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December 2019 Blog Posts (53)

एक पागल की आत्म गाथा

दुनियाँ कहे मै पागल हूँ

मै कहता पागल नहीं, बस घायल हूँ

कभी व्यंग्य, कभी आक्षेप को

खुद पर रोज मैं सहता, अपनी व्यथा किसे सुनाऊ

कितनी चोटों से घायल हूँ

जीने की मै कोशिश करता, मै इस समाज की रंगत हूँ ||

 

क्यूँ पागल मै कैसे हुआ

पुंछने वाला ना हमदर्द मिला, जो मिला वो ताने कसता  

देख उसे अब मै हँसता हूँ

पल भर में ये वक़्त बदलता

कौन जाने, तेरा आने वाला कल मै ही हूँ

 कितनी चोटों से घायल हूँ ||

 

कोई प्रेम…

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Added by PHOOL SINGH on December 6, 2019 at 4:30pm — 2 Comments

नक़्श-ए-पा

मुझको पता नहीं है, मैं कहाँ पे जा रही हूँ

तेरे नक़्श-ए-पा के पीछे,पीछे मैं आ रही हूँ

उल्फत का रोग है ये, कोई दवा ना इसकी

मैं चारागर को फिर भी,दुःखड़ा सुना रही हूँ

सुन के भी अनसुनी क्यूँ,करते हो तुम सदाएँ

फिर भी मैं देख तुमको यूँ मुस्कुरा रही हूँ

बेचैनियों का मुझ पर, आलम है ऐसा छाया

क्यो खो दिया है जिसको, पा कर ना पा रही हूँ

मुझे भूलना भी इतना ,आसाँ तो नहीं होगा

दिन रात होगें भारी, तुमको बता रही…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 6, 2019 at 11:30am — 1 Comment

ऐसी सादगी भरी शोहरत को सलाम। (अतुकांत कविता)

शोहरतों का हक़दार वही जो,

न भूले ज़मीनी-हकीक़त, 

न आए जिसमें कोई अहम्,

न छाए जिसपर बेअदबी का सुरूर,

झूठी हसरतों से कोसों दूर,

न दिल में कोई फरेब,

न किसी से नफ़रत,

पलों में अपना बनाने का हुनर,

ज़ख्मों को दफ़न कर,

सींचे जो ख़ुशियों को,

चेहरे पर निराला नूर,

आवाज़ में दमदार खनक,

अंदर भी…

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Added by Usha on December 6, 2019 at 9:09am — 1 Comment

मेरा चेहरा मेरे जज़्बात का आईना है

मेरा चेहरा मेरे जज़्बात का आईना है

दिल पे गुज़री हुई हर बात का आईना है।

देखते हो जो ये गुलनार तबस्सुम रुख़ पर

उनसे दो पल की मुलाकात का आईना है।

आड़ी तिरछी सी इबारत दिखे रुख़सारों पर

दिल मे लिक्खे ये सफ़ाहात का आईना है।

बाद मुद्दत के उन्हें देख के दिल भर आया

ये मुहब्बत के निशानात का आईना है।

अश्क् और आहें फ़ुगाँ और तराने ग़म के

आपके प्यार की सौगात का आईना है।

दामे दौलत के इशारात में फंस कर देखो

हर…

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Added by Manju Saxena on December 5, 2019 at 12:30pm — 1 Comment

सदमे में है बेटियाँ चुप बैठे हैं बाप - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

आदम युग से आज तक, नर बदला क्या खास

बुझी  वासना  की  नहीं, जीवन  पीकर  प्यास।१।



जिसको होना राम था, कीचक बन तैयार

पन्जों से उसके भला, बचे कहाँ तक नार।२।



तन से बढ़कर हो गयी, इस युग मन की भूख

हुए  सभ्य  जन  भेड़िए, बिसरा  सभी  रसूख।३।



तन पर मन की भूख जब, होकर चले सवार

करती है वो  नार  की, नित्य  लाज  पर वार।४।



बेटी गुमसुम सोच ये, कैसा सभ्य विकास

हरमों से बाहर निकल, रेप आ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 4, 2019 at 8:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल

ग़ज़ल

हर इक सू से सदा ए सिसकियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।

सुना है इस वतन को बेटियां अच्छी नहीं लगतीं ।।

न जाने कितने क़ातिल घूमते हैं शह्र में तेरे ।

यहाँ कानून की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।

सियासत के पतन का देखिये अंजाम भी साहब ।

दरिन्दों को मिली जो कुर्सियां अच्छी नहीं लगतीं।।

वो सौदागर है बेचेगा यहाँ बुनियाद की ईंटें ।

बिकीं जो रेल की सम्पत्तियां अच्छी नहीं लगतीं ।।

बिकेगी हर इमारत…

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Added by Naveen Mani Tripathi on December 4, 2019 at 2:02am — 7 Comments

कुछ क्षणिकाएँ : ....

कुछ क्षणिकाएँ : ....

बढ़ जाती है

दिल की जलन

जब ढलने लगती है

साँझ

मानो करते हों नृत्य

यादों के अंगार

सपनों की झील पर

सपनों के लिए

...................

आदि बिंदु

अंत बिंदु

मध्य रेखा

बिंदु से बिंदु की

जीवन सीमा

.......................

