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KALPANA BHATT ('रौनक़')'s Blog (122)

शर्तों की शतरंज (लघुकथा)

"पापा! मुझे मोबाइल चाहिए, और अभी की अभी चाहिए|" सोनू ने जिद्द पकड़ ली थी।



"पागल हो गए हो क्या सोनू? यह क्या मोबाइल की जिद्द लिए बैठे हो, कोई मोबाइल-शोबईल नहीं मिलेगा,चुप-चाप खाना खाओ|" डाँटते हुए सोनू के पापा ने कहा|



लेकिन सोनू नहीं माना और हाथ-पैर पटकते हुए रोने लगा|



"रोता रह! पर तुम्हारी हर जिद्द नहीं मानूंगा | अभी पिछले महीने ही तुम्हें साइकिल दिलवाई है।" पापा का भी पारा चढ़ गया।



सोनू के दादा जी जो अब तक चुप थे,मुस्कुराकर बोले," आखिर बेटा तुम्हारा ही… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on March 27, 2018 at 3:00pm — 4 Comments

ख़ामोशी की ज़ुबान (लघुकथा)

कभी देखा है खुद को आईने में? तुम्हारी सहेली शीला को देखो,खुद को कितना मेन्टेन किया हुआ है उसने| और तुम! तुम्हारी शकल पर हमेंशा  बारह बजते है| तंग आ गया हूँ तुम्हारी मनहूस शकल देखते देखते|" ऑफिस से घर आये शेखर के ऐसे विचार जानकार शीला खुद को न रोक पायी, उसने कुछ कहने को मुँह खोला ही था कि उसकी जेठानी ने कहा," अरे देवर जी! गर यह ऐसा न करेगी तो लोगों को पता कैसे चलेगा कि हमलोग इसको परेशान करते हैं| यह सब इसकी नौटंकी है, मुझे देखो दिन भर काम करती हूँ पर आपके भैया! मजाल है अब तक उन्होंने कुछ कहा…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on March 25, 2018 at 8:30am — 6 Comments

अंगुलिमाल(लघुकथा)

शिकार की तलाश में घूमते-घूमते अंगुलिमाल को एक साधु दिखा| उनको देखकर उसने कहा," तैयार हो जाओ तुम्हारी मृत्यु आयी है|"

साधु ने निडर होकर कहा," मेरी मौत! या तुम्हारी...?"

साधु का ऐसा उत्तर सुन कर अंगुलिमाल थोड़ा विचलित हुआ,उसने साधु से पूछा," तुमको मुझसे डर नहीं लगता? मेरे हाथ में हथ्यार देखकर भी नहीं?"

"न .... मैं क्यों डरूँ तुमसे, पर तुम हो कौन और यह माला कैसे पहनी है, इतनी सारी उँगलियाँ .......?"

"हाहाहाहाहा! हाँ यह उँगलियाँ ही हैं और मैं अंगुलिमाल…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 21, 2018 at 5:30pm — 5 Comments

एक और रत्नाकर(लघुकथा)

रत्नाकर जंगलों में भटकता, और आने-जाने वालों को लूटता | यही तो उसका पेशा था| नारद-मुनी भेस बदलकर उसके सामने खड़े थे, बहुत दिनों बाद एक बड़ा आसामी हाथ लगा है: सोचकर रत्नाकर ने धमकाया ,"तुम्हारे पास जो कुछ भी हो ,सब मेरे हवाले कर दो वरना जान से हाथ धोना पड़ेगा|"

"ठीक है, सब तुमको दे दूंगा,पर यह पाप है,तुम जो भी कुछ कर रहे हो पाप है|"

"यह मेरा पेशा है,पाप और पुण्य को मैं नहीं जानता! तुम मुझे अपना सब कुछ देते हो कि नहीं? वरना यह लो....|"

नारद जी ने निडर होकर कहा," मुझे मारने के…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 19, 2018 at 10:43pm — 17 Comments

धरती पुत्र (लघुकथा)



सुखविंदर जी को सोचमग्न अवस्था में देख उनकी पत्नी ने उनसे पूछा," क्या सोच रहे हो जी?"

"ख़ास कुछ नही...... बस कल अपने खेत पर जो सिपाही आया था उसी के बारे में सोच रहा हूँ.......।"

"सिपाही..... और अपने खेत में.........! कब और क्यों....?"

"कह रहा था कि अपना खेत उसको बेच दूँ.... ।"

"हैं.........! ये क्यों भला......?"

