगा  नहीं   अब,  है  पता

रात भर रोकर भी अम्बर क्या करे

***

ठोकरें  खाना  खिलाना भाग्य में

राह  का  टूटा वो पत्थर क्या करे

***

रीत  तो थी, जिंदगी भर साथ की

दे गया धोखा जो सहचर क्या करे

***

हाथ   आयी   करवटों  की  बेबसी

मखमली…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 14, 2015 at 11:26am — 14 Comments

इस नगर में तो मुश्किल हैं तनहाइयाँ - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122    1221     2212

************************

चाँद  आशिक  तो  सूरज दीवाना हुआ

कम मगर क्यों खुशी का खजाना हुआ

****

बोलने   जब   लगी   रात  खामोशियाँ

अश्क अम्बर को मुश्किल बहाना हुआ

****

मिल  भॅवर से स्वयं किश्तियाँ तोड़ दी

बीच  मझधार  में   यूँ   नहाना  हुआ

****

जब  पिघलने  लगे  ठूँठ  बरसात में

घाव  अपना  भी  ताजा  पुराना हुआ

****

देख  खुशियाँ  किसी की न आँसू बहे

दर्द  अपना  भी  शायद  सयाना…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 12, 2015 at 12:30pm — 23 Comments

आज नायक भी यहाँ पर - ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ' मुसाफिर' )

2122 2122 2122 212

************************

अजनवी  सी  सभ्यता के बीज बोकर रह गए

सोचकर अपना, किसी का बोझ ढोकर रह गए

***

वक्त  सोने  के  जगा करते हैं देखो यार हम

जागने  के  वक्त लेकिन रोज सोकर रह गए

***

लोरियाँ माँ की, कहानी  नानियों की, साथ ही

चाँद तारे , फूल, तितली लफ़्ज होकर रह गए

***

कसमसाकर  दिल जो खोले है पुरानी पोटली

याद कर बचपन  को यारो नैन रोकर रह गए

***

मानता हूँ , है  हसोड़ों  की जरूरत, दुख मगर

आज नायक भी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2015 at 11:11am — 18 Comments

आँख का आँसू हॅसेगा - (ग़ज़ल ) -लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    212

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चाँद  देता  है  दिलासा  कह  पुरानी  उक्तियाँ

पतझड़ों  में  गीत  उम्मीदों के गाती पत्तियाँ /1/



कह रही हैं एक दिन जब गुल खिलेंगे बाग में

फिर उदासी से  निकल बाहर हॅसेंगी बस्तियाँ /2/



स्वप्न बैठेंगे यहीं फिर गुनगुनी सी धूप में

बीच रिश्तों  के  रहेंगी  तब न ऐसी सर्दियाँ /3/



सिर  रखेगा  फिर  से  यारो सूने दामन में कोई  

आँख का आँसू हॅसेगा छोड़ कर फिर सिसकियाँ /4/



डस  रहा  है …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 24, 2014 at 11:05am — 18 Comments

है भुजंगो से भरा जग मानता हूँ - (गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122

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जिंदगी  का  नाम चलना, चल मुसाफिर

जैसे नदिया चल रही अविरल मुसाफिर /1

***

दे  न  पायें  शूल  पथ  के  अश्रु  तुझको

जब है चलना, मुस्कुराकर चल मुसाफिर /2

**

फिक्र मत कर खोज लेंगे पाँव खुद ही

हर कठिन होते सफर का हल मुसाफिर /3

**

मानता  हूँ  आचरण  हो  यूँ  सरल पर

राह में मुश्किल खड़ी तो, छल मुसाफिर /4

**

रात  का  आँचल  जो फैला है गगन तक

इस तमस में दीप बनकर जल मुसाफिर /5

**

है …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 26, 2014 at 12:30pm — 12 Comments

प्यार के दो बोल कह दे शायरी हो जाएगी - गजल (लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’)

2122    2122    2122    212

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प्यार को साधो अगर तो जिंदगी हो जाएगी

गर  रखो  बैशाखियों सा बेबसी हो जाएगी /1

***

बात कड़वी प्यार से कह दोस्ती हो जाएगी

तल्ख  लहजे से कहेगा दुश्मनी हो जाएगी /2

***

फिर घटा छाने लगी है दूर नभ में इसलिए

सूखती हर डाल यारो फिर हरी हो जाएगी /3

***

मौत तय है तो न डर, लड़, हर मुसीबत से मनुज

भागना  तो  इक  तरह  से  खुदकुशी हो जाएगी /4

***

मन  मिले  तो पास  में सब, हैं दरारें  कुछ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 11:05am — 17 Comments

जब बहाने थे नये तो दिल को भी उम्मीद थी - गजल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

