For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा-अंक 87 में शामिल सभी ग़ज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

परम आत्मीय स्वजन 
87वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और हरे अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|

___________________________________________________________________________

Mahendra Kumar


झूठा इल्ज़ाम है जो सर से हटा भी न सकूँ
और क्या सच है ये दुनिया को बता भी न सकूँ

खुले मौसम में पतंगों को उड़ा भी न सकूँ
नाव काग़ज़ की बनाऊँ तो चला भी न सकूँ

रूह के पास मेरे रंज की इक बस्ती है
फूल जिसमें कोई ख़ुशियों के खिला भी न सकूँ

ख़्वाहिशों को कई रंगों में डुबो कर मैंने
ऐसी तस्वीर बनायी है दिखा भी न सकूँ

हाथ की टूटी लकीरों को मिलाना मुश्किल
हाँ मगर ये तो नहीं हाथ जला भी न सकूँ

उनसे मिलने का फ़क़त ख़्वाब ही इक ज़रिया है
नींद रूठी है मेरी उसको मना भी न सकूँ

इश्क़ अब कम है मगर ऐसे तो हालात नहीं
ज़हर वो दे दे मुझे और मैं खा भी न सकूँ

जो भी आता है मुझे दर्द ही दे जाता है
"ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ"

कौन अन्दर ये इजाज़त के बिना बैठा है
जिसको दरवाज़ा मैं बाहर का दिखा भी न सकूँ

__________________________________________________________________________________

MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी)

अपने ग़म का मैं फसाना यूँ सुना भी न सकूँ
ज़ख्म दिल का मैं दिखाऊं तो दिखा भी न सकूँ

मेरे माथे की लकीरों पे जुदाई है लिखी
"ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ "

मेरे मौला ये क़यामत है बपा दिल पे मेरे
दर्द उल्फत का मैं शानों पे उठा भी न सकूँ

नक्श हैं आज भी इस दिल में सितारो की तरह
ऐसी यादें कभी इस दिल से मिटा भी न सकूँ

इतना उरियाँ है ज़माना तुम्हें बतलाऊँ क्या
जो नज़र अपनी उठाऊं तो उठा भी न सकूँ

डर है इलज़ाम कोई सर न मेरे आ जाये
अब तो इस दौर में दामन को बचा भी न सकूँ

क्या गुज़रती है मेरे दिल पे वो देखें 'रिज़वान'
कांपते लब है मेरे दिल की सुना भी न सकूँ

_______________________________________________________________________________

राज़ नवादवी

प्यार की शर्त है ऐसी कि निभा भी न सकूँ
और ग़म है कि उसे दिल से भुला भी न सकूँ

आतिशे इश्क़ है, सब कुछ ही जलाया चाहे
घर भी पहले से जला है कि जला भी न सकूँ

क़स्द पहले ही है मफ़लूज़ ज़रर खा खा कर
दिल की कोशिश को लबे अज़्म उठा भी न सकूँ

अस्ल कब ख़र्च हुआ सूद की भरपाई में
हासिले ज़र्ब मैं कारिज़ से मँगा भी न सकूँ

ज़ुल्म क्या क्या न वो ढाए है सितमगर मुझपे
सामने होके मुख़ालिफ़ मैं बता भी न सकूँ

मेरा मुजरिम ही है मुंसिफ़ तो निज़ा-ए-दिल को
दस्ते अग्यार से इन्साफ़ दिला भी न सकूँ

फ़ायदा क्या है लिखूँ हाल अलग से ख़त में
दिल में जो बात है क़ासिद से छिपा भी न सकूँ

हैं निहाँ इनमें मुहब्बत के हसीं कुछ मोती
अश्क़ आँखों में जो ठहरे हैं गिरा भी न सकूँ

आशिक़ी में जो गदाई ने मुझे दौलत दी
गम की खैरात है इतनी कि लुटा भी न सकूँ

इतनी हसरत है मगर हाय ये मजबूरी है
मौत से क़ब्ल तमन्ना को सुला भी न सकूँ

काम करिये कि नहीं काम चलेगा कहकर
'ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ'