"वह सिपाही न था पर ......सिपाही के खाल में भेड़िया था........ उसका चेहरा ढका हुआ था... पर उसकी आवाज़ कुछ जानी... इतना ही कह पाये कि बाहर से चिल्लाने की आवाज़ आयी।…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 16, 2018 at 5:52pm — 3 Comments

परिवर्तित चलन( लघुकथा)

वैलेंटाइन बाबा ने अपने शागिर्द से कहा," मेरा मन कर रहा है भारत भूमि का भ्रमण करूँ, सुना है वहां वैलेंटाइन डे बहुत लोग मनाते हैं|"

" सर! यह विचार आपके मन में कैसे आया? वैलेंटाइन डे तो पश्चिमी देशों का त्यौहार है और आप  तो पूरब में जाने का कह रहे हो!"

"हाँ! सुना है वहाँ  बच्चे एक दूसरे को लाल गुलाब देते है और अब तो वहाँ  भी लिविंग -रिलेशनशिप को मान्यता मिल गयी है तो लोग इसीको प्यार का नाम.....  यह कहते हुए वे चुप हो गए है|

"क्या हुआ सर? आप चुप क्यों हो गये? आपकी इच्छा है तो…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 13, 2018 at 9:00pm — 10 Comments

आम की गुठली (लघुकथा)

"चलो चलो!जल्दी तैयार हो जाओ सब लोग यहाँ पंक्ति में खड़े हो जाओ।" सफ़ेद कुर्ते वाला चिल्ला रहा था। गाँव के चौपाल पर महिलाओं को इक्कठा किया जा रहा था। महिलाएं सजी -धजी पंक्ति में खड़ी होती जा रही थी। चौपाल पर कुछ नव-युवक और कुछ बुज़ुर्ग वर्ग बैठे हुए थे। बुज़ुर्गों के लिए तो जैसे यह आम बात थी। चौपाल पर भारतीय प्रजातंत्र की बातें हो रही थी। नव-युवक बुज़ुर्गों की बातें ध्यान से सुन रहे थे। किसी ने पूछा,"ये महिलाएं कहाँ जा रही हैं? इनको यह कुर्ते वाला क्यों लेने आया है? यह कौन है?" तरह- तरह की बातें हो…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 24, 2018 at 8:12am — 8 Comments

मकड़जाल (लघुकथा)

प्रिय शेखर,

दोस्त! तुम मेरे सब से अच्छे दोस्त रहे हो, अब तुमसे क्या छुपाऊं? मैं इन दिनों बहुत परेशान हूँ, तुम्हें तो पता है मैं क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल करता आया हूँ| मेरी और तुम्हारी जॉब एक साथ ही लगी थी, कितने खुश थे न हम दोनों! अच्छा पैकेज पाकर ,मैं हवा में उड़ने लगा,तुमने कई बार मुझे टोका भी; पर मैं अपनी ही उड़ान भरता रहा, मैं यह भूल गया था कि प्राइवेट सेक्टर में जॉब; बरक़रार रहे जरुरी नहीं ,और ऐसा ही हुआ।सात महीनों से जॉब के लिए दर-दर भटक रहा हूँ, और दूसरी तरफ़ बैंक के क़र्ज़ तले दबता जा…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 18, 2018 at 9:58pm — 8 Comments

दूर कहीं सुख है मेरा (कविता)

दूर कहीं सुख है मेरा 

हैं यहाँ दुखो का डेरा 

करता हूँ जिससे शिकायत

बस उसने तुरंत मुँह फेरा 

हर तरफ़ है तू-तू, मैं-मैं 

हर जगह बस मेरा-तेरा 

हम एक हैं ,ख्वाब बन गया 

समय ने ही है यह खेल खेला 

कंक्रीट  के मकान बन रहे 

भीड़ का है बस रेला-पेला |

देखकर,सब को मैंने सोचा

चला लिया खूब दुखों का ठेला 

स्वच्छ मन से हँसने लगा मैं 

खिल उठा अंतर-मन…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 13, 2018 at 9:00pm — 5 Comments

बदल रहा है बचपन(लघुकथा)

