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July 2025 Blog Posts (7)

अस्थिपिंजर (लघुकविता)

लूटकर लोथड़े माँस के 

पीकर बूॅंद - बूॅंद रक्त 

डकारकर कतरा - कतरा मज्जा

जब जानवर मना रहे होंगे उत्सव 

अपने आएंगे अपनेपन का जामा पहन

मगरमच्छ के आँसू बहाते हुए 

नहीं बची होगी कोई बूॅंद तब तक 

निचोड़ने को अपने - पराए की

बचा होगा केवल सूखे ठूॅंठ सा

निर्जिव अस्थिपिंजर ।

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on July 29, 2025 at 3:57pm — 3 Comments

कुंडलिया

पलभर में धनवान हों, लगी हुई यह दौड़ ।

युवा मकड़ के जाल में, घुसें समझ कर सौड़ ।

घुसें समझ कर सौड़ , सौड़ काँटों का बिस्तर ।

लालच के वश होत , स्वर्ग सा जीवन बदतर ।

खाते सब 'कल्याण', भाग्य का नभ थल जलचर ।

जब देते भगवान , नहीं फिर लगता पलभर ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on July 24, 2025 at 2:22pm — 3 Comments

पूनम की रात (दोहा गज़ल )

धरा चाँद गल मिल रहे, करते मन की बात।

जगमग है कण-कण यहाँ, शुभ पूनम की रात।

जर्रा - जर्रा नींद में , ऊँघ रहा मदहोश।

सन्नाटे को चीरती, सरसर बहती वात।

मेघ चाँद को ढाँपते , ज्यों पशमीना शाल।

परिवर्तन संदेश दे , चमकें तारे सात।

हूक हृदय में ऊठती, ज्यों चकवे की प्यास।

छत पर छिटकी चाँदनी, बेकाबू जज़्बात।

बिजना था हर हाथ में, सभी सुखी थे

झोल।

गलियों में ही खाट पर, सोता था देहात।

दिनभर…

Continue

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on July 14, 2025 at 8:30pm — 5 Comments


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तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी

वहाँ  मैं भी  पहुंचा  मगर  धीरे धीरे 

१२२    १२२     १२२     १२२   



बढी भी तो थी ये उमर धीरे  धीरे

तो फिर क्यूँ न आये हुनर धीरे धीरे

चमत्कार पर तुम भरोसा करो मत

बदलती  है  दुनिया मगर धीरे धीरे

हक़ीक़त पचाना न था इतना आसां

हुआ सब पे सच का असर धीरे धीरे

ज़बाँ की लड़ाई अना  का है क़िस्सा

ये समझोगे तुम भी मगर धीरे धीरे

ग़मे ज़िंदगी ने यूँ ग़फ़लत में  डाला

हुये इल्मो  फन बे असर…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 14, 2025 at 7:58pm — 8 Comments

सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२/१२२/१२२/१२२

*

कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के

सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१।

*

महल को तिजोरी रहा खोल सिक्के

कहे झोपड़ी  का  नहीं मोल सिक्के।२।

*

लगाता है  सबके  सुखों को पलीता

बना रोज रिश्तों में क्यों होल सिक्के।३।

*

रहें दूर या फिर  निकट  जिन्दगी में

बजाता है सबको बना ढोल सिक्के।४।

*

सिधर भी गये तो न बक्शेंगे हमको

रहे जिन्दगी में  जो ये झोल सिक्के।५।

*

नहीं  पेट    ताली  …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 10, 2025 at 3:15pm — 3 Comments

घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

अच्छा लगता है गम को तन्हाई में

मिलना आकर तू हमको तन्हाई में।१।

*

दीप तले क्यों बैठ गया साथी आकर

क्या डर लगता है तम को तन्हाई में।२।

*

छत पर बैठा मुँह फेरे वह खेतों से

क्या सूझा है मौसम को तन्हाई में।३।

*

झील किनारे बैठा चन्दा बतियाने

देख अकेला शबनम को तन्हाई में।४।

*

घाव भले भर पीर न कोई मरने दे

जा तू समझा मरहम को तन्हाई में।५।

*

साया भी जब छोड़ गया हो तब यारो

क्या मिलना था बेदम को तन्हाई में।६।

*

बीता वक्त…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 1, 2025 at 10:49pm — 4 Comments

यथार्थवाद और जीवन

यथार्थवाद और जीवन

वास्तविक होना स्वाभाविक और प्रशंसनीय है, परंतु जरूरत से अधिक वास्तविकता अक्सर अकेलेपन और असंतोष की जड़ बन जाती है। जीवन का सार केवल सच्चाई तक सीमित नहीं, बल्कि उसमें दया, सहानुभूति और समझदारी का भी समावेश होता है। जब मुझे नई सोच और नए विचारों की आवश्यकता होती है, तो मैं उन लोगों की खोज करता हूँ जो मेरी आलोचना करें, जो मेरी बातों पर उंगली उठाएँ। क्योंकि केवल आलोचना के द्वारा ही हम अपनी सीमाओं को पहचान…

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Added by PHOOL SINGH on July 1, 2025 at 3:00pm — 2 Comments

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