2122    2122    2122    212

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दिल  हमारा  तो  नहीं था आशियाने के लिए

फिर कहाँ से आ गये दुख घर बसाने के लिए

***

हम ने सोचा  था कि होंगी महफिलों में रंगतें

पर  मिली  वो  ही  उदासी जी दुखाने के लिए

***

था सुना हमने बुजुर्गो से  कि कातिल नफरतें

प्यार  भी  जरिया  बना पर खूँ बहाने के लिए

***

जब सभल जाएगा तुझको पीर देगा अनगिनत

हो  रहा   बेचैन  तू  भी   किस  जमाने के लिए

***

जब बहाने थे नये तो दिल…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 17, 2014 at 10:48am — 14 Comments

मसखरा उस को न कहना - (गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    2122

****

हौसला  देते  न  जो  ये  पाँव  के  छाले  सफर में

हर सफर घबरा के यारो,  छोड़ आते हम अधर में

****

एक भटकन है जो सबको, न्योत लाती है यहाँ तक

कौन  आता  है स्वयं ही, यार दुख के इस नगर में

****

एक  वो  है पालती  जो,  काजलों के साथ आँसू

कौन रख पाता भला अब, सौतने  दो  एक घर में

****

आशिकी की इंतहाँ ये, खुदकुशी का शौक मत कह

हॅसते-हॅसते डाल दी जो किश्तियाँ उसने भवर में

****

खो गया चंचलपना सब,…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 8, 2014 at 12:00pm — 8 Comments

उन्हें मौका मिला है तो, करेंगे हसरतें पूरी - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222   1222   1222   1222

******************************

रहे अरमाँ अधूरे जो, लगे मन को सताने फिर

चला  है  चाँद दरिया में हटा घूँघट नहाने फिर   /1/

***

नसीहत सब को दें चाहे बताकर दिन पुराने फिर

नजारा  छुप  के  पर्दे  में  मगर लेंगे सयाने फिर  /2/

***

उन्हें  मौका  मिला है तो, करेंगे हसरतें पूरी

सितारे नीर भरने के गढे़ंगे कुछ बहाने फिर  /3/

***

छुपा सकता नहीं कुछ भी खुदा से जब करम अपने

रखूँ  मैं  किस  से  पर्दा  तब बता तू ही…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 7, 2014 at 10:30am — 8 Comments

सच कहता हूँ यारो मै - ( गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2222    2222    2222    222

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रिश्ते उधड़े खुद ही सिलना सच कहता हूँ यारो मैं

औरों  को  मत रोते दिखना सच कहता हूँ यारो मैं

***

अपना  हो  या  बेगाना  हो  सुख  में  ही अपना होता

जब भी मिलना हॅसके मिलना सच कहता हूँ यारो मैं

***

चाहे भाये कुछ पल लेकिन आगे चलकर दुख देगा

उम्मीदों  से  जादा  मिलना सच कहता हूँ यारो मैं

***

दुख से सुख का सुख से दुख का मौसम जैसा नाता है

हर  मौसम  को  अपना  कहना सच कहता हूँ यारो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 3, 2014 at 12:00pm — 13 Comments

राह देखी सूर्य की भर रात हमने - ( गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122     2122     2122

*************************

सिंधु  मथते  कर पड़ा  छाला हमारे

हाथ  आया  विष  भरा प्याला हमारे

***

धूर्तता  अपनी  छिपाने  के लिए क्यों

देवताओं    दोष    मढ़   डाला  हमारे

***

भाग्य सुख को ले चला जाने कहाँ फिर

डाल  कर  यूँ  द्वार  पर  ताला  हमारे

***

हर  तरफ  फैले हुए हैं दुख के बंजर

खेत  सुख  के  पड़ गया पाला हमारे

***

राह  देखी  सूर्य  की  भर   रात हमने

इसलिए  तन  पर  लगा काला…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 27, 2014 at 11:14am — 10 Comments

अदाओं से उसका लुभाना गया - ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

2122    1221     2212

************************

नीर पनघट  से  भरना, बहाना गया

चाहतों का वो दिलकश जमाना गया

***

दूरियाँ  तो  पटी  यार  तकनीक  से

पर अदाओं से उसका लुभाना गया

***

पेड़  आँगन  से  जब  दूर  होते गये

सावनों  का  वो मौसम सुहाना गया

***

आ  गये  क्यों  लटों  को बिखेरे हुए

आँसुओं  का  हमारे  ठिकाना  गया

***

नाम  उससे  हमारा  गली  गाँव  में

साथ  जिसके हमारा  जमाना  गया

***

गंद शहरी जो गिरने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2014 at 10:00am — 25 Comments

