2122, 212, 2122, 212
 
 उससे मुझको सच मे कोई शिकायत भी नही,
 हाँ मगर दिल से मिलूँ अब ये चाहत भी नही।
 
 इस बुरुत पर ताव देने का मतलब क्या हुआ,
 गर बचाई जा सके खुद की इज्जत भी नही।
 
 अब अँधेरा है तो इसका गिला भी क्या करें,
 ठीक तो अब रौशनी की तबीअत भी नही।
 
 आती हैं आकर चली जाती हैं यूँ ही मगर,
 इन घटाओं मे कोई अब इक़ामत भी नही।
 
 जुल्म सहने का हुआ ये भी इक अन्जाम है,
 अब नजर आँखों में आती बगावत भी नही।
 
 मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अच्छी गज़ल के लिए बधाई।
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय हेमंत कुमार जी
बढ़िया ग़ज़ल है आदरणीय हेमंत जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
अच्छी ग़ज़ल हुई है आ. हेमंत जी बहुत बहुत बधाई, शेष आ. रवि शुक्ल जी बता ही चुके हैं
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