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सात फेरों की रस्में निभाओ मगर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122    1221    2212

**********************
रूह  प्यासी  बहुत  घट ये  आधा न दो
आज ला के निकट कल का वादा न दो


रूख  से  जुल्फें  हटा  चाँदनी  रात में
चाँद को  आह  भरने  का मौका न दो


फिर  दिखा  टूटता नभ  में तारा कोई
भोर  तक  ही  चले  ऐसी आशा न दो


प्यार  के  नाम  पर  खेल कर देह से
रोज  मासूम  सपनों  को धोखा न दो


सात फेरों  की  रस्में  निभाओ  मगर
देह  तक ही  टिके  ऐसा  रिश्ता न दो


चाहिए  अब  समाजों  को  ताजी हवा
तंग नजरों का खिड़की पे ताला न दो


है शिकारी  सी  फितरत  पता है हमें
जाल  फैला  के  थोड़ा सा दाना न दो


याद घर की मुसाफिर को आ जाएगी
वक्त  गौधूलि  के  आज  दीवा न दो


रचना - 10 जनवरी 15
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 5, 2015 at 1:07pm

ग़ज़ल पर उपस्थिति दर्ज कर उत्साहवर्धन और स्नेह के लिए सभी आ० प्रभुद्ध जानो का हार्दिक आभार   आशा है सहयोग बनाये रखेंगे l


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 25, 2015 at 2:57pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, बधाई.

Comment by Hari Prakash Dubey on January 24, 2015 at 7:49pm

आदरणीय लक्षमण धामी जी,

फिर  दिखा  टूटता नभ  में तारा कोई

भोर  तक  ही  चले  ऐसी आशा न दो......... सुन्दर रचना हार्दिक बधाई आपको  !

 

Comment by Rahul Dangi Panchal on January 24, 2015 at 7:06pm
आदरणीय एक एक शे'र लाजवाब वाह वाह वाह !
पर आदरणीय आप से व अन्य गुनीजनो से अनुरोध है मेरी ये छोटी सी उलझन दूर करने का कष्ट करें!

2122 1221 2212 आपकी इस बहर का क्या नाम है व इस बहर और
212 212 212 212 इस बहर मे क्या अन्तर है? सादर विनती!
Comment by somesh kumar on January 23, 2015 at 11:12pm

सुंदर ,दिलकश गज़ल 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 23, 2015 at 9:38pm

आदरणीय लक्ष्मण जी कमाल की ग़ज़ल हुई है बहुत बहुत बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 23, 2015 at 8:17pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत बहुत बहुत बेहद उम्दा ग़ज़ल .... एक एक अशआर कमाल .... 

रूह  प्यासी  बहुत  घट ये  आधा न दो
आज ला के निकट कल का वादा न दो............ कमाल का मतला 


रूख  से  जुल्फें  हटा  चाँदनी  रात में
चाँद को  आह  भरने  का मौका न दो.........वाह वाह 


फिर  दिखा  टूटता नभ  में तारा कोई
भोर  तक  ही  चले  ऐसी आशा न दो..... दिल से दाद कुबूल करे 


प्यार  के  नाम  पर  खेल कर देह से
रोज  मासूम  सपनों  को धोखा न दो........ क्या कटाक्ष है सीधा वार करने वाला 


सात फेरों  की  रस्में  निभाओ  मगर
देह  तक ही  टिके  ऐसा  रिश्ता न दो....... ग़ज़ल का सुन्दर मोती


चाहिए  अब  समाजों  को  ताजी हवा
तंग नजरों का खिड़की पे ताला न दो..... आह दिल निकाल लिया इस शेर ने 


है शिकारी  सी  फितरत  पता है हमें
जाल  फैला  के  थोड़ा सा दाना न दो..... वाह वाह वाह 


याद घर की मुसाफिर को आ जाएगी
वक्त  गौधूलि  के  आज  दीवा न दो ... क्या खूब कहा ! आनंद आ गया 

दिल से लाखों बधाइयाँ .... बस कमाल ही कमाल .... दिल में उतर गया एक एक अशआर 

Comment by gumnaam pithoragarhi on January 23, 2015 at 7:09pm

प्यार के नाम पर खेल कर देह से
रोज मासूम सपनों को धोखा न दो

वाह क्या खूब ग़ज़ल हुई है वाह क्या बात है

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 23, 2015 at 6:56pm
बहुत सुन्दर ग़ज़ल……और ये पक्तियां लजवाब.

चाँद को आह भरने का मौका न दो
भोर तक ही चले ऐसी आशा न दो
रोज मासूम सपनों को धोखा न दो
देह तक ही टिके ऐसा रिश्ता न दो
बहुत बहुत बधाइयां , आदरणीय लक्षमण धामी जी, सादर।
Comment by kanta roy on January 23, 2015 at 12:46pm
"देह तक टिके ऐसा रिश्ता ना दो "...चंद पंक्तियों में सम्पूर्ण प्रेम की चाहत को बेहद खूबसूरती से आकार दिया आपने आ. लक्ष्मण धामी जी आपने । बधाई आपको इस बेहतरीन रचना के लिए ।

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