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ओबीओ लाईव लघुकथा गोष्ठी अंक-25 में स्वीकृत लघुकथाएँ

(1). योगराज प्रभाकर
सावन का अँधा

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युवा कवयित्री कनिका को अचानक सामने पाकर साठ से अधिक वसंत देख चुके सत्यार्थी जी एकदम चौंक उठेI लगभग एक वर्ष के पश्चात आज वे एक पार्टी में अप्रत्याशित रूप से एक दूसरे के सामने थेI सत्यार्थी जी कनिका की जलती हुई आँखों का सामना नहीं कर पा रहे थे, उनका दमकता हुआ चेहरा एकदम पीला पड़ने लगा थाI उन्होंने आँखें बचाने की भरपूर चेष्टा की, किन्तु कनिका तेज़ी से उनकी तरफ बढ़ी और लगभग उन्हें घेरते हुए बोली:
"कहिए सत्यार्थी जी, कैसे हो?"
"जी..जी.. मैं ठीक हूँ कनिका जी, आप कैसी ..?" सकपकाते हुए सत्यार्थी जी ने उत्तर दियाI
"मेरी छोड़ो, बस आप एक बात का जवाब दोI" कनिका यह अवसर चूकना नहीं चाहती थीI
"देखिए कनिका जी! उस दिन जो कुछ हुआ, मैं उसके लिए आपसे माफ़ी मांगता हूँI” मिमियाते हुए सत्यार्थी जी ने कहाI
"माफ़ी वाफी कुछ नहीं, आज सबके सामने तुम्हारी औकात का भांडा फोड़कर रहूंगीI" क्रोध का ज्वालामुखी फूटने को तैयार थाI
"देखिए आप एक समझदार लड़की हैं..." धीमे स्वर में वे बोलेI
"लड़की? उस दिन फोन पर क्या कह रहे थे? आधी रात को कैसे कैसे मेसेज दे रहे थे?" कनिका की ऑंखें क्रोध से लाल हो रही थींI
"कनिका जी प्लीज़...."
"याद है क्या कह रहे थे? सर्दी का मौसम है और पत्नी भी एक हफ्ते के लिए बाहर गई है मुशायरे के लिएI" कनिका गुस्से में उबल पड़ीI
"प्लीज़ कनिका जी....ज़रा धीरे बोलिए लोग सुन लेंगे तो क्या कहेंगे?" सत्यार्थी जी गिड़गिड़ाएI
"ये बात तब याद नहीं आई थी जब मुझे कह रहे थे ठंडे बिस्तर पर अकेले नींद नहीं आती, आ जाओ कनिका?" कनिका का स्वर लगातार उग्र होता जा रहा थाI
"मैं तब शायद नशे में था, प्लीज़ मुझे माफ़ कर दोI"
“मैं तुम्हारी बेटी की उम्र की हूँ, शर्म नहीं आई थी आधी रात को ऐसे अश्लील सन्देश भेजते हुए?"
“मैं उस दिन के लिए बहुत शर्मिन्दा हूँ..." सत्यार्थी जी की झुकी हुई गर्दन उठने का नाम नहीं ले रही थीI
"तुम्हारी पत्नी मेरी गुरु माँ हैं, पता है न तुम्हें? तो आखिर तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई थी मुझे से ऐसे बात करने की?"
“जी...वोI" सत्यार्थी जी की नजरें अब भी धरती में गड़ी हुई थीं.
“क्या तुम्हें ये लगा था कि मै चरित्रहीन हूँ?”
“नहीं वो बात नहीं..."
“तो फिर तुम शालीनता की हर सीमा क्यों लांघ गए थे?"
ज़मीन पर नज़रे गड़ाए खड़े सत्यार्थी जी की ज़ुबान पर अंतत: सच आ ही गया, गले का थूक निकलते हुए वे बोले:
"दरअसल, आपके खुले स्वभाव से मुझे लगा था कि शायद आप भी मेरी बीवी जैसी ही हैंI“
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(2). श्री रवि प्रभाकर जी 
विजेता

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‘बाल-दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित इस कम्पीटीशन में हमारा आज का सबसे पहला इंवेट है नर्सरी के बच्चों की लैमन-स्पून रेस।’ ग्राउंड में टंगे बैनर, जिस पर खेलते-कूदते बच्चों के चित्रों के साथ सुनहरे अक्षरों में ‘किंडरगार्टन क्लासेज़ स्पोटर्स कम्पीटिशन’ लिखा हुआ था, को रीझ से निहारते सहसा कानों से टकराई इस उद्घोषणा ने उसकी तंद्रा तोड़ दी।
जैसे ही रेस शुरू हुई चम्मच पर रखे नींबू को बच्चे मुँह में दबाए बड़ी सावधानी से लेकर आगे बढ़ने लगे और अभिभावक अपने-अपने बच्चों का हौंसला बढ़ाने लगे। पर एक बच्चा उल्ट ही दिशा में चलने लगा तो उसकी मम्मी ज़ोर से चिल्लाई ‘ बेटे अंजली ! इस तरफ नहीं, उस तरफ जाओ।’
‘हाँ- हाँ अंजली ! इधर नहीं, उधर जाओ । ’ जिधर दूसरे बच्चे बढ़ रहे थे उस ओर अंगुली से इशारा करता वो भी चिल्लाया।
अंजली के पापा ने अजीब सी निगाहों से उसकी ओर घूरा।
‘शाबास वंश ! शाबास ! बस पहुंचने ही वाले हो, ध्यान से और आराम से चलो।’ फिनिशिंग प्वांइट की ओर तेज़ी से बढ़ते अपने बेटे को देख वंश के मां-बाप उत्साह से लबरेज़ थे।
‘वैल्डन वंश !’ जैसे ही वंश ने फिनशिंग प्वाइंट को छुआ तो वो ज़ोर से तालियां बजाते हुए खुशी से चिल्लाया
‘ये कौन है?’ आंखों के इशारो से वंश के पापा ने पत्नी से पूछा
"पता नहीं!’ मुंह बिदका कर इशारों में ही वंश की मम्मी ने जवाब दिया
इतने में ही के.जी. कक्षा की सैक रेस की उद्घोषणा हो गई और वह उस ओर बढ़ गया।
पैरों में बोरी डाल कर भागते-गिरते बच्चों को देख बाकी अभिभावकों जैसे वो भी बच्चों को उनके नाम से पुकारता हुआ उनका हौंसला बढ़ाने में लग गया।
‘कोई बात नहीं मनन ! उठो और दुबारा कोशिश करो ! शाबास !’
‘पीछे मुड़कर मत देखो गीतू बेटे ! तेज़ और तेज़।’
अपने बच्चों का नाम लेकर पुकारने पर कई माँ-बाप सवालिया नज़रों से उसे देख रहे थे। किन्तु वह सबसे बेखबर भागते-कूदते बच्चों के साथ बच्चा बन उनको लगातार उत्साहित किए जा रहा था ।
‘वो कौन हैं?’ एक अभिभावक ने उसकी ओर इशारा करते हुए पास बैठे टीचर से पूछा ।
‘वो! वो तो अवी के पापा हैं !’
‘अवी कौन?’
‘अवी यू.के.जी. का स्टुडेंट है, बहुत होनहार है बेचारा ! वोऽऽ बैठा है...।’
कई गर्दनें टीचर की अंगुली वाली दिशा में घूम गईं।
ग्राउंड के दूसरी ओर अपनी व्हील-चेयर पर बैठा अवी भी तालियां बजाकर अपने साथीओं का हौंसला बढ़ा रहा था।
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(3). महंगी धूप  