सड़क पर एक बच्चा हाथों में पत्थर लिए चल रहा था| मासूम हाथों में पत्थर देख एक राहगीर ने पूछा,' कहाँ जा रहे हो बेटा?" 
उस मासूम ने जवाब दिया,' उनको मारने?'
" किसको!" उस राहगीर ने आश्चर्यचकित हो पूछा|
' जिन्होंने हम पर हमला किया है|'
'किसने हमला किया है बच्चे?'
'उन लोगों ने|' 
'तुम आखिर क्या करोगे उनका?'
'मार दूंगा|'
'पर क्यों?'
'क्योंकि वे हमें मार रहे हैं|"
'तुम यहाँ क्यों आये…
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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 3, 2018 at 10:31pm — 3 Comments

नदी के ऊपर का पुल (लघुकथा)

नदी के ऊपर का पुल पुल पर से रात और दिन गाड़ियों की आवाजाही को देख उसके नीचे बहती हुई नदी ने पूछा ," तुमको परेशानी नहीं होती ! दिन भर बजन लदा रहता है तुमपर । " " अरी पागल ! ये भी कोई बात है भला , अब लोग मुझपर से गाडी नहीं ले जायेंगे तो तुझे पार कैसे करेंगे।" पुल की इस बात पर नदी हँस पड़ी। पुल ने पूछा ," इसमें हँसने की क्या बात है। तुम वर्षों से यहाँ से बहती आई हो, तुम्हारा पाट भी विशाल है और प्रवाह भी। पर सच कहूँ तो कभी कभी मुझे डर लगता है तुमसे।" " डर और मुझसे!वो क्यों भला?" " जब बाढ़ की स्थिति…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 26, 2017 at 8:23pm — 3 Comments

तलाक की मोहर (लघुकथा)

अपने रिश्ते पर तलाक की मोहर लगवा कर कोर्ट से बाहर आये अभिषेक एवं शिखा और अलग-अलग रास्ते पर चल दिये।

ऑटो रिक्शा में बैठी शिखा के दिल-दिमाग में अभिषेक से प्रथम परिचय से ले कर शादी तक के तमाम दिन जैसे जीवंत हो उठै थे ।दोनों का एक-एक पल शिद्दत से सिर्फ और सिर्फ एक-दूजे के लिए ही था।और यह प्यार चौगुना हो उठा जब दो बरस बाद उनके घर एक नन्हे-मुन्ने की किलकारी गूँजी।अभिषेक ने अपने प्यार के उस फूल का नाम अनुराग रखा।खुशियों से खिलखिलाते-गुनगुनाते दिन गुजर रहे थे कि...

एक रविवारीय दोपहरी को…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 15, 2017 at 5:20pm — 4 Comments

फूलों की लड़ाई ( कविता)

देखी एक दिन फूलों की लडाई 

रहते थे अब तक जो बन भाई - भाई |

काँटों से निकल कर गुलाब बोला 

सूरज ने जब रात का पट खोला 

मेरी खुशबू से खिलता है बाग़

समाज जाते हैं लोग खिल गया गुलाब

सुन रहे थे यह और भी फूल कई 

नहीं हैं हम भी मिटटी या धूल कोई 

बाग में हो रही थी सबकी बहस 

हो रहा था बाग तहस नहस 

कीचड़ से कमल खिल उठा 

देख सबको वह बोल उठा 

देखो खुद को , सोचो तो…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 30, 2017 at 10:18pm — 7 Comments

असली छलांग (लघुकथा)

काम करते करते अनायास ही सुनील का ध्यान दिवार पर टँगी हुई एक तस्वीर पर पड़ी : दो पहाड़ ,उसके बीच एक बड़ा सा फासला , उस पार जाने के लिए एक व्यक्ति की छलांग ! दूसरी ओर उसने अपनी नज़र अपने ऑफ़िस की टेबल पर डाली ,पैतीस साल पुरानी इस ऑफिस में जाने कितने उतार चढ़ाव के बीच उतने ही संख्या में सावन देख चूका था सुनील ।

आज वह एक बंगले का मालिक था , नौकर चाकर थे , पर यहाँ तक पहुँचने में उसको कभी याद नहीं आता कि उसने कभी छलांग लगायी हो , उसके इर्द गिर्द जो भी उसने बसाया था उसमें उसके पसीने की महक थी । अपने… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 22, 2017 at 6:43pm — 9 Comments

ग़ज़ल (३)

२२ २२ २२ २२ २२ २२  

दिल की बातें वो भी समझें ये  सोचा था 

होंगी मिलकर सारी बातें ये  सोचा था ?

चले जायेंगे अपने रस्ते वो भी इक दिन 

रह जाएंगी तन्हा रातें ये   सोचा था ?

