For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog (230)

कविता : हथियार

कुंद चाकू पर धार लगाकर

हम चाकू से छीन लेते हैं उसके हिस्से का लोहा

और लोहे का एक सीदा सादा टुकड़ा

हथियार बन जाता है

 

जमीन से पत्थर उठाकर

हम छीन लेते हैं पत्थर के हिस्से की जमीन

और इस तरह पत्थर का एक भोला भाला टुकड़ा

हथियार बन जाता है

 

लकड़ी का एक निर्दोष टुकड़ा

हथियार तब बनता है जब उसे छीला जाता है

और इस तरह छीन ली जाती है उसके हिस्से की लकड़ी

 

बारूद हथियार तब बनता है

जब उसे किसी कड़ी…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 21, 2013 at 9:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल : जीतने तक उड़ान जिंदा रख

बहर : २१२२ १२१२ २२

----------------------------------

बाजुओं की थकान जिंदा रख

जीतने तक उड़ान जिंदा रख

 

आँधियाँ डर के लौट जाएँगीं

है जो खुद पे गुमान जिंदा रख

 

तेरा बचपन ही मर न जाय कहीं

वो पुराना मकान जिंदा रख

 

बेज़बानों से कुछ तो सीख मियाँ

तू भी अपनी ज़बान जिंदा रख

 

नोट चलता हो प्यार का भी जहाँ

एक ऐसी दुकान जिंदा रख

 

जान तुझमें ये डाल देंगे कभी

नाक, आँखें व कान…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 1, 2013 at 11:32pm — 29 Comments

सात हाइकु

(१)

जिन्हें है जल्दी

अग्रिम श्रद्धांजलि

जाएँगें जल्दी

(२)

कैसे कहूँ मैं?

कैंसर पाँव छुए…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 24, 2013 at 9:00pm — 5 Comments

ग़ज़ल : जब नयन गुनगुना हो गया

जब नयन गुनगुना हो गया

तो सृजन गुनगुना हो गया

 

रूप की धूप में बैठकर

ये बदन गुनगुना हो गया

 

तेरी यादों की भट्ठी जली

मेरा मन गुनगुना हो गया

 

उसने डुबकी लगाई कहीं

आचमन गुनगुना हो गया

 

नर्म होंठों पे जुंबिश हुई

हरिभजन गुनगुना हो गया

 

थामकर हाथ हम चल पड़े

पर्यटन गुनगुना हो गया

 

उनके आने की आहट हुई

अंजुमन गुनगुना हो गया

 

साँस ने साँस को आग…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 22, 2013 at 1:33am — 4 Comments

चार क्षणिकाएँ

क्षणिका : नीम चढ़ा करेला

 

नीम चढ़ा करेला

सेहत के लिए सबसे अच्छा होता है

लेकिन चर्बी को सेहत मानने वाले समाज में

ये कहीं नहीं बिकता

 

क्षणिका : हवा की तरह

 

मुझसे प्रेम करो हवा की तरह

ताकि तुम्हारा हर एक अणु

मेरे जिस्म के हर बिन्दु से टकराये

और तुमसे दूर होते ही

मेरी नसों में बह रहा लहू

मुझे फाड़कर रख दे

 

क्षणिका : विकास

 

चिकित्सा कम कर देती है…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 5, 2013 at 9:06am — 8 Comments

कविता : परिभाषाएँ

बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती

बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत, जग को जंग, दगा को दंगा

मद को मंद, मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश, बजर को बंजर

कोई सवाल करे तो कह देना

ये बिंदु नहीं हैं

ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए

 

केवल लंबाई होती है रेखा में

चौड़ाई और मोटाई नहीं होती

खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो

कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 3, 2013 at 7:55pm — 12 Comments

लघु कथा : ब्रह्मराक्षस का कुत्ता

महानगर के सबसे शानदार इलाके की सबसे अच्छी कोठियों में से एक में ब्रह्मराक्षस रहता है। वो स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा विद्वान समझता है और चाहता है कि उसकी विद्वत्ता के चर्चे चारों दिशाओं में हों। समय समय पर ज्ञान के प्यासे लोग उसके पास आते रहते हैं। वो फौरन उनको अपना शिष्य बना लेता है। फिर उनके कानों में फुसफुसाकर गुरुमंत्र देता है। जैसे ही शिष्य इस गुरुमंत्र का उच्चारण करता है वो कुत्ता बन जाता है। इसके बाद ब्रह्मराक्षस अपनी तमाम पोथियाँ उसके सामने बाँचता है। तत्पश्चात ब्रह्मराक्षस उसके गले…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 23, 2013 at 7:44pm — 12 Comments