‘कम से कम अपने झुमके ही रख लेती’ सुनार की दुकान से बाहर निकल कर राकेश स्‍कूटर को किक मारते हुए शारदा से बोला
‘कोई बात नहीं जी ! ऐसे वक्‍त के लिए ही तो गहने बनवाए जाते हैं। वैसे भी कौन सी उम्र रही है गहने पहनने की, भगवान की दया से अब तो बच्‍चे बराबर के हो गए हैं । अपना  घर बन जाए अब तो !’ पर्स को कस कर पकड़ स्‍कूटर पर बैठती हुई शारदा ने कहा
अब तो हो ही जाएगा । पी.एफ., बेटियों की आरडी और अब ये गहने भी ...! नीतू और मीतू की शादी कैसे करेंगे?’ ठंडी सांस भरता राकेश धीरे से बोला
‘आप चिंता मत करो जी ! अभी उम्र ही क्‍या है बेटियों की ! नीतू अगस्‍त में पंद्रहवें में लगेगी और मीतू दिसंबर में सतारवें में । उनकी शादी तक तो भगवान की कृपा से रोहन इंजीनियरिंग पूरी कर अच्‍छी नौकरी लग चुका होगा और आपकी रिटायरमेंट को तो अभी 11 साल बाकी हैं।’ शारदा अपना हाथ राकेश के कंधे पर रखते हुए आशा भरी आवाज़ में बोली
‘हां...। खैर ! अब तो घर में दम सा घुटने लगा है। तीन ही तो कमरे है और साथ में भाई साहिब की फैमिली। मैं तो किसी दफ्तर वाले को घर तक नहीं बुला सकता।’
‘सही कह रहे हो। दम तो वाकई घुटने लगा है । एक तो घर गली के आखिरी कोने में है जहां न धूप न हवा । कभी छत्‍त पर चले ही जाओ तो जेठानी जी के माथे की त्‍यौरियां और उनके कमेंट्स...उफ्फ... बर्दाश्‍त के बाहर हो जाते हैं। मैं तो तरस गईं हूं खुली धूप में बैठने को।’ राकेश ने मानो उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।
‘आइए राकेश बाबू ! आपका ही इंतज़ार था ।’ निर्माणाधीन हाऊसिंग कालोनी के गेट पर मज़दूरों को काम समझाता हुआ मैनेजर राकेश को आता देख गर्मजोशी से उनकी ओर लपका। ‘स्‍कूटर उधर खड़ा कर दीजिए। बस कुछ ही दिनों की बात है पार्किंग भी तैयार हो जाएगी।’
‘ओए ! ये सामान हटाओ यहां से’  मज़दूर को इशारा करते हुए मैनेजर बोला ।
‘आइए ऑफिस में बैठ कर फारमेलिटीज़ कंप्‍लीट कर लेते हैं... पेमैंट लाए हैं ना...?’
‘हां हां पेमेंट तो लाया हूं। एक नज़़र फ्लैट तो दिखा दें इसीलिए तो आज श्रीमति जी को साथ लाया हूं।’
‘क्‍यों नहीं... क्यों नहीं ! आइए उधर से चलते हैं । भाभी जी ! ज़रा ध्‍यान से चढ़िएगा ! बस कुछ ही दिनों में रेलिंग भी लग जाएगी।’ सीढ़ीया चढ़ते हुए मैनेजर बेफ्रिकी से बोला
‘फ्लैट्स तो सारे बुक हो चुके हैं जी पर आपके जी.एम. साहिब के कहने पर यह फ्लैट आपके लिए रिज़र्व रख दिया था। आप इत्‍मिनान से देख कर तसल्‍ली कर लें, मैं ठंडा मंगवाता हूँ । ’ दो सीढ़ीया चढ़ कर आए राकेश और शारदा को हांफता देख मैनेजर बोला
‘राकेश! इधर देखें। ये किचन थोड़ा छोटा लग रहा है। ये बेडरूम... इसमें डबल बैड लगने के बाद जगह ही कहां बचेगी और ये आस पास की बिल्‍्डिंगज़ तो लॉबी की सारी धूप और हवा रोक रही हैं।’ मैनेजर के जाते ही थकान भूल कर फ्लैट का मुआयना करती हुई शारदा अधीरता से बोली
‘लीजिए ठंडा पीजिए !’ खाली फ्लैट में मैनेजर की गूंजती आवाज़ से दोनों एकदम चौंक गए
‘भाई साहिब! टैरेस...।’ गिलास पकड़ते हुए शारदा ने पूछा
‘भाभी जी ! टैरेस तो कॉमन है सभी फ्लैट्स के लिए।’
‘सभी के लिए कॉमन ! ये तो वही बात हो गई ! राकेश धीरे से शारदा के कान में फुसफुसाया
‘पार्क के पीछे वाली कालोनी हमारी ही कंपनी बना रही है। वहां कारपेट एरिया तो इससे अधिक है ही साथ ही
एंटरी और टैरेस भी इंडीपैंडेंट है । आप वहां देख लीजिए।’ स्‍थिती भांपते हुए मैनेजर ने तीर छोड़ा
‘उसका प्राइस?’ शारदा ने संकुचाते हुए पूछा
‘अजी प्राइस तो बहुत कम है जी। कंपनी तो आपकी सेवा के लिए ही है। बस इस फ्लैट से सिर्फ आठ लाख ही अधिक देने होंगे।’ खीसें निपोरता मैनेजर बोला
‘मैनेजर सॉबऽऽ! गुप्‍ता जी आपको नीचे आफिस में बुला रहे हैं।’ नीचे से कुछ सामान उठाकर आ रहे एक मज़दूर ने मैनेजर को कहा
‘मैं नीचे आफिस में ही हूं, जो भी आपकी सलाह हो बता दीजिएगा।’ बाहर निकलते हुए मैनेजर बोला
‘आठ लाख ! इतना तो हो ही नहीं पाएगा। तो अब क्‍या करें।’ राकेश की आवाज़ मानो बहुत गहरे कुएं से आ रही थी
‘फ्लैट बेशक छोटा है पर अपने घर से छोटा तो नहीं है ना फिर छत्‍त पर जाने से किसी के साथ कोई चखचख भी नहीं। यहां तुम अपने किसी भी दफ्तर वाले को बड़े आराम से बुला सकते हो।’
‘पर तुम्‍हारी वो खुली धूप में बैठने की इच्‍छा...।’
‘अजी मेरा तो आधा दिन स्‍कूल में ही निकल जाता है । उसके बाद सेंटर पर टयूशन । नीतू , मीतू भी मेरे साथ चार बजे के बाद ही घर आती हैं और तुम शाम को छ बजे के बाद। तो समय ही कहां मिलता है धूप में बैठने का।’
दोनों धीरे-धीरे सीढ़ीयां उतर आफिस की तरफ बढ़ने लगे।
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(4). श्री ब्रजेन्द्र नाथ मिश्रा जी
पासबुक
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बिनोद की तबियत इधर बार - बार खराब हो जा रही थी। अपने बूढ़े दादा जी का वही सहारा था। दादा जी उसे बार - बार कहते, "किसी अच्छे डॉक्टर से पूरा चेक अप क्यों नहीं करवा लेता?"
बिनोद दादा जी को समझा नहीं पाता कि उसकी बीमारी लाइलाज है।
आज दादा जी ने जबरदस्ती उसे अपने पासबुक थमाते हुए कहा था, " इसमें ढाई लाख रुपये है। मैंने इसमें अपना हस्ताक्षर किया हुआ चेक का एक पृष्ठ रख दिया है। जाओ और ठीक से अपना इलाज करवाकर ही लौटना।"
बिनोद आज सचमुच अपना इलाज कराने उस पासबुक के साथ गया था। दादा जी अधिक चल फिर नहीं सकते थे। इसलिए वे बिनोद के साथ नहीं जा सके थे।
दो दिनों के बाद बिनोद का दोस्त धीरु पासबुक और खाली पृष्ठ वाले चेक तथा बिनोद के हाथों की लिखी हुई चिट्ठी के साथ लौटा था।
यह सबकुछ उसने दादाजी के हाथों में थमा दिया।
"क्यों यह सब लौटा रहे हो? क्या बिनोद ठीक हो गया। उसने चिठ्ठी में क्या लिखा है। जरा पढ़ो तो।"
धीरु बिनोद का लिखा हुआ पत्र पढने लगा, "दादाजी, आप चिंता न करें। मैं बहुत दूर जा रहा हूँ। वहां इस पैसे की जरूरत नहीं पड़ेगी, इसीलिए लौटा रहा हूँ।  आपको इसकी अधिक जरूरत पड़ेगी।"
इसतरह बिनोद ने दादाजी को बाहर हाथ पसारने से बचा लिया।
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(5). भूख

बूढ़ा मगरमच्छ शरीर से शिथिल हो गया था।  हालांकि  बाकी मछलियां उसके पास नहीं आती थी। लेकिन छोटी मछलियां उसके आसपास ही तैरती हुई खेलती रहती। वह भूखा रहने पर भी छोटी मछलियों की ओर ताकता भी नहीं था।
एक दिन वह बूढ़ा मगरमच्छ  छोटी मछली के पीछे ही लग गया। छोटी मछली पानी में तीव्र गति से भागी जा रही थी। जब भी वह पीछे मुड़कर देखती, मगरमच्छ उसे नजदीक आता हुआ दीखता।
आखिर जब वह तैरते - तैरते थक गई, तो उसने ठान लिया कि अब वह नहीं भागेगी। उसने ठहर कर मगरमच्छ का सामना करते हुए कहा, "तुम मुझे खाना चाहते हो न। आओ, खा लो।"
मगरमच्छ नजदीक आकर बोला, "मैं तो तुझसे यह कहना चाह रहा था कि सारी छोटी मछलियों को कह दो कि मेरे नजदीक नहीं रहे। क्या पता भूख के मारे कब मेरा दिमाग और ईमान बदल जाये?"
और छोटी मछली मगरमच्छ का यह संदेश अन्य मछलियों को सुनाने चल दी।
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(6). श्री मोहम्मद आरिफ जी
दामन

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एक दिन पेड़ और धरती के बीच विवाद छिड़ गया । दोनों अपनी-अपनी उपयोगिता साबित करने लगे । पेड़ ने कहा-"मैं तेरी छाती पर सीना तान के खड़ा हूँ । मेरे ऊपर फल-फूल लगते हैं । मेरी सुंदरता को देखकर लोग मेरी तरफ खींचे चलें आते हैं । भीषण गरमी में छाँव और प्राण वायु देता हूँ ।"
इतना सबकुछ सुन लेने के बाद भी धरती उत्तेजित या क्रोधित नहीं हुईं । बड़ी सहज अंदाज़ में बोली-"भैया पेड़! तुम वाकई अपने पास फल-फूल, छाँव, सुंदरता, आकर्षण रखते हो मगर यह क्यों भूल जाते हो यदि मैं तुम्हारा दामन छोड़ दूँ तो तुम पलभर में धराशायी होकर गिर जाओगे । तुम्हें खड़ा तो मैं ही रखती हूँ ।"
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(7). सीरत

मिसेस सरिता वर्मा ने वैशाली कपूर को पार्टी में पहचान ही लिया जो सुश्री से मिसेस वैशाली कपूर अभी -अभी बनीं है ।
"वाव! यू आर लुकिंग सो गुड । "
"थैंक्स !"
"शादी के बाद ये हमारी पहली मुलाकात है ।"
"जी हाँ !"
"वो कहाँ है ?"
"वो रहे ।" मिसेस वैशाली ने इशारा करके बताया ।
मिसेस वर्मा ने वैशाली के पति को देखा और कसैला मुँह बनाकर बोली-"मुझे कुछ जमे नहीं । साँवले भी हैं । आखिर तुझे इनमें क्या दिखा ?"
"सिर्फ सीरत ।"
अब मिसेस वर्मा खुद..............।
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(8). श्री सुनील वर्मा जी
दख़ल


