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ज़िद कर रही हूँ ...

ज़िद कर रही हूँ ...

जानती हूँ
हर नसीब में
हर शै
नहीं हुआ करती
फिर भी
मैं असंभव को
संभव करने की
ज़िद कर रही हूँ
कुछ और नहीं
बस
उम्र के हर पड़ाव पर
सिर्फ
प्यार करने की
ज़िद कर रही हूँ

मैं नहीं जानती
सात जन्म क्या होते हैं
पर उम्र की उस अवस्था पर
जब सब ख्वाहिशें
दम तोड़ देती हैं
चाहती हूँ
तब भी तुम
किसी मठ के
सन्यासी सी एकाग्रता लिए
मुझ से प्यार करने चले आना
प्यार में
काल कहाँ बाधा होता है
देहाकर्षण तो क्षणिक होता है
मगर फिर भी
यौवन की उत्कंठाओं को सहेजे
मैं
देह की दहलीज़ के 
श्वास द्वार पर
अंतिम दस्तक के बावज़ूद
लोचन तट पर रुकी
प्रतीक्षा बूँद में
स्वयं को जीवित रखे
असंभव को
संभव करने की
जिद्दोज़हद कर रही हूँ
तुमसे
और कुछ नहीं
सिर्फ
प्यार करने की
ज़िद कर रही हूँ

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on September 25, 2017 at 1:38pm

आद.  Sweet Panday जी आदाब, प्रस्तुति आपकी आत्मीय प्रशंसा की आभारी है। 

Comment by Sweet Panday on September 23, 2017 at 7:19pm
बधाई स्वीकार करे सर, बहुत सुन्दर रचना है
Comment by Sushil Sarna on September 23, 2017 at 7:17pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब , सृजन के भावों अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on September 23, 2017 at 7:17pm

आदरणीय मो.आरिफ साहिब आदाब, प्रस्तुति आपकी आत्मीय प्रशंसा की आभारी है।

Comment by Samar kabeer on September 21, 2017 at 5:49pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत भावपूर्ण कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mohammed Arif on September 21, 2017 at 5:19pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, प्यार के अहसास की मधुर महक बिखेरी है आपने । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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