______________________________________________________________________________

ASHFAQ ALI

दाग़ दिल में हैं किसी को मैं दिखा भी न सकूँ ।
हाले दिल अपना किसी को मैं सुना भी न सकूँ ।।

इश्क़ क्या चीज़ है ग़म क्या है मोहब्बत क्या है ।
ये वो शैय हैं जो किसी से मैं छुपा भी न सकूँ ।।

चाहते हम भी हैं तक़दीर बदल दे लेकिन ।
,ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूं, ।।

शफ़कतें और मोहब्बत हैं मेरी रग़ रग़ में ।
अपनी नज़रों से किसी को तो गिरा भी न सकूँ ।।

ज़िन्दगी में जो मेरी जान हुआ करता था ।
बाद मरने के उसी दिल में समा भी न सकूँ ।।

आह भी करते हैं तो इश्क की रुसवाई है ।
किस्सा -ए - दर्द ग़म -ए-दिल है सुना भी न सकूँ ।।

ज़िन्दगी भर जो तेरे लब पे रहा ऐ ,गुलशन, ।
ये वो नग़मा है वफ़ा का जिसे गा भी न सकूँ ।।

_________________________________________________________________________________

Dr Ashutosh Mishra

क्या मुहब्बत है जमाने को बता भी न सकूँ
न झुका पाऊँ नजर और मिला भी न सकूँ

ख़त जो चूमे थे कभी ख़त वो जला भी न सकूँ
आग बहते हुये पानी में लगा भी न सकूँ

जो मेरे दिल में है बाँहों में किसी गैर के थी
ये वो किस्मत में लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

सारी दुनिया जिसे पूजा किये खुद जैसा
ऐसे कातिल पे मैं इल्जाम लगा भी न सकूँ

धड़कने दिल की तो दुनिया से छुपा लेता हूँ
अश्क़ पर आँखों के दुनिया से छुपा भी न सकूँ

रोज मर मर के मैं जीता रहा हूँ दुनिया में
लाश जिन्दा हूँ जमाने को बता भी न सकूँ

तेज रफ़्तार हवाओं ने खड़ी की मुश्किल
तेल बाती है मगर दीप जला भी न सकूँ

वो घड़ी यार जुदा जब हुआ मुझसे मेरा
याद कर भी न सकूँ और भुला भी न सकूँ

फायदा कुछ भी नहीं मेरे ग़ज़ल लिखने से
गर जो आदम को मैं इंसान बना भी न सकूँ

_______________________________________________________________________________

Amit Kumar "Amit"

अपने सोए हुए अरमां को, जगा भी न सकूँ।
तेरी आंखों से ये आंखे, तो मिला भी न सकूँ।।

गीत ऐसा कहे कोई, जिसे गा भी न सकूँ ।
जाम शब्दों को ये थोड़ा सा पिला भी न सकूँ।।

मैं तो आशिक ही तेरे दर का, तेरे आंगन का।
कर दे मजनूं मुझे खुद का, दे पता भी न सकूँ।।

ऐसे बिछड़ो मेरी आंखों से कभी मिल ना सको ।
और मैं अश्क जमाने से, छुपा भी न सकूँ ।।

कत्ल में मेरे ये हमदम ही मेरा शामिल था ।
राज दिल में है जमाने को बता भी न सकूँ ।।

अपनी तकदीर ही ऐसी है कि मंजिल न मिली ।
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ।।