दूर से आती अज़ान की आवाज सुनकर उसने सिर के नीचे से तकिया निकालकर अपने कानों पर रख लिया| देर रात तक जागने के बाद सुबह आँख लगते ही कोई शोर करे यह उसे बिल्कुल पसंद न था| थोड़ा समय बीता ही था कि दोबारा उसकी उनींदी सुबह में ट्रेन के ईंजन का शोर घुल गया |
करवट बदलकर उसने तकिये पर दबाव बनाकर अपने कानों को फिर से ढँक लिया| अपेक्षित सुकून न मिलने पर वह उकताकर सिरदर्द की शिकायत के साथ बिस्तर से उठा| कॉफी का कप लेकर बालकनी में आया तो वहाँ मौजूद उसकी पत्नी ने उसका चेहरा पढते हुए सवाल किया "क्या बात है..आज भी नींद पूरी नही हुई क्या?"
उसने गरदन झटकते हुए कहा "पता नही लोग कब समझेगें ? दूसरों की असुविधा से इन्हे कोई फर्क ही नही पड़ता|"
पत्नी ने उसके माथे को छूकर देखा फिर उसे कुछ समझाते हुए कहा "कभी कभी जब परिस्थितियों को बदलना आसान नही होता, तब उनसे तालमेल कर लेना चाहिए|"
"क्यों कर लेना चाहिए तालमेल? मैं तो कहता हूँ, हमें इसकी शिकायत करनी चाहिए| जब हम अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हैं तो चुप क्यूँ रहें?"
"और जब सामने वाला कोई अपना ही हो और उससे कहना आसान न हो तो..!" पत्नी ने अपनी भवें ऊँची करते हुए पूछा
"मतलब...!" कहते हुए उसके माथे पर सवाली सलवटें ऊभर आयी|
पत्नी ने कुछ देर पहले अपने कानों से निकालकर वहीं पास रखे दो रूई के फाहों की तरफ ईशारा किया तो उसे याद हो आया कल रात वह अपने खर्राटों की दवा लेना भूल गया था|
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(9). सुश्री प्रतिभा पाण्डे जी
‘ताल नैनीताल


रसोई में आटा गूंधते सविता के हाथ , टी वी में आते गाने को सुन ठिठक गए I
“ आवाज  तेज कर दीजिये ,हम सुन रहे हैं यहीं से I”
“हम आवाज देते हैं तो कहती हो काम में सुन नहीं पाई I” पति ने तंज करते हुए आवाज तेज कर दी I
सातवीं या आठवीं में रही होगी सविता ,जब उसने कटी पतंग पिक्चर देखी थी I नैनीताल ताल में नाव में गाना गाते नायक नायिका बस गए थे कच्चे मन में, और साथ में बस गया था शादी के बाद पति के साथ नैनीताल जाने का सपना भी  I
शादी के बाद तीन चार साल तक तो  वो  पति को  अपने सपने की याद दिलाती रही थी I फिर  धीरे धीरे सास ससुर की बीमारियाँ ,बच्चों की पढाई और शादी ब्याह निबाहते ,कब सपना पीछे छूट गया पता ही नहीं पड़ा I पर ये गाना सुनते ही कहीं नीचे दबा ताल नैनीताल ,आज भी ऊपर आ जाता था I
“आवाज बहुत तेज हो रही है पापा I” बाहर से अन्दर घुसते ही बेटे ने रिमोट हाथ में ले लिया I
“कम मत करना , ख़ास गाना है तेरी माँ का I सुन रही है अन्दर से I”
“ओ होss अच्छा I  पापा सोच रहा हूँ  इस बार रश्मि को कहीं हिल स्टेशन घुमा लाऊँ I शादी के बाद भी जा नहीं पाए थे I”
“ बिलकुल जाओ I दोनों कमाते हो, दौड़ भाग करते हो , कभी कभी छुट्टी तो बनती है I”
“  आप भी इस साल रिटायर हो रहे हैं I आप दोनों के लिए भी  मुख्य मंत्री तीर्थ यात्रा योजना का फॉर्म भर दूँ? “
“ वो क्या है भई?”
“ आपके हम उम्र लोग ही होंगे ट्रेन में I सारे तीर्थ घुमाएगी , खाना पीना सब उनका I साथ में डॉक्टर भी होता है और .I.”
“ कहीं नहीं जाना मुझे तीर्थ वीर्थ यात्रा I “  सविता के यूँ अचानक पास आ खड़े होने से बेटा अचकचा गया I “ अब तो बेटा, सीधे मटके में भरकर ही ले जाना हरिद्वार I”
तेजी से रसोई में लौट आई सविता I आँखों की बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी I उस बारिश से मन में सहेजे  ताल नैनीताल में ऐसी बाढ़ आई कि नायक नायिका की कश्ती डूब कर कहीं गुम गई I
“ बिलकुल पागल हो  तुम  “   पीछे आ खड़े पति ने मजबूती से उसके कन्धों को पकड़ उसका चेहरा अपनी तरफ कर लिया I “ मुझ पर भरोसा नहीं रहा कि तुम्हारी इच्छा पूरी कर पाऊँगा ?”
उसे याद नहीं आ रहा था कि पति की बाहों में इतनी उष्णता ,उसने आज से पहले कब महसूस की थी I बाढ़ थम गई थी I नायक नायिका की कश्ती  हौले हौले फिर तैरने लगी थी ताल नैनीताल के ऊपर I
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(10). अनुत्तरित प्रश्न

कमरे की  दीवारों पर हर तरफ तस्वीरें थीं I ज़्यादातर तस्वीरें ,जस्सी के बाउजी और दादाजी की फौजी वर्दी में उनके फ़ौज की नौकरी के समय की थीं I एक तस्वीर में ,दादा बेटा और पोता , तीनों वर्दी में में खड़े मुस्कुरा रहे थे I डबडबाई आँखों से वो तस्वीर में खड़े जस्सी पर हाथ फेरने लगा I
“बहुत प्यार था ना तुम दोनों में ?” जस्सी के बाउजी पीछे खड़े थे I
“ जी ..जी..बाउजी I” उसका  मन हुआ बाउजी के गले लग कर रो ले , पर खुद को संभाल लिया उसने I
“ जस्सी भी जब  छुट्टियों में आता था, बस तेरी ही बातें  किया करता था I कहता था तुझे हम सब से मिलवाने घर लाएगा I भाग्य का खेल देख , तू उसे घर लेकर आया वो भी डब्बे में सुलाकर I” फफक उठे वो I
“ आप टूट गए तो दादाजी को कौन संभालेगा ?”
“ तुझसे एक विनती है बेटा”  बाउजी ने  उसका हाथ पकड़ लिया I
‘हाँ बाउजी ?”
‘दादाजी को ये मत बताना कि..कि., तू .तू  समझ रहा है ना ? मत बताना कि जस्सी पत्थरबाजों के पत्थरों से घायल होकर मरा  है , नहीं तो.. I” बच्चों की तरह बिलख रहे थे वो I
“ नहीं ,बिलकुल नहीं I” उसे याद आ रहा था ,अस्पताल ले जाते हुए घायल जस्सी की आँखों में भी  ये ही विनती थी I
“ नब्बे साल का बूढा मेरा फौजी बाप ,ये ही समझ रहा है कि उसका पोता दुश्मन से लड़ते हुए शहीद हुआ है I  पोते की याद में वो रो तो रहा है ,पर आँखों में गर्व भी है I उसे पता पड़ गया तो ..तो बता क्या कहूँगा मै उससे ?”
बिलखते बाउजी से होती हुई उसकी नज़र दीवार पर लगे जस्सी की आँखों से मिल गई I वो भी कह रहा था  “संभाल लेना यारI”
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(11).  डॉ.विजय शंकर जी
नर्क

नेता जी आज अपने चुनाव क्षेत्र की मलिन बस्ती में आये थे। पिछले बीस वर्षों से वे यहीं से चुनाव जीतते आ रहे हैं। इस बार हवा बदली हुई है , इसलिए कुछ अधिक संयत थे। घोर गरीबी झेल रहे , असहनीय दरिद्रता में रहने को लाचार अपने मतदाताओं को सम्बोधित करते हुए बहुत ही भावुक हो गए, बोले , " मैं ने कितने समय से तुम लोगों की रात और दिन सेवा की है , मैं तुम्हारी दशा देखता हूँ तो मुझे रोना आता है , रातों को तुम्हारे लिये उठ-उठ बैठता हूँ , नींद नहीं आती है , सोचता हूँ कि और क्या करूँ तुम्हारे लिए। सब कुछ तो तुम्हें तुम्हारे घर पर सस्ता - सस्ता मिल जाता है। अब अगर उस पर भी तुम लोग मुझे वोट नहीं दोगे तो तुम सब नर्क में जाओगे ,नरक में , हाँ ! समझे। "
दूर, पीछे बैठा दीनू , जो चालीस की उम्र में साठ का दिखने लगा था , धीरे-धीरे बुदबुदा रहा था , " कोई अउनौ नरक है का , ई के अलावा। "
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(12). श्री तसदीक़ अहमद खान जी
दहशत से आज़ादी (मुक्ति )