बेगानों की महफिल में तो - ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

2222    2222    2222    222

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देता  है  आवाजें  रूक-रूक  क्यों मेरी खामोशी को

थोड़ा तो मौका दे मुझको गम से हम आगोशी को

***

कब  मागे  मयखाने  साकी  अधरों ने उपहारों में

नयनों के दो प्याले काफी जीवन भर मदहोशी को

***

देखेगी  तो  कर  देगी  फिर  बदनामी  वो तारों तक

अपना आँचल रख दे मुख पर दुनियाँ से रूपोशी को

***

बेगानों  की  महफिल  में  तो चुप रहना मजबूरी थी

अपनों  की  महफिल  में  कैसे अपना लूँ बेहोशी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 20, 2014 at 11:21am — 24 Comments

ये मिट्टी भी हमारी ही महक देती खलाओं तक - ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

1222    1222    1222     1222

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जहन  की  हर  उदासी  से  उबरते तो सही पहले

जरा तुम नेह के पथ से गुजरते  तो सहीे पहले

**

हमारी  चाहतों  की  माप  लेते  खुद ही गहराई

जिगर  की  खोह में थोड़ा उतरते तो सही पहले

**

ये मिट्टी भी हमारी ही महक देती खलाओं तक

हमारे  नाम  पर  थोड़ा  सॅवरते तो सही पहले

**

तुम्हें भी धूप सूरज की बहुत मिलती दुआओं सी

घरों  से  आँगनों  में  तुम  उतरते तो सही पहले

**

गलत फहमी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2014 at 9:30am — 18 Comments

बोलने से कौन करता है मना - (ग़ज़ल) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    212

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जन्म  से  ही   यार  जो  बेशर्म  है

पाप क्या उसके लिए, क्या धर्म है

**

छेड़ मत तू बात किस्मत की यहाँ

साथ  मेरे  शेष  अब  तो  कर्म  है

**

बोलने  से  कौन  करता है मना

सोच पर ये शब्द का क्या मर्म है

**

चाँद  आये  तो  बिछाऊँ  मैं उसे

 एक  चादर  आँसुओं  की नर्म है

**

शीत का मौसम सुना है आ गया

पर चमन की  ये हवा क्यों गर्म है

**

( रचना - 30 जुलाई 2014 )



मौलिक…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 11, 2014 at 11:00am — 15 Comments

घर जलाना भी हमारा व्यर्थ अब - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    212

**

मयकदे को अब शिवाले बिक गये

रहजनों  के  हाथ  ताले बिक गये

**

घर  जलाना भी  हमारा व्यर्थ अब

रात  के  हाथों  उजाले  बिक  गये

**

जो खबर थी अनछपी ही रह गयी

चुटकले  बनकर मशाले बिक गये

**

न्याय फिर बैसाखियों पर आ गया

जांच  के  जब  यार आले बिक गये

**

दुश्मनों की अब जरूरत क्या रही

दोस्ती के फिर से पाले बिक गये

**

सोचते  थे नींव जिनको गाँव की

वो शहर में बनके माले बिक गये

**



मौलिक और…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 8, 2014 at 10:39am — 15 Comments

‘रेप’ को जोकर सरीखों ने कहा जब बचपना - ग़ज़ल

2122    2122    2122    212

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एक   सरकस   सी   हमारी   आज  संसद  हो गयी

लोक हित की इक नदी जम आज हिमनद हो गयी

**

जुगनुओं से  खो  गये  लीडर  न  जाने फिर कहाँ

मसखरों  की आज  इसमें  खूब  आमद  हो गयी

**

‘रेप’ को  जोकर  सरीखों ने  कहा  जब  बचपना

जुल्म  की  जननी खुशी से  और गदगद हो गयी

**

दे  रहे  ऐसे  बयाँ,  जो   जुल्म   की   तारीफ  है

क्योंकि  सुर्खी  लीडरों का आज मकसद हो गयी

**

जुल्म  की  सरहद…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 3, 2014 at 9:00am — 26 Comments

न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे -ग़ज़ल

1222    1222    1222    1222

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दुखों से दोस्ती रख कर सुखों के घर बचाने हैं

मुझे  अपनी  खुशी  के रास्ते खुद ही बनाने हैं

**

परिंदों  को पता  तो है  मगर मजबूर हैं वो भी

नजर तूफान की कातिल  नजर में आशियाने हैं

**

पलों की कर खताएँ कुछ मिटाना मत जमाने तू

किसी का  प्यार पाने  में  यहाँ लगते जमाने हैं

**

न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे

गलत मन के इरादे हैं  गलत तन के निशाने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2014 at 9:43am — 10 Comments

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