जीवन जैसा होगा उसको जी लेना है 

दर्दो अलम की ले सौगातें ये सोचा था ?

एक बहाना मुझको जीने का मिल जाता 

रह जातीं बस उनकी यादें ये सोचा था ?

डूब गयीं हूँ प्यार में जिनके मैं " रौनक"…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 25, 2017 at 9:30pm — 18 Comments

ग़ज़ल (2)

२२ २२ २२ २२ २२ २



आओगे जब भी तुम मेरे ख्वाबों में

उन लम्हो को रख लूँगी मैं यादों में



और नही कुछ चाहूँ तुमसे मेरी जां

दम टूटे मेरा बस तेरी बाहों में

मेरा जीवन इस गुलशन के फूलों जैसा

घिरा हुआ है मगर बहुत से काँटों में



तुमको में रूदाद सुनाऊं क्या अपनी

मेरा हर लम्हा बीता है आहों में



देख रही हो मुझको तुम जैसे "रौनक"

जी चाहे मैं डूब मरूँ इन आँखों में







मौलिक एवं…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 23, 2017 at 9:30am — 24 Comments

अधकटा पेड़(लघुकथा)

सुंदर से बाग़ के एक कोने में एक अधकटा पेड़ लोगों को आकर्षित तो कर रहा था पर उसकी बदसूरती पर लोग तरह तरह की बातें कर रहे थे |

और क्यों न हो चर्चा उसकी , एक बड़ा सा पेड़ जिसकी छाँव में कभी लोग बैठा करते थे आज उसकी ऐसी हालत ! एक तरफ से लग रहा थे मानो किसीने उसकी टहनियों को तोड़ कर उसकी खूबसूरती को उससे छीन लिया था |" पर ऐसा कोई क्यों करेगा ?" एक राहगीर ने दूसरे से पूछा |

" मुझे लगता है यह काम माली का ही होगा | बड़ा पागल होगा यह माली , पेड़ की कटाई करनी हो तो ढंग से तो करता |" मुँह बिचकाते…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 14, 2017 at 4:30pm — 10 Comments

बदल रहा है इतिहास (लघुकथा)

" यार ,वहां जो चर्चा चल रही है , उसके बारे में कोई जानता है क्या ?" कैंटीन में बैठे हुए करण ने अपने साथियों से पूछा |"

" , क्या वही चर्चा जिसमें इतिहास की बातें चल रही हैं ? सुना है वहां भारत में पहले कौन आया इस विषय पर चर्चा हो रही है |" साथी मित्र ने उत्तर दिया |

दूसरा बोला , ", मुझे तो बचपन से लगता रहा है कि, उफ्फ् कितनी सारी तारीखें , कितने देश और उनके साथ जुड़ा उनका इतिहास | "

" जो भी हो पर यह है तो बड़ा दिलचस्प , समय बदला तारीखें बदली , राजा महाराजा बदले , राज करने…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 29, 2017 at 3:00pm — 7 Comments

ग़ज़ल (प्रथम प्रयास)

१२२ १२२ १२२ १२२

नहीं है यहाँ पर मुझे जो बता दे
सही रास्ता जो मुझे भी दिखा दे

ये कैसी हवा जो चली है यहाँ पर
परिंदा नहीं जो पता ही बता दे

चले थे कभी साथ साथी हमारे
पुरानी लकीरों से यादें मिटा दें

कभी तो मिलेगी ज़िन्दगी पुरानी
वफ़ा की ज्वाला यहाँ भी जला दे

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 24, 2017 at 9:00pm — 24 Comments

बरखा ( सार छंद- १६,१२)



छन्न पकैया छन्न पकैया , आयी बरखा रानी

बोली बच्चों अंदर बैठो  , मेरी बूढ़ी नानी |

छन्न पकैया छन्न पकैया , भूख लगी है नानी

गरमा गरम पकौड़े खाएं , बोली गुड़ियाँ रानी |

छन्न पकैया छन्न पकैया , सबर रखो तुम मुनिया

मंडी से लाना होगा अब , प्याज , मिर्च औ धनियाँ|

छन्न पकैया छन्न पकैया , मिलकर खाओ भैया

आओ फिर हम नाचे गायें, करके ता ता थैया |

छन्न पकैया छन्न पकैया , जब जब भरता पानी

छप छप करते हैं पानी…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 19, 2017 at 11:30pm — 14 Comments

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