कविता : धर्म की हत्या

हम कहीं भी महफ़ूज नहीं है

वो कभी भी, कहीं भी, हमारी हत्या कर सकते हैं

हम इंसान हैं

वो आतंकवादी

 

पर वो नहीं जानते

कि हम पर चलाई गई हर गोली

उनके धर्म की छाती में जाकर धँसती है

 

हम फिर पैदा हो जायेगें

सौ मरेंगे तो हजार और पैदा हो जायेंगे

 

पर उनका धर्म एक बार मर गया

तो हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा

 

धर्म जान लेने या देने से नहीं

जान बचाने से फैलता है

 

और ख़ुदा,…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 16, 2013 at 11:08pm — 8 Comments

ग़ज़ल : इश्क जब इम्तेहान लेता है

मिसरों का वज़्न : २१२२ १२१२ २२ (११२२ १२१२ २२ की छूट ली जा सकती है)

---------------------------------------- 

अच्छे अच्छों की जान लेता है

इश्क जब इम्तेहान लेता है

 

बात सबकी जो मान लेता है

छोड़ सबकुछ मसान लेता है

 

वही जीता है इस नगर में जो

बेचकर घर दुकान लेता है

 

फन वो देता है जिसको भी सच्चा

पहले उसका गुमान लेता है

 

ये निशानी है खोखलेपन की

खुद को खुद ही बखान लेता है

 

जब भी…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 11, 2013 at 9:30pm — 14 Comments

ग़ज़ल : सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे

बहर : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

----------------------------

जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे

झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे

 

झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से

लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 31, 2013 at 11:32am — 18 Comments

ग़ज़ल : अब तो मक्खी यहाँ कोई भी निगल जाता है

बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२

 ----------------------------------------------

भिनभिनाने से तेरे कौन बदल जाता है

अब तो मक्खी यहाँ कोई भी निगल जाता है

 

यूँ लगातार निगाहों से तू लेज़र न चला

आग ज्यादा हो तो पत्थर भी पिघल जाता है

 

जिद पे अड़ जाए तो दुनिया भी पड़े कम, वरना

दिल तो बच्चा है खिलौनों से बहल जाता है

 

तुझ से नज़रें तो मिला लूँ प’ तेरा गाल मुआँ

लाल अख़बार में फौरन ही बदल जाता है

 

थाम लेती है…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 22, 2013 at 12:14am — 8 Comments

ग़ज़ल : तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा

बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२

-------------------------------------

करके उपवास तू उसको न सता मान भी जा

तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा

 

सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई

है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 6, 2013 at 11:52pm — 17 Comments

ग़ज़ल : सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं

सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं

छोड़ मुझे वो जब जब मैके जाने लगते हैं

 

उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन

मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं

 

उनको देख रसोई के सब डिब्बे जादू से

अंदर की सारी बातें बतलाने लगते हैं

 

ये किस भाषा में चौका, बेलन, चूल्हा, कूकर

उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं

 

जिसकी खातिर खुद को मिटा चुकीं हैं, वो ‘सज्जन’

प्रेम रहित जीवन कहकर पछताने लगते…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 13, 2013 at 11:59am — 28 Comments

ग़ज़ल : नाव ही नाख़ुदा हो गई

राहबर जब हवा हो गई
नाव ही नाखुदा हो गई

प्रेम का रोग मुझको लगा
और दारू दवा हो गई

जा गिरी गेसुओं में तेरे
बूँद फिर से घटा हो गई

चाय क्या मिल गई रात में
नींद हमसे खफ़ा हो गई

लड़ते लड़ते ये बुज़दिल नज़र
एक दिन सूरमा हो गई

जब सड़क पर बनी अल्पना
तो महज टोटका हो गई

माँ ने जादू का टीका जड़ा
बद्दुआ भी दुआ हो गई

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 10, 2013 at 4:30pm — 20 Comments

लघुकथा : पारदर्शी तंत्र

“तंत्र को पारदर्शी करो, तंत्र को पारदर्शी करो”। सरकारी दफ़्तर के बाहर सैकड़ों लोगों का जुलूस यही नारा लगाते हुए चला आ रहा था। अंदर अधिकारियों की बैठक चल रही थी। एक अधिकारी ने कहा, “जल्दी ही कुछ किया न गया तो जुलूस लगाने वाले लोग कुछ भी कर सकते हैं”। अंत में सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया कि तंत्र को पूर्णतया पारदर्शी बना दिया जाय।

कुछ ही दिनों में दफ़्तर की सारी दीवारें ऐसे शीशे की बनवा दी गईं जिससे बाहर की रोशनी अंदर न आ सके लेकिन अंदर की रोशनी बाहर जा सके। अब दफ़्तर का सारा काम काज…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 17, 2012 at 3:25pm — 14 Comments