अपनी गजलों मैं "अमित" फिर से यही कहता है ।

भूलना तो है मगर तुझको भुला भी न सकूँ।।

______________________________________________________________________________

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

चोट दिल पर है लगी जिसको दिखा भी न सकूँ,
बात अपनों की ही यह इसको बता भी न सकूँ।

नेकियाँ कर मैं थका बाज़ न दुश्मन आये,
उससे नफ़रत के मैं शौलों को दबा भी न सकूँ।

इश्क़ पर पहरे जमाने के लगे हैं कैसे,
तोहफा उनके लिये एक मैं ला भी न सकूँ।

हाय मज़बूरी ये कैसी है अना की मन में,
दोस्त जो रूठ गये उनको मना भी न सकूँ।

ऐसी दौलत से भला क्या मैं करूँगा हासिल,
जब वतन को हो जरूरत तो लुटा भी न सकूँ।

मैं 'नमन' शेरो सुखन में हूँ मगन, कैसी लगन,
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ।

_________________________________________________________________________________

सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'

बात कुछ ऐसी है दिल में कि बता भी न सकूँ
घाव अपनो ने दिया है जो दिखा भी न सकूँ

पर कटे पंछी सी यादें हैं जुड़ी साथ मेरे
चाह कर यार कभी जिसको उड़ा भी न सकूँ

बीच ख़ारों के सदा फूल हिफ़ाज़त से रहें
मैं यही सोच के ख़ारों को हटा भी न सकूँ

दर्द दिल का न समझ जाए यहाँ हर कोई
इसलिए खुलके कभी अश्क़ बहा भी न सकूँ

मैं घुमाऊंगा उन्हें रोज बिठा काँधे पर
बाप माँ बोझ नहीं हैं कि उठा भी न सकूँ

कोशिशें अपनी तरफ़ से तो बहुत कीं लेकिन

'ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ'

दूसरो की तरह मैं बेच दूँ ईमान अगर
ख़ुद से ही 'नाथ' कभी आँख मिला भी न सकूँ

_________________________________________________________________________________

Ram Awadh VIshwakarma


जख्म दिल को हैं मिले इतने गिना भी न सकूँ।
मामला दिल का है दुनिया को बता भी न सकूँ।

दिल.मेरा उसने चुराया है मगर है मुश्किल,
नाम से उसके रपट को मैं लिखा भी न सकूँ।

मैंने माना मेरा दुश्मन है सवाया मुझसे,
इतना कमजोर नहीं उसको झुका भी न सकूँ।

बाँध दी उसने मेरे पाँव में बेड़ी ऐसी,
दो कदम चलने को मैं पाँव उठा भी न सकूँ।

एक अरसे से मेरी जान खफा है मुझसे,
कौल कुछ ऐसी रखी है कि मना भी न सकूँ।

राह काँटों से भरी पाँव में छाले मेरे,
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ।

याद मैं उसको रखूँ तो न मुझे चैन मिले,
भूलना चाहूँ भी तो उसको भुला भी न सकूँ।

_________________________________________________________________________________

Tasdiq Ahmed Khan


यह वो मंज़र है जिसे छोड़ के जा भी न सकूँ |
उनके चहरे से नज़र अपनी हटा भी न सकूँ |

सख़्त पहरा है नज़र उन से मिला भी न सकूँ |
हाले दिल चाहूं सुनाना तो सुना भी न सकूँ |

इस तरह मेरे तसव्वुर में बसा है कोई
मैं अगर चाहूं भुलाना तो भुला भी न सकूँ |

सर जो झुकता है मेरा सिर्फ़ खुदा के आगे
मैं हूँ मजबूर कहीं और झुका भी न सकूँ |

इतना कमज़ोर भी यारब न मुझे कर देना
बोझ महबूब के ग़म का मैं उठा भी न सकूँ |

मुझ को बेदर्द लिखा उसने जवाबे ख़त में
यह वो क़िस्मत में लिखा है जो मिटा भी न सकूँ |

इसलिए होता है किरदार पे मेरे हमला
ता कि ईमाने मुकम्मल को बचा भी न सकूँ |

रिज़्क कम इतना भी मुझको न ख़ुदा तू देना
मैं किसी भूके को भर पेट खिला भी न सकूँ |

अब जगह दिल में नहीं है नये ज़ख़्मों के लिए
मैं सितमगार को यह बात बता भी न सकूँ |

मुफ़लिसी आइना चहरे को बना देती है
मैं अगर चाहूं छुपाना तो छुपा भी न सकूँ |

उनकी रुसवाई का भी ख़ौफ़ है तस्दीक़ मुझे
ज़ख़्म दिल के मैं ज़माने को दिखा भी न सकूँ |