तृषा को

दे गई

दर्द

तृप्ति को

करते रहे प्रतीक्षा

पुनर्मिलन का

अधराँगन में

विरही अधर

भोर होने…

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Added by Sushil Sarna on December 3, 2019 at 8:07pm — 4 Comments

अपने हर ग़म को वो अश्कों में पिरो लेती है - सलीम 'रज़ा'

2122 1122 1122 22             

अपने हर ग़म को वो अश्कों में पिरो लेती है

बेटी मुफ़लिस की खुले घर मे भी सो लेती है

 

मेरे दामन से लिपट कर के वो रो लेती है

मेरी तन्हाई मेरे साथ ही सो लेती है

 

तब मुझे दर्द का एहसास बहुत होता है                 

जब मेरी लख़्त-ए-जिगर आंख भिगो लेती है      

 

मैं अकेला नहीं रोता हूँ शब-ए-हिज्राँ में 

मेरी तन्हाई मेरे साथ में रो लेती है 

 

अपने दुःख दर्द…

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Added by SALIM RAZA REWA on December 3, 2019 at 6:41pm — 5 Comments

ग़ज़ल : ख़ून से मैंने बनाए आँसू

अरकान : 2122 1122 22

चाहा था हमने न आए आँसू

उम्र भर फिर भी बहाए आँसू

कोई तो हो जो हमारी ख़ातिर

पलकों पे अपनी सजाए आँसू

मार के अपने हसीं सपनों को

ख़ून से मैंने बनाए आँसू

वक़्त बेवक़्त कहीं भी आ कर

याद ये किसकी दिलाए आँसू

कोई भी तेरा न दुनिया में हो

रात दिन तू भी गिराए आँसू

दुनिया में इनकी नहीं कोई क़द्र

इसलिए मैंने छुपाए आँसू

आपसे मिल के ये पूछूँगा मैं

आपने…

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Added by Mahendra Kumar on December 3, 2019 at 5:46pm — 4 Comments

प्रकृति मेरी मित्र

प्रकृति हम सबकी माता है

सोच, समझ,सुन मेरे लाल

कभी अनादर इसका मत करना

वरना बन जाएगी काल

 

गिरना उठना और चल देना

तू स्वंय को रखना सदा संभाल

इतना भी आसाँ ना समझो

बनना सबके लिए मिसाल

 

सत्य व्रत का पालन करना

कभी किसी ना तू डरना

विपदाओं को मित्र बनाकर

बस थामे रहना ‘दीपमशाल

                                                              

मौलिक…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 3, 2019 at 12:30pm — 2 Comments

आक्रोश

प्रतिदिन बढ़ता जा रहा, सामूहिक दुष्कर्म

क्रूर दरिन्दे भेड़िये, क्या जाने सत्कर्म।।1

जाएँ तो जाएँ किधर, चहुँ दिशि लूट खसोट

दानव सदा कुकर्म के, दिल पर करते चोट।।2

आये दिन ही राह में, होता अत्याचार।

छुपे हुए नर भेड़िये, करते रोज़ शिकार।।3

हवसी नर जो कर रहा, सारी सीमा पार।

सरेआम हैवान को, अब दो गोली मार।।4

शैतानों की चाल से, बढ़े रोज व्यभिचार।

रोम-रोम विचलित हुआ, सुनकर चीख पुकार।।5

खूनी पंजे कर रहे,…

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Added by डॉ छोटेलाल सिंह on December 3, 2019 at 7:30am — 4 Comments

ज़िन्दगी - एक मंच । (अतुकांत कविता)

ख़ूबसूरत मंच है, ज़िन्दगी,

हर राह, एक नया तज़ुर्बा,

ख़ुदा की नेमतों से,

मिला ये मौका हमें,

कि बन एक उम्दा कलाकार,

अदा कर सकें अपना किरदार,

कर लें वह सब,

जो भी हो जाए मुमकिन,

खुद भी मसर्रत हासिल रहे,

औरों के चेहरे की ख़ुशी भी कायम रहे,

और न रहे रुख़सती पर यह मलाल,

कि हम क्या कुछ कर सकते थे,

चूक गए, और वक़्त मिल जाता,

तो ये कर लेते, कि वो कर लेते,

इस मंच को जी लें हम भरपूर,

और हो जाएँ फना फिर सुकून से

एक ख़ूबसूरत मुस्कुराहट के…

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Added by Usha on December 2, 2019 at 11:27am — 7 Comments

अब न मिलेगी शह तुझे। (अतुकांत कविता)

कैसे दे दी हामी तेरे ज़मीर ने?

कैसे हो पायी इतनी दरिंदगी हावी तुझ पर?

कि चीख पड़ी इंसानियत भी सुन,

और शर्मिंदा हो गई हैवानियत भी देख।

क्या नहीं दहला तेरा अंतर्मन देख उसको छटपटाता?

क्या नहीं काँपी तेरी काया सुन उसकी चीखें?

क्या नहीं रोयी तेरी रूह कर उसे राख़?

क्या नहीं था ख़ौफ रब-ए-जलील का?

कब तक शर्मसार करेगा अपने जन्मदाता को?

कब तक अपमानित करेगा राखी के उस वचन को?

कब तक ज़लील करेगा रिशतों के पवित्र बन्धनों को?

कब तक, आखिर कब…

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Added by Swastik Sawhney on December 2, 2019 at 11:15am — 5 Comments

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