ज़ालिम सिंह की गुंडा गर्दी से परेशान होकर एक आम सभा बुलाई जिसमें एस .पी ., कलेक्टर , और विधायक जी को आमंत्रित किया गया |सभा की कार्यवाही शुरू होते ही एक आगे से बोला ,
"नगर में दहशत का माहौल है ,पुलिस हाथ पर हाथ रख कर बैठी है ,ज़ालिम सिंह की गिरफ्तारी क्यूँ नहीं होती ?"
एस .पी .ने जवाब दिया "हम किसके खिलाफ कार्यवाही करें ,उसके खिलाफ कोई शिकायत ही दर्ज नहीं "
भीड़ से एक और आवाज़ आई ,"कलेक्टर साहिब तो नगर के मालिक हैं ,वो भी कुछ नहीं कर रहे हैं "
कलेक्टर साहिब फ़ौरन बोल पड़े ,"अख़बारों में उसके खिलाफ कुछ छपता , कोई शिकायत करता नहीं ,उसपर कार्यवाही आख़िर कैसे हो "
पीछे से एक पत्रकार ने कहा ,"जान ख़तरे में डाल कर ज़ालिम के खिलाफ अख़बार में छापने की ज़ुरअत कौन कर सकता है "
सामने बैठे एक बुज़ुर्ग ने कहा "विधायक जी आप ही कुछ कीजिए "
विधायक जी तुरन्त बोल पड़े ,"वो चुनाव में मेरे बहुत काम आता है ,मैं खुल्लम खुल्ला उसके खिलाफ नहीं जा सकता ?"
सभा में सब अपना बचाव करते नज़र आ रहे थे ,ज़ालिम से मुक्ति की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी
अचानक भीड़ में पीछे शोर सुनाई दिया ,एक लड़का हांफता और भागता हुआ एस .पी .के पास आकर कहने लगा ,"कल ज़ालिम जिस लड़की को उठा ले गया था ,उसके भाई सुल्तान ने चौराहे से गुज़रते हुए ज़ालिम सिंह के गोली मार दी
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(13). लघु कथा--सेहत
कानों में अज़ान की आवाज़ पड़ते ही मालती ने रोज़ की तरह पति मोहन को उठाते हुए कहा "क्या टहलने नहीं चलना है,आज डॉक्टर के पास भी चलना है"
मोहन पत्नि के साथ टहलने निकल जाते हैं ,रास्ते में मालती पति से कहती है "मेरे पिता जी कहा करते थे ,जल्दी सोना और जल्दी उठना सेहत के लिए अच्छा होता है ,अज़ान के साथ उठना मेरी बचपन की आदत है "
मोहन ने जवाब में कहा "मुझे तो पिता जी उठाया करते थे,में नींद का कच्चा हूँ"
टहलने के बाद घर आकर मोहन पत्नि को लेकर डॉक्टर के पास रवाना हो जाते हैं ,वहां डॉक्टर साहिब एक मरीज़ से बोल रहे थे "तुम्हारी बीमारी कुछ नहीं है ,रात को जागना बंद करो,सवेरे जल्दी उठ कर टहलो और पूरी नींद लो "
मोहन का नंबर आने पर डॉक्टर साहिब ने चेक करने के बाद कहा"मुबारक हो ,आपका शुगर लेवल और कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल में है -
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(14). श्री प्रदीप नील वसिष्ठ जी
कुर्ते की जेब

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पिछले तीन सालों में ऐसी अनहोनी तो कभी नहीं हुई थी । राम दुलारे जी ने आँखें मल कर फिर देखा, ए सी सचमुच ही बंद था । बाथ रूम की तरफ बढे तो अंधेरे में मेज से टकरा गए। भद्दी गाली, जो किसी तरह रोक रखी थी , बाथ रूम में जाते ही निकल गई क्योंकि नल में पानी ही नहीं था। पी ए को हड़काने के लिए फोन उठाया तो फोन डेड मिला । पर्दा हटा कर झांका तो लैंप -पोस्ट के नीचे खड़ा रहने वाला वर्दीधारी संतरी भी गायब दिखा।
"रामू , ओ रामू के बच्चे “ वह दहाड़े तो हांफता-कांपता नौकर भाग कर आया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।
नेता जी फिर दहाड़े थे “ मैं पूछता हूं यह सब क्या हो रहा है ? सभी चीजें रातों-रात गायब कैसे हो गई ?“
रामू हकलाने लगा ” जा जा जान की अमान पाऊं तो बताऊं मालिक । “
राम दुलारे जी का धैर्य बहुत पहले ही जवाब दे चुका था, आग्नेय नेत्रों से घूरते हुए कहा था ” जल्दी बको। “
रामू फिर हकलाने लगा “ र र रात आप तो नशे में सोए रह गए और..."
" और क्या ?"
" और विरोधी पार्टी वाले आपका लंबी जेब वाला कुर्ता चुरा ले गए “
“ हरामखोर “ राम दुलारे जी फनफनाए “ मेरे कुर्ते और बिजली-पानी का क्या संबंध ?“
” भूल गए हुज़ूर ?“ रामू ने भोलेपन से आंखें मिचमिचाई थीं ” ये सारे विभाग आपके कुर्ते की जेब में ही तो होते थे। "
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(15). सुश्री अपराजिता जी
परमेश्वर


मेन गेट खोलने के लिए मोहन जी के बढ़े हाथ अचानक ही ठिठक गए । घर से आती खिलखिलाहट की आवाज पर उनका चेहरा यूं विकृत हो उठा जैसे कानो मे तेजाब डल गया हो । अंदर आकर लोहे के गेट को इतनी जोर से बंद किया कि उसकी आवाज , घर के सहज वातावरण को चीरती निःस्तब्ध खामोशी फैला गयी ।
तभी दरवाजा खुला ... वसुधा के पीछे दोनों बच्चे प्रकट हुए । मोहन जी को सहमी नजरों से देखते दोनों , बाय कह बाहर निकल गये ।
घर मे भुनभुनाते हुए घुसते मोहन जी की अस्पष्ट आवाज और समानों की उठा पटक को नजरंदाज कर वसुधा ने चाय का पानी गैस पर रख दिया । पानी मे चायपत्ती डालते ही सफेद झक पानी कसैला सा होने लगा ....एकटक उसे उबलता देख वसुधा का मन भी यादो की खलबलाहट से भर उठा ....
पानी जैसी ही तो थी वो भी...निश्छल और सहज ...शादी के बाद उसकी हर इच्छा और काबिलियत पर मोहन जी पति कम परमेश्वर बन उसे दबाते कुंठित करते चले गये । बच्चों के साथ भी पिता से अधिक घर के मालिक होने का दंभ । माहौल कसैला होता देख वो अब यदा - कदा विरोध करने लगी ... अधिकतर तीनों उनकी उपस्थिति मे तटस्थ ही रहते ।
" आज बीरबल की चाय बन जाएगी ? " कर्कश आवाज ने उसे यादो से बाहर खींच लिया । चौंक कर उसने उबल कर काली पड़ गयी चाय मे शक्कर और दूध मिलाया , तुरंत ही चाय का रंग निखर गया, जिसे देख बरबस ही वो मुस्करा उठी।
तभी पीछे से आकर तेज आवाज मे चिल्लाते मोहन जी बरस पड़े " मै क्या परग्रही हूँ या पागल ? मुझे देखते ही तुम तीनों को साँप सूंघ जाता है ...मुझे जानबूझकर नीचा दिखाते हो ? सब समझता हूँ मै ! "
" काश आप समझते ...खैर ! ऐसा कुछ नहीं ...वैसे भी परमेश्वर और मालिक के साथ सहजता और बराबरी ..? " मोहन जी की आँखों मे झांकती वसुधा ने कहा , जहाँ अकेलेपन और नकारे जाने का दंश साफ उभर आया था ।
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(16). डॉ टी आर सुकुल जी
जानकार दुर्लभ


‘‘ अरे ठाकुर ! घर में ही घुसे रहते हो, रिटायर होने के बाद, एक बार भी नहीं दिखे , क्या बात है ?‘‘
‘‘ अरे, आओ पंडितजी ! क्या बताएं सभी दुर्भाग्य है ‘‘
‘‘ भाग्य को दोष देते हो ठाकुर ! वह तो अपने ही पिछले संस्कारों का क्षयकाल होता है । ‘‘
‘‘ पता नहीं क्या सच है, मित्रों, रिश्तेदारों से मिलने में अपार ग्लानी होती है, देशविदेश में जाकर खूब इलाज कराया, पानी की तरह पैसा बहाया लेकिन मर्ज घटने के स्थान पर बढ़ता ही जा रहा है। ये देखो .. .. ‘‘
‘‘ अच्छा ! तो यह बात है, ये तो सचमुच घातक चर्मरोग है । कोई बात नहीं जब संस्कार उदय हुआ है तो उसका अन्त भी होगा, हमें अपने प्रयास जारी रखना चाहिए‘‘
‘‘ शायद मरने के बाद ही संभव हो ‘‘
‘‘ लेकिन, आपने देशी जड़ीबूटी का उपयोग करके देखा कि नहीं ?‘‘
‘‘ अरे महाराज ! सब प्रकार से थक चुका हॅूं ‘‘
‘‘ अच्छा , वो जो हलके पीले फूलोंवाला छोटासा पौधा वहाॅं घूरे पर लगा है उसकी जड़, पत्ते, तना, फल, फूल सबको पीसकर लगा कर देखो ‘‘
‘‘ अरे पंडितजी ! क्यों हंसी उड़ाते हो, चलो यह भी कर लेते हैं । ए धन्ना ! जा वह पौधा उखाड़ ला जो घूरे पर लगा है ‘‘
‘‘ ऐसे नहीं ठाकुर साब ! गहराई से खोदना पड़ेगा उसकी जड़ें बहुत मजबूत और गहरी होती हैं। इस रोग की यही दवा है ।
‘‘ हः हः हः हः .... ‘‘
‘‘हंस रहे हो! कोई भी अक्षर ऐसा नहीं जो मंत्र न हो, कोई भी वनस्पति ऐसी नहीं जो औाषधि न हो और कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसमें योग्यता न हो , कमी रहती है तो केवल परख करने वाले की । जैसा बताया है वैसे लगाओ कुछ माह में इस कष्ट से मुक्त हो जाओगे। ‘‘
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(17). सुश्री नीता कसार जी
 उपहार