_________________________________________________________________________________

Nilesh Shevgaonkar
.
कैसी दुनिया है कि ईमान बचा भी न सकूँ
और मैं इस को गँवा दूँ तो घर आ भी न सकूँ
.
इस क़दर उलझा हुआ हूँ मैं कहानी में तेरी
अपना क़िरदार जो चाहूँ तो घटा भी न सकूँ.
.
आह भरने की इजाज़त भी नहीं है मुझ को,
और सितम ये कि शिकन माथे पे ला भी न सकूँ.
.
बोझ अगरचे मेरे माज़ी का बहुत भारी है,
पर हिमाला तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ.
.
मुब्तिला तेरी मुहब्बत में हुआ हूँ ऐसे
अपनी रुसवाई से दामन मैं छुडा भी न सकूँ.
.
इश्क़ से हो के जुदा कहते हैं मिसरा ये “अमीर”
“ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ”
.
बे-अदब शख्स नज़र से यूँ गिरा है मेरी
फिर उठाना जो अगर चाहूँ, उठा भी न सकूँ.
.
“नूर” यह उन की दुआ थी कि मैं हो जाऊं शजर
अब कदम चाहूँ बढ़ाना तो बढ़ा भी न सकूँ.

_______________________________________________________________________________

SALIM RAZA REWA

राज़ उल्फ़त का ज़माने को बता भी न सकूँ।
मैं मुहब्बत को छुपाऊं तो छुपा भी न सकूँ।

भूल जा तू मुझे लेकिन मेरी मजबूरी है।
तेरी यादों को मैं इस दिल से भुला भी न सकूँ।

ज़ख्म खाए हैं जो इस दिल ने तेरी चाहत में।
चाह कर मैं उन्हें दुनिया को दिखा भी न सकूँ।

आँख मिलते ही उड़ी नींद सुकूं दिल का लुटा।
मैं ख़यालों में किसी और को ला भी न सकूँ।

नाम शामिल ही नहीं है मेरा दीवानों में।
यह वो किस्मत में लिखा है जो मिटा भी न सकूँ।

चाहते सिर्फ '' रज़ा'' हैं मेरे अहबाब यही।
उन से वादा मैं मुहब्बत का निभा भी न सकूँ।

_______________________________________________________________________________

Manan Kumar singh

घाव ऐसा दे गया वह जो दिखा भी न सकूँ
दर्द हासिल जो हुआ है,वो छिपा भी न सकूँ।1

खूब सूरत* है बनी अब की भी क्या क्या जुगतें
आ नहीं पाया कभी,फिर मैं तो जा भी न सकूँ।2

आज मंजर है ये कैसा! मैं छला हूँ बस यहाँ
खूब लगती है नजर,यार! लगा भी न सकूँ।3

ख्वाहिशों का ये सिला अब हो गया है मर्तबा
चाहता,पाता नहीं उसको,भुला भी न सकूँ।4

शोख नजरों के मुताबिक हो सकी है रुत कभी?
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ।

____________________________________________________________________________

Balram Dhakar


मैं तुझे प्यार करूँ और जता भी न सकूँ
तेरी यादों के निशां दिल से मिटा भी न सकूँ

आपने इसतरह ख़ामोश निग़ाहों से किया
आपको दिल के इरादे मैं बता भी न सकूँ

तेरे निज़ाम की मनमानियों से वाकिफ़ हूँ
लाखों मुद्दे हैं, जो महफ़िल में उठा भी न सकूँ

कितने बेनाम फ़रिश्तों का सफ़ाया होगा
सच तो मालूम है पर लब पे ये ला भी न सकूँ

ज़ात, मज़हब, ये ज़माने के चलन, सौ बातें
"ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ "

इस क़दर तीन ज़मीनों में बंट गया हूँ मैं
एक भारत था यकीं तुमको दिला भी न सकूँ

हुक्म है सारे परिंदों के पर कतरने का
वो मुलाज़िम हूँ जो किसी को सता भी न सकूँ

जिस चकाचौंध ने कई रात से सोने न दिया
है शहर भर के चरागाँ की बुझा भी न सकूँ

ऐसा कमज़ोर नहीं इतना भी लाचार नहीं
सच कहूँ, झूठ की बुनियाद हिला भी न सकूँ

________________________________________________________________________________

Samar kabeer

शर्म से सर यूँ झुका है कि उठा भी न सकूँ
ऐसी उफ़ताद् पड़ी है कि बता भी न सकूँ

ऐसा तूफ़ान उठाया है सियासत ने यहाँ
अम्न के आज कबूतर मैं उडा भी न सकूँ

दोस्तो सादा मिज़ाजी के इवज़ दुनिया ने
इस क़दर ज़ख़्म दिये हैं कि गिना भी न सकूँ

अपनी इमदाद में लोगों को बुलाने के लिये
वो नक़ाहत है कि आवाज़ लगा भी न सकूँ

इतना मजबूर हूँ,लाचार हूँ मेरे हमदम
तेरी राहों में बिछे ख़ार हटा भी न सकूँ

अपने हाथों की लकीरें तो मिटा दूँ लेकिन
"ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ"

_____________________________________________________________________________

अरुण कुमार निगम

पास जा भी न सकूँ पास बुला भी न सकूँ
और मज़बूरी मेरी क्या ये बता भी न सकूँ |

लाँघ दीवार पड़ोसन से मिला करता था
आज लाठी के बिना पाँव उठा भी न सकूँ |

हड्डियों को भी चबा करके निगल जाता था
अब कलेजी भी मिले हाय चबा भी न सकूँ |

देव आनंद सरीखी थी कभी जुल्फ मेरी
है उगा चाँद जिसे आज छुपा भी न सकूँ |

कोशिशें लाख हुईं हाथ निराशा आई
ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ |

खेत भी बेच दिए जिसको पढ़ाने के लिए
वो गया भूल मुझे मैं तो भुला भी न सकूँ |

________________________________________________________________________________

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

जाने वाले यूँ गए हैं कि बुला भी न सकूँ
और गम चाह के अब साथ में जा भी न सकूँ।१।

जिस्म आगोश में जाँ की न खबर है उनकी
सो गए नींद में ऐसी कि जगा भी न सकूँ।२।

माना प्यारे थे दिलोजान से पर छोड़ गए
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ।३।

मत दिखाना कभी अब मौत का मंजर ऐसा
बोझ अपनों का ही या रब जो उठा भी न सकूँ।४।

भर गई जह्न में दहशत ये कयामत मेरे
डर है अब पौध कोई और लगा भी न सकूँ।५।

______________________________________________________________________________

rajesh kumari

ऐसी दीवार बनाई जिसे ढा भी न सकूँ
बीच किसने थी धरी नींव बता भी न सकूँ

कैसे हालात बनाए हैं मेरे अपनों ने
मैं जमाने को सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ

बात होटों पे पँहुच रुक गई मेरी ऐसे
मैं बता भी न सकूँ हाय छुपा भी न सकूँ

ऐसी कडवी है दवाई जो मिली अपनों से
मैं उगल भी न सकूँ और पचा भी न सकूँ

चैन खोया है मेरा आज खतों ने तेरे
मैं जिन्हें रख न सकूँ पास जला भी न सकूँ

कैद पंछी हैं कफ़स में तेरी जो यादों के
उनसे इतनी है मुहब्बत कि उड़ा भी न सकूँ

मेरी राहों में बिछाते रहो पत्थर जितने
नातवाँ भी नहीं इतनी कि हटा भी न सकूँ

आज माटी में अदावत के छुपे हैं दीमक
गुल उख़ूव्वत के मैं चाहूँ तो खिला भी न सकूँ

मेरे हाथों कि लकीरों ने मुझे समझाया
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