लघुकथा : राष्ट्रीय वन निगम

(पूर्णतया काल्पनिक, वास्तविकता से समानता केवल संयोग)

बहुत समय पहले की बात है। जंगल में शेर, लोमड़ी, गधे और कुत्ते ने मिलकर एक कंपनी खोली, जिसका नाम सर्वसम्मति से ‘राष्ट्रीय वन निगम’ रखा गया । गधा दिन भर बोझ ढोता। शाम को अपनी गलतियों के लिए शेर की डाँट और सूखी घास खाकर जमीन पर सो जाता।  कुत्ता दरवाजे के बाहर दिन भर भौंक भौंक कर कंपनी की रखवाली करता और शाम को बाहर फेंकी हड्डियाँ खाकर कागजों के ढेर पर सो जाता। लोमड़ी दिन भर हिसाब किताब देखती। हिसाब में थोड़ा बहुत इधर उधर करके…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 13, 2012 at 12:13pm — 16 Comments

ग़ज़ल : बरगदों से जियादा घना कौन है?

बहर : २१२ २१२ २१२ २१२

बरगदों से जियादा घना कौन है

किंतु इनके तले उग सका कौन है

 

मीन का तड़फड़ाना सभी देखते

झील का काँपना देखता कौन है

 

घर के बदले मिले खूबसूरत मकाँ

छोड़ता फिर जहाँ में भला कौन है

 

लाख हारा हूँ तब दिल की बेगम मिली

आओ देखूँ के अब हारता कौन है

 

प्रश्न इतना हसीं हो अगर सामने

तो फिर उत्तर में नो कर सका कौन है

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 1, 2012 at 8:30pm — 13 Comments

मुक्तिका : अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है

टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है

अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है

 

परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर

लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है

 

गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे

झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है

 

उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन

उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है

 

आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें

इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है

 

जितना कम…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 26, 2012 at 9:30pm — 11 Comments

ग़ज़ल : मुझसे नज़रें न तू मिलाया कर

बहर : २१२२ १२१२ २२ [इस बहर को ११२२ १२१२ २२ भी लेने की छूट होती है]

 

मुझसे नज़रें न तू मिलाया कर

की है तौबा न यूँ पिलाया कर

 

जिस्म उरियाँ हो रूह ढँक जाए

ऐसे कपड़े न तू सिलाया कर…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 21, 2012 at 3:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल : आ मेरे पास तेरे लब पे जहर बाकी है

बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२ 

रह गया ठूँठ, कहाँ अब वो शजर बाकी है

अब तो शोलों को ही होनी ये खबर बाकी है

है चुभन तेज बड़ी, रो नहीं सकता फिर भी

मेरी आँखों में कहीं रेत का घर बाकी है

रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर

आँधियाँ आग की कहती हैं कसर बाकी है

तेरी आँखों के समंदर में ही दम टूट गया

पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है

तू कहीं खुद भी न मर जाए सनम चाट इसे

आ मेरे पास तेरे लब पे…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 12, 2012 at 2:21pm — 33 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय लक्ष्मण भाई बहुत  आभार आपका "
1 hour ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है । आये सुझावों से इसमें और निखार आ गया है। हार्दिक…"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन और अच्छे सुझाव के लिए आभार। पाँचवें…"
2 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय सौरभ भाई  उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार , जी आदरणीय सुझावा मुझे स्वीकार है , कुछ…"
3 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - वो कहे कर के इशारा, सब ग़लत ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थति और उत्साहवर्धक  प्रतिक्रया  के लिए आपका हार्दिक…"
3 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - वो कहे कर के इशारा, सब ग़लत ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी प्रस्तुति का रदीफ जिस उच्च मस्तिष्क की सोच की परिणति है. यह वेदान्त की…"
4 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . . उमर
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, यह तो स्पष्ट है, आप दोहों को लेकर सहज हो चले हैं. अलबत्ता, आपको अब दोहों की…"
4 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय योगराज सर, ओबीओ परिवार हमेशा से सीखने सिखाने की परम्परा को लेकर चला है। मर्यादित आचरण इस…"
4 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"मौजूदा जीवन के यथार्थ को कुण्डलिया छ्ंद में बाँधने के लिए बधाई, आदरणीय सुशील सरना जी. "
4 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहा दसक- गाँठ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी,  ढीली मन की गाँठ को, कुछ तो रखना सीख।जब  चाहो  तब …"
5 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on शिज्जु "शकूर"'s blog post ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है
"भाई शिज्जू जी, क्या ही कमाल के अश’आर निकाले हैं आपने. वाह वाह ...  किस एक की बात करूँ…"
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपके अभ्यास और इस हेतु लगन चकित करता है.  अच्छी गजल हुई है. इसे…"
6 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service