"बहुत निपुण है लड़की,होशियार भी है ।बिल्कुल हमारे सूरज के लिये जैसी हम चाहते है , वैसी ही है ।" बड़े ही ख़ुशनुमा मूड में किटी पार्टी में श्रीमती अरोड़ा सब को बता रही थी ।
"तो आपने परंपरागत तरीके से उसका इंटरव्यू लिया है क्या ?श्रीमती अरोड़ा जी ।"
उनकी मुँहलगी सखी मीता ने ने पूछ लिया ।
"इंटरव्यू नही कहते , उसे जांच पडताल कहते है मीता । हमने सब पता कर लिया ।"
भरपूर आत्मविश्वास से श्रीमती अरोड़ा का चेहरा बेहद दमक रहा था ।
"क्या बहुत कुछ मिलने वाला है बहू के अलावा वहाँ से ?"कहते हुये सब सखियाँ उन्है घेर कर बैठ गई ।
"सब कुछ तो है हमारे पास ।बस बेटी की कमी रही जीवन में ,जो अब बहू के रूप में घर आ रही है ।हमने बेटे को सुसंस्कार देने में कोई कमी नही की है । हमारा आचरण ही उसके वैवाहिक जीवन के लिये उदाहरण बनेगा । वह अपनी पत्नी और परिवार को ख़ुश रखेगा । हमें पूरा भरोसा है ।"
कहते हुये श्रीमती अरोड़ा का चेहरा खिल गया।
"हमें बेटे के लिये जीवनसाथी चाहिये,कमाई का ज़रिया नही ।"
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(18). मुफ़्तख़ोरी

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"अम्माँ मैंने आपको फिर से सामान की सूची भेजी है ये पूरा सामान लेती आना ।" समिधा ने माँ को फ़ोन पर,हिदायत देते हुये कहा ।
"याद है बेटा ,तेरे पापा को बोलती हूँ,केंटीन से सामान जल्द मँगवा लें ,अब वे भूलने लगे है।तेरी पसंद का सब सामान हम लेते आयेंगे ।" माँ के मन में यही प्रश्न घुमड़ रहा था,आखिर बेटी बड़ी कब होगी ।
"हाँ अम्माँ पापा सेना से सेवानिवृत हुये तो क्या हुआ,केंटीन का फ़ायदा मुझे भी मिलना चाहिये । बाजार कीमत से कितना सस्ता सामान मिलता है वहाँ ।"
बड़ी बेशर्मी से कहते हुये समिधा ने झट से फ़ोन बंद कर दिया ।
माँ ने बेटी के फ़ोन बंद करने पर लंबी साँस ली ,एेसी लड़की को कौन सिखायें,जिसे देश से कोई सरोकार नही ।
युवा बेटा किशोर कालेज के लिये निकलने वाला था, अपने आप को रोक ना पाया । "माँ केंटीन में सस्ता सामान सैनिकों के परिवार के लिये आता है ।जो सरहद पर जाकर जान की परवाह नही करते।" बेटे के प्रश्न ने समिधा को निरूत्तर कर दिया ।
"माँ सैंनिक देश के लिये जान पर खेलते है,सस्ते सामान या परिवार को फ़ायदा पहुँचाने के लिये नही ।"
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(19). सुश्री सीमा सिंह जी
देवी


बधाई हो दीपक भाई!” डॉ आनंद ने चैम्बर में प्रवेश किया तो दीपक और माधवी का ध्यान भंग हुआ।
“कैसी बधाई, यार?” डॉ दीपक ने अनमने स्वर में पूछा।
“अरे! तुझे और माधवी भाभी को यू. ऐस. में स्कॉलर-शिप मिली है।" आनन्द के स्वर में उल्लास था।
"हाँ, मिली तो है कल ही लेटर आया है।" दीपक ने बुझे ढंग से बताया।
"विदेश में विशेषज्ञता कोर्स, और वो भी पति-पत्नी दोनों को! बधाई की ही नहीं, ये तो दावत की बात है ।" आनन्द का उल्लास कम नहीं हुआ था।
“तू जानता तो है, यार! शैली को छोड़कर हम कहीं नही जा सकते, और न ही उसे साथ ले जा ही सकते हैं।” डॉ दीपक ने हताशा से भर कर कहा।
“तुझे और भाभी को कितना समझाया था, यार!" अब आनन्द उखड़ गया।
"पर, तब हम भी कहाँ जानते थे भैया?" माधवी ने सफाई देते हुए कहा।
"फिर भी, दया धर्म की भी एक सीमा होती हैं। बच्चा पाने के और भी बहुत से तरीके थे। कूड़े के ढेर में पड़ा न जाने किसका बच्चा था, उठा लाये घर में।" आनंद गुस्से से भरा बोलता चला जा रहा थाI
“अब हमको पता था कि ये बड़ी होकर मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग होगी?” दीपक के दिल का दर्द उभर आयाI
“ज़्यादा मत सोचो, ऐसे मौके बार बार नही आतेI” डॉ आनंद ने कुर्सी पर बैठे दीपक के कंधे थपथपाते हुए कहाI
“ठीक है आनंद भैया! कुछ सोचते हैं।” माधवी ने सर हिला कर स्वीकृति दी तो दीपक के चेहरे पर चमक आ गई।
“तो शांताबाई को हाँ बोल दूँ क्या? वो तो कई बार कह चुकी है कि आश्रम वाले महंत जी शैली बेबी को देवी बना देंगे।”
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(20). धुंधले साये

“ओह कल याद ही नहीं रहा सिगरेट तो रात ही खत्म हो गई थी।” महेश खाली डिब्बी को मोड़कर फेंकते हुए बड़बड़ाया।
सिर खुजाते हुए इधर उधर देखा बड़ा बेटा स्कूल के लिए तैयार होकर, अपने स्कूल का काम निपटा रहा था। मझला देखते देखते नहाने घुस गया।
“ये तो आधे घंटे से पहले निकलने से रहा सुसरा लीचड़ कहीं का।”
पत्नी पर एक नजर डाली तो बिखरे बालों को समेटे बगल के पास से उधड़ी मैक्सी पहने बच्चों के खाने का डिब्बा तैयार करने में लगी थी। उसको इस समय काम बताना बर्र के छत्ते को छेड़ने जैसा था।
खुद इस हालत में नीचे उतर कर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
तभी छोटे बेटे पर जाकर निगाह ठहर गई। जो बड़े जतन से अपने टूटे खिलौने का पहिया जोड़ने में लगा था।
“मुनुआ! ओ मुनुआ! सुन बाबू एक काम कर ज़रा।”
पिता की पुकार पर बालक उठकर चला आया, सिर हिला कर काम पूछा।
“चल ज़रा भाग कर जा सामने की दुकान से मेरी सिगरेट तो ला दे, मैं अभी तक बाथरूम नहीं गया हूँ। जा दौड़ कर जा और बोल देना पैसे पिताजी देंगे।”
मुन्नू उठ कर खड़ा ही हुआ कि माँ ने पुकारा,
“पिताजी की सिगरेट लेने जा रहा है? एक चाय का पैकिट भी लेता आना पत्ती खत्म हैं।” बच्चे ने फिर से पैसे के लिए माँ की ओर देखा।
"मम्मी पैसे?"
“पैसे जब पिताजी नीचे उतरेंगे, तो दे देंगे।”
बच्चा अपनी जगह खड़ा रहा तो माँ ने पूछा:
"अब क्या है?"
"अपने लिए भी एक पैकिट सुपारी का ले लूँ?” बच्चे ने माँ से खुशामदी लहज़े में पूछा।
“हाँ ले लेना पर एक ही।”
अनुमति पाकर मुन्नू उछलता कूदता नीचे चला गया, पर महेश की आखों में ऐसे किसी मौके पर अपनी माँ से मिली वो इक्कनी नाच गई जिस से खरीद कर उसने पहली बार सिगरेट पी थी। तेज़ी से सीढ़ियों से उतरते हुए बच्चे को पीछे से पुकारा,
“तू रहने से मुनुआ, मैं खुद जाकर ले आता हूँI”
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(21). सुश्री शिखा तिवारी जी
*एनकाउंटर*


"दीवान जी आज सुबह ही प्रेस कांफ्रेंस होनी है, तैयारी तो पूरी है न?"
"जी जनाब" दीवान जी ने कहा।
"अरे वो मृतक की फाईलों को भी ऊपर कर दें भाई।"
इंस्पेक्टर ने कुछ याद करने की कोशिश करते हुए कहा।
"वो जो डकैती का केस था!? जब मैं एस टी एफ में नया नया आया था, और उसने...।"
"जी जनाब उसने केस बन्द करने के एवज में आपको रुपए नहीं दिए थे। पर जनाब...केस तो बन्द...?!" दीवान जी कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में बोले। "उस समय ही तो आपने वो जमीन खरीदी थी उस पाॅश एरिया में...।
"ठीक है ठीक है आप अपना काम करें।" इंस्पेक्टर ने पटाक्षेप करते हुए कहा।
"वैसे मृतक तो अब अपने बीवी बच्चों के साथ छोटी सी गुमटी चलाकर गुजारा कर रहा था।" दीवान जी ने फाईल लाकर इंस्पेक्टर की मेज पर रखी।
"उसके नाम से अंतिम केस भी दस साल पहले की है, ये देखिए।"
"अरे दीवान जी आप काहे अपना दिमाग खराब कर रहे हैं।" इंस्पेक्टर ने पान की पीक को पीकर बचे हुए ज़हर से जुगाली करते हुए कहा।
"ताजा अपराधी की पकड़ कहाँ कहाँ तक होती है आप नहीं जानते?"
फिर रहस्यमयी मुस्कान के साथ एक आँख दबाते हुए कहा। "आप तो बस मुँह बन्द रखिएगा, मेरे साथ आपका भी कैरेक्टर रोल चमका ही क्या समझे!।"
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(22). नई रोशनी