______________________________________________________________________________

Afroz 'sahr'

अश्क दो याद में तेरी में बहा भी न सकूँ
ज़ख़्म वो दिल पे लगें हैं जो मिटा भी न सकूँ।

आबयारी में चमन की दे दिया ख़ूने जिगर
नाम का अपने फ़क़त गुल में खिला भी न सकूँ।

यूँ तो हर ज़ख़्म को ओढा़ दी है आँसू की रिदा
इक फ़क़त दिल की लगी है जो बुझा भी न सकूँ।

में बहुत दूर सही उनकी नज़र से लेकिन
इस क़दर दूर नहीं उनको बुला भी न सकूँ।

हाल ए दिल उन से छुपाऊँ तो छुपाऊँ कैसे
ज़ब्त नाकाम है मजबूर छुपा भी न सकूँ।

ए ख़ुदा जो भी लिखा तूने रज़ा है तेरी
ये वो कि़स्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ।

दीद का उन की ख़सारा न गवारा मुझको
हों वो जब सामने पलकें में झुका भी न सकूँ।

मेंरी हर साँस में शामिल हैं तुम्हारी यादें
में करूँ लाख जतन तुमको भुला भी न सकूँ।

वो सबब दर्द का पूछें तो बता देना सहर
ज़ख़्म कमबख़्त पुराना है बता भी न सकूँ।

___________________________________________________________________________

दिनेश कुमार

ज़ब्त कर पाऊँ न ग़म, अश्क बहा भी न सकूँ
क्या करूँ गर मैं उसे दिल से भुला भी न सकूँ

इस क़दर ख़्वाब ज़मींदोज़ हुए हैं मेरे
अपनी आँखों को नया ख़्वाब दिखा भी न सकूँ

मेरी हालत पे तरस खा के मुझे भीख न दे
ऐसा उपकार न कर जो मैं चुका भी न सकूँ

ठोकरें खा के ही चलने में मज़ा आता है

रह जो हमवार हो, मैं पाँव बढ़ा भी न सकूँ

झूट को झूट कहूँगा ही कि आईना हूँ मैं
मर ही जाऊँ जो नज़र ख़ुद से मिला भी न सकूँ

वो मेरी रूह की गहराइयों में रहता है
जानता हूँ मैं मगर ढूँढ़ के ला भी न सकूँ

बस तेरे दीद की हसरत लिये आता हूँ यहाँ
क्या हुआ बज़्म में गर कुछ मैं सुना भी न सकूँ

तेरे दर से मुझे हर बार मिली मायूसी
"ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ"

______________________________________________________________________________

शिज्जु "शकूर"

आग वो दिल में लगी है कि बुझा भी न सकूँ
ज़ब्त इक नीम की पत्ती है चबा भी न सकूँ

एक इनसाँ की ज़रूरत है फ़क़त छत-रोटी
इतना मजबूर नहीं मैं ये कमा भी न सकूँ

जब तलक साँसें ठहर जाए न, जीना होगा
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

बेबसी ने मेरे शानों को यूँ कमज़ोर किया
कि तेरी आरज़ू का बोझ उठा भी न सकूँ

इम्तिहाँ और न ले सब्र का ऐ मेरे नसीब
भूल जाने दे मुझे जिसको मैं पा भी न सकूँ

इक तरफ़ दोस्ती और एक तरफ मेरा रक़ीब
उफ! कि उठकर मैं तेरी बज़्म से जा भी न सकूँ

________________________________________________________________________________

Rajeev kumar

अपने चेहरे पे नया चेहरा लगा भी न सकूँ।
आईना देख के मैं खुद को छुपा भी न सकूँ।

ये जो किस्सा ए मुहब्बत है मिरे सीने में
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ।