आज फिर शकुंतला बेमन से खाने पर पति का साथ दे रही थी।
शकुंतला ने सजल नेत्रों से देवेन्द्र की ओर देखा।
"तुम बगैर खाए सो नहीं पाती हो, आज खा लो..., कल से...।"
शकुंतला खोए स्वर में बोली। " क्या एक बार और फोन करें?"
"कर लो चाहो तो पर अब कोई फायदा नहीं।"
शकुंतला ने फोन उठाया बेटे का नंबर मिलाया। एक बार रिंग होने के बाद ही फोन कट गया। शकुंतला का चेहरा पीड़ा पी जाने की कोशिश में विकृत हो चला था। तब तक देवेन्द्र ने दो गिलास दूध निकाल दिया था।
"मुझे पता था कि उसने हमारा नंबर रिजेक्ट लिस्ट में डाल रखा है।"
शकुंतला ने मेज से उठाकर पति को दूध का गिलास थमाया। और अपना गिलास भी एक साँस में खाली कर दिया।
"यदि इस फेफड़ों के इस कैंसर से मैं अब तक मर जाता तो तू कैसे जीती?" आमतौर पर ऐसे सवाल पर झगड़ने वाली शकुन्तला ने कुछ कहे बगैर बस पति के बालों को सहलाया। "यदि मैं मर जाती तो?" उसने शकुंतला का हाथ पकड़ लिया और कहा।
"तेरी तेरहवीं करके मैं भी आ जाता पूरियाँ खिलाने तुझे।" अंधेरे में भी उसकी आँखें पुरानी चुहल से चमक रही थीं।
"हमारे बेटे का नाम वारिस की जगह से हटाकर...?" शकुन्तला के मन में अब भी कुछ खटक रहा था।
"मैं अपनी मेहनत की कमाई को एक पाई भी उसे नहीं दूंगा।" देवेन्द्र कुछ उत्तेजित हो गए थे। लेकिन अगले ही पल संयमित होते बोले।
"मैंने हमारे बाद सबकुछ वृद्धाश्रम को मिले ऐसा इन्तज़ाम कर दिया है।"
"तुमने दूध में दवा मिलाई थी न?"
उसकी बात अनसुनी करते हुए देवेन्द्र बोला।
"जब तक तुम जिन्दा हो तब तक सब तुम्हारा है उसके बाद...।" शकुंतला चौंकी "मैं जिन्दा हूँ? मतलब!?"
"मुझसे नहीं हुआ शकुन! मैंने तेरा ज़हर वाला दूध बदल दिया। और बिना ज़हर का दूध तुझे दिया।"
इतना कहते हुए देवेन्द्र की आँखों के सोते फूट गए थे।
"मैंने भी यही किया।" ये कहकर पति के गले लगकर शकुंतला भी रोने लगी।
"शकुन हम वहीं से फिर शुरू करते हैं जब सिर्फ हम दोनों ही थे।"
शकुन्तला देवेन्द्र के भीतर एक नए देवेन्द्र का संचार होते महसूस कर रही थी।
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(23). सुश्री जानकी वाही जी
असली विकास


" नेता जी जय ,नेता जी की जय." के नारों के साथ गाँव के घर -घर में घूमते, फूल मालाओं से दोहरी हो गई गर्दन को सम्भालते विनम्रता की मूर्ति बने पूर्व मंत्री जी अपनी जीत के प्रति सौ प्रतिशत आश्वस्त थे। होते भी क्यों नहीं , उन्होनें इस बाढ़ग्रस्त इलाके में काफी विकास के काम जो करवाये हैं।
दरवाज़े -दरवाज़े घूमते उस झोपड़ीनुमा घर में पहुंचे तो आँगन में खाट पर लेते बुजुर्ग से हाथ जोड़ बोले -
"राम -राम काका ! " प्रत्युत्तर में बूढ़े ने मुँह फेर लिया और पीठ कर लेट गया।ये देख नेता जी के खास चरण चन्द्र ने स्थिति को भांपा और गला खंखार कर बोला -
" काका ! बड़े भाग हैं तुम्हारे, नेता जी खुद चलकर दरवाज़े पर आये हैं ।"
ये सुनकर भी बूढ़ा पीठ किये लेटा रहा,तो नेता जी की बैचेनी बढ़ी और उनके चेहरे पर से कई रंग गुजर गए।
" काका! का हुआ ? कौनो बात पे नाराज़ हो ?...इतना तो मालूम है ना कि हमारे एम.एल.ए. साहब ने इस इलाके में नदी पर पुल बनवाया कच्चे रास्ते पक्के करवाये,स्कूल और अस्पताल खुलवाये । गाँव का कितना तो विकास किये हैं ,करता है कोई इतना काम ?" चरण चन्द्र की आवाज़ में हलकी झुंझलाहट थी।
चारपाई पर लेटा ठठरी सा आदमी अबकि उठा और असमय ही चेहरे पर भर झुर्रियों और रोज की भूख मिटाने की जुगत से परेशान भाव लिए बोला -
" जे विकास का हमरा पेट भरे है? खेती का कर्जा न चुका पाने से ना नींद आवे ना चैन,परिवार का पेट कइसन पालें येई सोच -सोच जिनगी बीत रहे हमार जब पूरा गाँव बाढ़ मा डूब रहील अऊर गाँव वाला एक -एक दाना को तरसै तो दूसरी पार्टी वाला गाँव मा बीस किलो अनाज़ बाँट रहील। उ एक -एक दाना का हमका अब क़र्ज़ चुकाना है । हमरी ओर से आप लोगन को राम -राम "।
इतना बोल वह फिर मुँह फेर लिया ।
उसके मुँह पर नज़र पड़ते ही नेता जी अचकचाये से देखते रह गए -
"अरे ! ये आदमी तो उम्र से बूढ़ा नहीं है पर लगता है अभावों ने उसे असमय बूढ़ा कर दिया ।माथे पर बल डाले अब वे सोच रहे हैं कि असली विकास का ..,का मतलब हुआ ?"
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(24). भ्रमित मानसिकता

दोनों सायों के पीछे भाग रहे हैं।भले ही दोनों के हाथों में कोई हथियार नहीं दिख रहा पर वे, मन में छुपे विभिन्न रसों से बने अनदेखे खतरनाक हथियारों से लैस हैं।
अँधेरे में अचानक ठोकर लगकर दोनों जमीन पर गिर पड़े।हांफते हुये उठकर देखा एक लहूलुहान साया जमीन पर पड़ा है।
" गौर से नीचे देखकर एक बोला -
"यह हमारे काम की नहीं है,पहले से ही मर रही है ?" उसकी आँखों से घृणा की लपटें निकल रही थी।
" हाँ , तेज़ भागो दूसरों को पकड़ते हैं!"
दूसरे ने अपने अपने कदमों में तेज़ी लाते हुए कहा।
" तुम दोनों कहाँ भागे जा रहे हो ? क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता ,चारों ओर कितनी अफरा- तफरी मची है लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं। नफ़रत का दरिया बह रहा है। मेरी मदद करो ?"
नीचे गिरे साये ने क्षीण आवाज़ में गुहार लगायी।"
" हा ..हा..हा.. ये एक और आयी हैं हमे समझाने वाली, खुद का होश नहीं।"
पहले ने जाते हुए नफ़रत से उगली।
" भाई तुम मेरी मदद करो।" कराहते हुए उसने दूसरे से विनती की।
" समय नहीं हमारे पास।" कहते हुए दूसरा भी बदहवास सा आगे भाग चला।
कुछ कदम आगे जाकर दूसरा पलट कर आया और बोला -
" तुम हो कौन ?"
" मैं ,हर इंसान के अंदर रहने वाली मानवता हूँ, और तुम कौन हो ? जो आगे भाग गया वो कौन है ?"
" जो आगे भाग गया वह हर इंसान के अंदर की कुंठित घृणा है,, और मैं हूँ इंसान की भ्रमित मानसिकता।तुम्हारी बात से लग रहा हम एक ही डाल के पंछी हैं। "
"तुम पलट के आये लगता है तुम्हारे अंदर अच्छाई बची है। तुम इस तांडव को खत्म सकते हो।"
" नहीं मैं इस झमेले में नहीं पड़ता। आजकल मैं घृणा का दोस्त हूँ ,उसने मुझे समझाया कि हर इंसान रूप-रंग,जाति और धर्म से अलग होता है इसलिये हम दूसरी तरह के इंसान का सफ़ाया कर रहे हैं।"
" दूसरी तरह के इंसान ? देखो , तुम्हारे माथे से ख़ून बह रहा है और तुम्हारे हाथों में किसी अजनबी का ख़ून लगा है ,क्या इनके रंग में अंतर है।?"
" नहीं ... " कुछ पल की ख़ामोशी के बाद वह पागलों की तरह अपने हाथों को झटकने लगा ।
" तो ये भाग -दौड़ किस लिए ?"
"ओह ! अब तुम मुझे असमंजस में डाल रही हो ! समझ नहीं पा रहा हूँ कि किधर जाऊं। दूसरा कुछ पल ठहर कर बोला, मुझे लगता है अभी तुम्हें बचाना ज्यादा ज़रूरी है। "
भ्रमित मानसिकता ने सिर झटका उसे लगा मानों उसके सिर से मनों टन बोझ उतर गया हो।उसने मानवता को सहारा देकर उठाया और दूर दिख रही सुबह की लालिमा की ओर बढ़ चला।
" देखो , हर अँधेरे के बाद सुबह ज़रूर आती है " मानवता ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
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(25). सुश्री कल्पना भट्ट जी
"दाता
"

चिलचिलाती धूप में काम करते हुए पसीने से तरबतर रामू की हालत देखकर उसके भाई में श्यामू ने कहा:
"भाई धुप बहुत तेज़ है, आओ कुछ देर उस बरगद के नीचे विश्राम कर ले।" श्यामू ने बरगद की और इशारा करते हुए जवाब दिया।
"हाँ भाई ठीक कहते हो। इसके नीचे छांव भी है और ठंडक भी, यही तो इस पेड़ की विशेषता है।"
"पुराने ज़माने में तो ऋषि -मुनि इसके नीचे बैठकर तपस्या भी करते थे। शायद इसिलिये इसे बरगद दादा कहकर बुलाते हैं । " बरगद के नीचे बैठते हुए दोनों ने उसकी तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए।
"हाँ सुना हैं, बरगद के नीचे हवा भी शुद्ध होती हैं।" श्यामू भी अपना ज्ञान बांटने लगा।
"और इन बड़े बड़े पेड़ो की वज़ह से ही कुदरत की कहर से बचा जा सकता है ।"
"ठीक कहा भैया तुमने, अब देखो तो इसके आस पास कितनी ठंडक रहती है ।“
अपनी प्रशंसा सुन बरगद भी ख़ुशी से झूम उठा। तेज हवाओं ने भी उसका साथ देकर उसे और उत्साहित कर दिया। उसने अपने आस पास खड़े अन्य पेड़ों की तरफ देखा, तो उन सब ने सर झुककर बरगद को प्रणाम कियाI बरगद को अपना कद कई गुणा बड़ा महसूस हुआI सभी उसका जयघोष कर रहे थे कि तभी उससे लिपटी कोमल लताओं ने रुंधे स्वर में कहा:
“सबको जीवन देने वाला बरगद दादा! तुम हमारे हिस्से की धूप और पानी छीनकर हमारी हत्या क्यों करते हो?”
बरगद निरुत्तर था, उसे अब अपना कद बहुत बौना लग रहा था।
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(26). श्री समर कबीर जी
पत्थर की लकीर

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“अल्लाह अपने हर बन्दे को भूखा उठाता ज़रूर है, मगर भूखा सुलाता नहींI”
मौलवी साहिब की तक़रीर का ये जुमला बार बार राशिद के कानों में गूँज रहा थाI
“हुँह! मैं आज रात खाना ही नहीं खाऊँगा, देखता हूँ अल्लाह मुझे कैसे खिलाता है? मैं अगर घर जाऊँगा तभी तो मुझे कोई खाना खाने पर मजबूर करेगा न?” वह बुदबुदाया और अचानक
उसके क़दम बस्ती के क़रीब के जंगल की तरफ़ मुड़ गएI जंगल में सन्नाटा छाया हुआ थाI थोड़ी दूर खड़े एक विशाल पेड़ को देखते ही उसके चेहरे पर चमक आ गईI वह फिर बुदबुदाया:
“इसी दरख़्त पर चढ़ कर बैठ जाता हूँ, और कल सुबह ही नीचे उतरूँगाI देखता हूँ यहाँ मुझे कौन खिला सकता हैI”
वह अभी उस पेड़ की तरफ बढ़ा ही था कि दूसरी तरफ से आती आवाजें सुन कर ठिठक गयाI
"ये लड्डू किसने लूटे"? एक कड़क आवाज़ आईI
“सरदार! बहुत अच्छी सुगन्ध आ रही थी इन में से, और भूख भी बहुत लगी थीI इसलिये मैंने लूट के माल में रख लिए थेI”
"अबे बेवकूफ़! इसमें कोई चाल भी हो सकती है, अगर इसमें कोई ज़हरीली दवा मिली हुई हो तो हो जाएगा न सबका काम तमाम?”
राशिद को समझने में देर न लगी कि यह मशहूर डाकुओं का टोला है, उसने दबे पाँव लौटने की कोशिश की, मगर तभी टार्च की तेज़ रौशनी ने उसकी आँखें चौंधिया दीं.
"सरदार ये एक पुलिस का आदमी यहाँ छुपा बैठा हैI" टॉर्च वाला चिल्लायाI
“नहीं नहीं मैं पुलिस का आदमी नहीं हूँ, मेरा यकीन कीजिएI” अपने आस पास तनी बंदूकें देखकर राशिद की घिग्घी बंद गईI
सरदार ने उसके चेहरे की तरफ देखा और एक साथी से कहा:
"ये लड्डू इसे खिलाओ, अभी सब पता चल जाएगा कि ये सच कहा रहा है या झूठI"
“नहीं नहीं, मैं किसी भी क़ीमत पर ये लड्डू नहीं खाऊँगा"।
सरदार ने बन्दूक की नाली उसकी गर्दन से सटाकर कहा:
"अगर तूने लड्डू नहीं खाये तो गोली मार दूँगाI"
उसे लड्डू खाते देख डाकुओं के चेहरों पर चमक आ रही थी, मगर राशिद के दिमाग़ में मौलवी साहिब के कहे हुए अल्फ़ाज़ बड़ी शिद्दत से गूँज रहे थे:
“अल्लाह अपने हर बन्दे को भूखा उठाता ज़रूर है, मगर भूखा सुलाता नहींI”
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(27). श्री गणेश बागी जी
इंसानियत

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असमय मृत अपने जवान बेटे का अंतिम संस्कार करने हेतु गंगुआ शमशान घाट पर एक तरफ बैठा था और दूसरी तरफ शहर के नामी सेठ के वृद्ध पिता के दाह संस्कार की तैयारी चल रही थी. डोम राजा मुखाग्नि देने हेतु सेठ से ५१ हजार दक्षिणा की मांग कर रहे थे.इधर गंगुआ का कलेजा यह सब देख सुन कर बैठा जा रहा था कि वह बेटे का दाह संस्कार कैसे कर पायेगाI खैर जैसे तैसे बात 31 हजार दक्षिणा पर बन गयी. अगले दाह संस्कार पर भी डोम राजा बीस हज़ार रुपया लेकर माना.  
अब बारी गंगुआ की थी, दाह संस्कार की तैयारी होने लगी, गंगुआ मन ही मन भयभीत हो रहा था, उसके पास तो कुल जमा बामुश्किल तीन चार सौ रुपये ही है कैसे वो डोम राजा को दक्षिणा दे पायेगा.
डोम राजा सभी संस्कार कराते जा रहे थे, बगैर दक्षिणा मांगे मुखाग्नि भी दे दी. गंगुआ से रहा नहीं गया और डरते डरते पूछ ही लिया:
“डोम राजा आपकी दक्षिणा......?”
“जो समझ आये दे देना यजमान”
“पर...मेरे पास तो कुल जमा यही ......” 3-4 मैले कुचैले नोट उसके आगे करते हुए गंगुआ ने कहाI
“कोई बात नहीं, आप बस १०० रूपया दे दीजियेI”
अविश्वास भरी आँखों से गंगुआ ने उसकी तरफ देखा तो डोम राजा ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा:
“हम डोम ही सही, मगर इंसान इंसान में फर्क जानते हैं यजमान.”
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(28). बाज़ार

“पापा शाम को तैयार रहिएगा, हम लोग शोपिंग के लिए चलेंगे”
बहू यह कहते हुए पति के साथ ऑफिस के लिए निकल गयी थी.
सिन्हा जी को गाँव से आये तक़रीबन तीन महीने हो गये थे, घर में बंद-बंद उनका दम घुटने लगा था, करे भी तो क्या करें सत्तर की उम्र और अस्वस्थता के कारण अकेले कही आने जाने में असमर्थ थे. कई बार बेटा-बहू से मार्निंग वाक पर साथ ले चलने को कहते भी थे किन्तु बेटा-बहू उनकी एक न सुनते और उन्हें अकेला छोड़ स्वयं डॉगी को साथ लेकर चले जाते.
बाबूजी आज खुश थे और जल्दी-जल्दी तैयार हो रहे थे, बहू-बेटा भी ऑफिस से आकर शोपिंग के लिए तैयार हो गए.
“पापा, आप तैयार हो गए न ? चलिए जल्दी कीजिये.... और हाँ आप अपना आधार कार्ड रख लीजियेगा.”
“आधार कार्ड क्यों ?”
“पापा शोपिंग मॉल में अभी छूट चल रही है, जितनी उम्र उतने परसेंट की छूट ..
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(29). डाॅ सन्ध्या तिवारी जी
अनपढ़-गंवार