चन्द टुकड़े है ये कागज के मगर जाने क्युँ
खत तेरे चाहूँ जला दूं तो जला भी न सकूँ।

जिस्म की हद से बहुत दूर इस लिये आया।
तू बुलाये तो कभी लौट के आ भी न सकूँ।

मै बहारों की हिमायत तो नहीं करता हूं ।
फिर भी चाहुंगा खिजाओं को बुला भी न सकूँ ।

चोट खा कर ये मेरा दिल भी किसी बच्चे सा।
जब भी रोये मैं इसे हस के हसा भी न सकूँ।

ये जमाना है जमाने से गिला क्या करना।
खुद से लड़ के जो अगर खुद को मिटा भी न सकूँ

_________________________________________________________________________________

Gajendra shrotriya

बाँध जो बाँधे है दुनिया ने हटा भी न सकूँ
वो नदी हूँ मैं जो सागर में समा भी न सकूँ

दिल में बैठा है वो ये बात छुपा भी न सकूँ
उसकी मौजूदगी दुनियां को दिखा भी न सकूँ

कशमकश क्या है किसी को ये बता भी न सकूँ
उसको पा भी न सकूँ और भुला भी न सकूँ

फूल प्यारे से सजा दूं आ तेरे बालों में
अर्श से चाँद सितारे तो मैं ला भी न सकूँ

शह्र में चर्चे हुए हैं मेरे ग़म के इतने
इक तबस्सुम कभी होठों पे सजा भी न सकूँ

अक्स काग़ज़ में नज़र आता है तेरा मुझको
अपने हाथों से तेरे ख़त को जला भी न सकूँ

आपसे काम निकाले की ग़रज़ है साहिब
मुठ्ठियां भींच के आस्तीन चढ़ा भी न सकूँ

लिख दिया जो भी ख़ुदा तूने वो अच्छा होगा
मन-मुआफ़िक़ तो मुकद्दर मैं लिखा भी न सकूँ

हैं बड़े बज़्म के आदाब मेरी कुव्वत से
आपके होते मैं क़द अपना बढ़ा भी न सकूँ

जीस्त में जो भी हैं किरदार निभाने हैं मुझे
ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

_____________________________________________________________________________

munish tanha

जिन्दगी दर्द से बेहाल बता भी न सकूँ
जख्म चेहरे पे लिखे साफ़ छुपा भी न सकूँ

आइना देख के मजबूर हैं दुनिया वाले
झूठ लेकिन मैं अदालत से हटा भी न सकूँ

खूबसूरत है बहुत शहर तुम्हरा लेकिन
हूक दिल से वो उठे जिसको दबा भी न सकूँ

चाक सीना देखे कोई तो समझ आए उसे
इन हसीनों की आदाएं मैं बता भी न सकूँ


कर्म जैसे हैं किए फल भी मिलेगा वैसा
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

दर्द से कर लो मुहब्बत तो मजा फिर “तन्हा”
आह जब तक न मिले खुद को सुला भी न सकूँ

_________________________________________________________________________________

मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|

Views: 1928

Reply to This

Replies to This Discussion

आदरणीय राणा प्रताप सिंह साहब, इस त्वरित संकलन एवं सम्पादन कार्य के लिए आपका ह्रदय से आभार !!

आदरणीय राणा प्रताप सिंह जी,
आपका संचालन हमेशा से ही अच्छा रहा है,
इस बार ख़ूबसूरत तरह में बहुत सारी ख़ूबसूरत ग़ज़लें पढ़ने को मिली,
आपने अपना अनमोल वक़्त देकर इसे का़मयाब बनाया इसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया, तमाम ओ बी ओ परिवार को मुशाइरे के
का़मयाबी के लिए मुबारक़बाद,,
मुहतरम जनाब राणा साहिब ,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक-87के त्वरित संकलन और कामयाब निज़ामत के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आदरणीय राणा प्रताप जी ख़ूबसूरत निज़ामत के लिए आपको ह्रदय तल से बहुत बहुत बधाई । सादर,,
जनाब राणा प्रताप सिंह जी आदाब,तरही मुशायरा अंक87के त्वरित संक्लन के लिए बधाई स्वीकार करें ।
जनाब गजेन्द्र साहिब की ग़ज़ल के नवें शैर के ऊला मिसरे को हरा रंगना चाहिए क्योंकि उसमें 'क़ूवत'शब्द ग़लत इस्तेमाल किया गया है,सही शब्द है "क़ुव्वत"देखियेगा ।

आदरणीय समर साहब क़ुव्वत सही शब्द है इसलिए मैंने संशोधन कर दिया है| 

जनाब राम अवध जी की ग़ज़ल के मतले के सानी मिसरे को भी हरा होना चाहिए,क्योंकि 'मामला'शब्द ग़लत है,सही शब्द है "मुआमला"

आदरणीय समर साहब आपने सही फरमाया है ..मिसरा लाल रंग में कर दिया है| बहुत बहुत शुक्रिया|

मेरे कहे को मान देने के लिए धन्यवाद ।

आ. राणा प्रताप सर, तरही मुशायरा अंक 87 के सफल सञ्चालन एवं त्वरित संकलन हेतु बधाई स्वीकार करें। सादर.

शुक्रिया आ. राणा प्रताप जी,
संकलन का सिलसिला आगे भी चलता रहेगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है अब.
आयोजन में कुछ ग़ज़लों पर नेटवर्क के आभाव के चलते टिप्पणियाँ रह गयी थीं ..उस कमी को अब पूरी करने का प्रयास कर रहा हूँ.. 
.
आ.लक्ष्मण धामी जीयास अच्छा है ..आपसे और अच्छे अशआर की उम्मीद है ..
आ.   राजेश दीदी की ग़ज़ल हमेशा की तरह ख़ूब है ..
.
चैन खोया है मेरा आज खतों ने तेरे 
मैं जिन्हें रख न सकूँ पास जला भी न सकूँ ..इस शेर को बदलकर
.
चैन लूटा  है मेरा फिर से खतों ने उनके 
पास रख भी न सकूँ और जला भी न सकूँ ..ऐसा करने से शेर और रवां लगेगा ..

...
आ.   दिनेश कुमार जी की ग़ज़ल भी उम्दा है ..
.

वो मेरी रूह की गहराइयों में रहता है... ये मिसरा यों गिराने के चलते अटक रहा है 
...
आ. शिज्जू भाई की ग़ज़ल भी उनके रँग में रँगी हुई है ..
.

जब तलक साँसें ठहर जाए न, जीना होगा,,ये मिसरा थोडा खटक रहा है ... कर्म के नकार का स्वर अंत में आने से वाक्य गड़बड़ा रहा है ..
.
जब तलक साँसें चलेंगी मुझे जीना होगा ऐसा करने से शायद बात बनें...
...
आ. राजीव कुमार जी का मंच पर स्वागत है ..आशा है आप आगे भी नियमित   आते रहेंगे..
..
आ.    गजेन्द्र श्रोत्रिय जी को पहली बार पढकर अच्छा लगा 
.


दिल में बैठा है वो ये बात छुपा भी न सकूँ..इस मिसरे में है वो ये साथ आने से गैय्यता घट रही है..आशा है आप चिन्तन करेंगे 
.
कशमकश क्या है किसी को ये बता भी न सकूँ
उसको पा भी न सकूँ और भुला भी न सकूँ.. इस शेर पर ढेरों दाद क़ुबूल करें 
...
आ.   मुसीश जी,
चाक सीना देखे कोई तो समझ आए उसे.. को ....चाक सीना कोई देखे तो समझ आए उसे करने से लाल रंग से पीछा छुड़ाया जा सकता है..
अच्छी ग़ज़ल है ..बधाई 
साथ  ही मेरी ग़ज़ल पर की गयी सभी टिप्पणियों के लिए सबका आभार ..
सीखने सिखाने का सिलसिला यूँ ही चलता रहे ..

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर updated their profile
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पांडेय सर, बहुत दिनों बाद छंद का प्रयास किया है। आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकर खुशी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार "
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service