"नमस्ते मेमसाब ।"
"नमस्ते शीला, आ गयी? चलो सबसे पहले चाय बनाओ दो कप।"
"दो कप क्यों ? आज साब नहीं पियेंगे।"
बाई ने पूछा
"नहीं, साहब बाहर गये हैं ।"
अच्छा....ऽऽ देखा....ऽ मेमसाब, हमने आप से कई थी , कि साब की चप्पल पै चप्पल चढ़ी है वे कहीं जान वाले है ।
हो गयी न मेरी बात सच्ची।
" आंहां... ऽऽ तू तो बड़ी शगुनिया है । "
माया ने अखबार में नज़रे गड़ाये हुये हंसकर कहा
".....मेमसाब मेरी रासी में का लिक्खो है ज़रा पढ़ के सुनाय देउ।"
"शीला.... ऽऽ ,
तू न निपट अनपढ़- गंवार है।लोग चांद और मंगल पर पहुंच गये और तुझे न जाने कहां - कहां की बातें सूझती हैं। कुछ नहीं होता इन सबसे। केवल पोंगा पन्थी है यह सब। जा , जाके काम निपटा । और हां उसके बाद यह 'लाफिंग बुद्धा' इधर इस कार्नर .. रखना । विंडचाइम बेडरूम के मेन डोर पर बीचोंबीच लटकाना और हां यह बैम्बूपाॅट इन्टरेन्स में रखना ।ध्यान से।"
डिंग... ऽऽ डांग...ऽऽ. डिंग...ऽऽ डांग...ऽऽ डोर वेल ने बाहर आने वाले की उपस्थिति दर्ज करवायी।
"देख शीला दूध वाला आया होगा।"
माया ने सोफे में धंसे हुये बाई को आवाज लगाई
" मेम साब मेरे हाथ गन्दे है ,बर्तन मांज रही हूं..ऽ।"
" अच्छा रुक । दूध मैं ही ले लेती हूं, तू अपना काम कर ।"
कहती हुयी माया ने अपने रिवाउन्डिंग बालों को क्लैचर की गिरफ्त में कैद कर लिया और भगौना लेकर दूध लेने दरवाजे पर गयी।
रोज़ वाले ग्वाले की जगह आज एक काना दूध वाला सामने था ।
" तुम कौन ? " माया ने पूछा
" जी... मेमसाब , जो रोज दूध लेके आवत हैं वे हमार भैय्या है आज उनकी तवीयत खराब सो हम आये।"
" अच्छा ठीक है , दो जल्दी ।"
सुबह - सुबह काना देख मन कुछ कसैला हो गया दूध लेकर पलटी तो देखा बाई की चप्पल पर चप्पल चढ़ी है, भन्ना गया उसका दिमाग।
क्षणभर ठिठकी , फिर अगले ही पल बाई की चप्पलों को ठोकर मारकर अलग करके आकर अखबार में 'अपना" आज का राशिफल पढ़ने लगी।
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(30). श्री लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
पुत्र-मोह की ज्वाला

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“रामदीन जी, क्या हो रहा है |”
कुछ नहीं कृष्ण दास जी, लड़के को कंपनी दोगुना पॅकेज का आँफर देकर अमेरिका भेज रही है | पर मेरा दिल नहीं मानता | लड़के शैलेन्द्र का अनुरोध है कि आप और मम्मी भी साथ चलों | सेवा निवृति के बाद यहाँ कोई काम तो है नहीं |
इस पर रामदीन ने कहाँ बुरा मत मानना और न ही मै आपको डरा रहा हूँ पर हमारे पडौस की सत्य घटना बता रहा हूँ | “मेरे पडौसी का अमेरिका में मन नहीं लगा और वापस यहाँ आ गए | उनकी पत्नी पुत्र मोह में बिमार हो गयी और कुछ ही दिन में चल बसी | उनका आपकी तरह एक मात्र लड़का कंधा देने भी नहीं आ पाया |” वे आगे बोले- "जिस इकलौते लड़के को पढ़ा-लिखा कर लायक बनाया वह अगर माँ-बाप की सेवा करना तो दूर, अंत समय भी हाथ लगाने तक को भी उपलब्ध नहीं था |"
इतने में ही लड़का शैलेन्द्र आ गया और कहने लगा – “तैयारी करों पापा ! कम्पनी ने पांच वर्ष का अमेरिका में जॉब करने का बांड भरवा लिया है | पांच वर्ष नौकरी कर अच्छा पैसा इकठ्ठा कर वापस लौट आयेंगे |”
रामदीन जी कृष्णदास की बातों पर मनन करते हुए दुखी मन से अपने पुत्र शैलेन्द्र को कहाँ – “बेटा जब तू पांच वर्ष का बांड भर ही आया तो जा, हम पति-पत्नी का तो यहाँ मेरी पेंशन से ही गुजारा हो जाएगा | मै तुझे एयरपोर्ट छोड़ आता हूँ |” उनके रवाना होते ही पीछे से बेटे शैलेन्द्र की माँ बेहोश हो गई | एयरपोर्ट से लौटकर रामदीन जी ने डाक्टर को बुलाया | चिकित्सक ने जांच कर कहाँ कि इन्हें दवा से ज्यादा तनाव-मुक्त रखने की अधिक आवश्यकता है | यह सुन रामदीन जी स्वयम ही चिंतित हो इस सोच में डूब गए कि मै पत्नी को तनावमुक्त कैसे रखूँगा जो पुत्र मोह की ज्वाला में जल रही है |
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(31).बैसाखी बनाम होंसला
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"डॉ. पूजा जी से बात करनी है" !
"हां मै डॉ. पूजा बोल रही हूँ"
"डॉ. मुझे पापा जी को दिखाना है जो पाँव से चल नहीं सकते | आपके यहाँ व्हील चेयर का इंतजाम हो जायेगा ?
"हाँ, सब हो जाएगा आप ले आये"
गाडी से अपने ससुर श्री कृष्णावतार जी को उनकी बहूँ ऋतू और उनका पुत्र बसंत लेकर गये | जैसे तैसे अपने बहूँ और बेटे की मदद से श्री कृष्णावतार जी
डॉ. के कक्ष तक गये |
कृष्णावतार जी ने डॉ को बताया " डॉ साहिबा जब मै कोई 3 वर्ष का था तभी सीढियों में पाँव फिसलने से दाएं पैर में घुटने जांघ में मोच आ गई और पहलवान के इलाज के दौरान जांघ की हड्डी में मवाद के कारण हड्डी गल गयी जिसे बड़े अस्पताल के डॉ. ने काट दी तथा तीन चार साल इलाज चला पर कुछ रहत नहीं मिली | अब मेरी उम्र 70 वर्ष है | गत एक सप्ताह से चलना बिलकुल बंद हो गया |"
डॉ ने जांच कर कहा "उस समय इतना विकास नहीं हुआ था | लेकिन उसके बाद आपने ने आज से बीस प्साल पहले केलिपर बनाया होता तो ठीक रहता | आप की जांघ में हड्डी में गेप है और ये पाँव भी आठ इंच छोटा है तो अब तक सत्तर वर्ष कैसे चले | और आप काम क्या करते थे |"
"मै झुक कर एवं एडी ऊंची कर पाँव की अँगुलियों के सहारे चल रहा था | काफी मूवमेंट रहा है | कलेक्ट्रेट में लेखाकार पड़ पर था तथा समाजसेवी रहा हूँ |
"डॉ साहिबा कहने लगी "प्रधान मंत्री मोदी जी सरकार ने दिव्यांग नाम सही ही दिया है | आपको देखकर लगता है आप नहीं विकलांग तो हम है | आप इस ६५-६६ वर्षों में इतने चल चुके ये आपके अंदर होंसले को बयाँ रह है |"
वे आगे बोली "देखो इस उम्र तक शरीर में केल्शियम और विटामिन डी की कमी हो जाने से हड्डिया कमजोर होकर सिकुड़ने लगती है | ऐसे में केल्शियम के और विटामिन डी के इंजेक्शन लिखती हूँ जो लगवा ले | अब आपकी जांघ में लचक के कारण इस उम्र में अधिक कुछ नहीं हो सकता है | फिर भी ये कार्ड लीजिये और यहाँ नाप देकर लगभग 5-6 इंच ऊँचा जूता बनवा लों"
बीच में बहूँ बोली "डॉ. फिर ये चल तो पायेंगे न ?"
डॉ. "जब ये बिना सहारे इतनी उम्र तक चलते रहे है तो उम्मीद करनी चाहिए कि कुछ हड्डियों में जान आने से और ऊंचे जूते के सहारे चल पायेंगे |"
"ऐसे लोगो से तो हमारो होंसला और बढ़ता है | इन्हें बैसाखी की दरकार नहीं है |”
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(32). अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
सेल्फी से मुक्ति

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“ अंकल मुझे अगवा क्यों किए और मेरा स्मार्ट फोन कहाँ है ? ”
“ मैं अंकल नहीं यमराज हूँ ,सेल्फी लेते समय तुम गिरते ही मर गई।” चित्रगुप्त, इसके कर्मों का लेखा जोखा प्रस्तुत करें।
“ महाराज, स्वच्छंद जीवन जीने वाली रईस पिता की इस बिग़ड़ैल बेटी पर मांस मदिरा का सेवन करने, कभी नग्न कभी अर्धनग्न अवस्था में सेल्फी लेकर फेस बुक व्हाट्स एप में डालने और खतरनाक सेल्फी के कारण आत्महत्या का दोष भी लगा है। सभी अपराधों की सजा नर्कवास है, पुण्य का खाता अब तक खाली है।”
“ नर्क नहीं मैं दिल्ली जाना चाहती हूँ। मेरे बगैर मॉम डैड फ्रेंड्स प्रोफेसर पड़ोसी सभी दुखी होंगे।”
“ तुमने अल्प आयु में घोर अपराध किए इसलिए तीन वर्ष तक नर्क की यातना भोगनी होगी।”
“ क्या उसके बाद मृत्यु लोक जाऊँगी या सदा के लिए मेरी मुक्ति हो जाएगी?”
“ नर्क वास के बाद मनुष्य योनि से मुक्ति तो मिल जाएगी पर मृत्यु लोक से नहीं। बरसों निर्वस्त्र सेल्फी लेने के कारण तुम्हें पशु योनि में जन्म लेना होगा, उस योनि में वस्त्र और सेल्फी दोनों से तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी।”
“ यह अन्याय है, मुझे देखकर अच्छे अच्छों की नीयत खराब हो जाती है, अंकल कहीं आप भी.......।”
“अभद्र बालिके !! अपनी वाणी को लगाम दो। यमलोक में सिर्फ न्याय होता है, धरती की तरह अन्याय नहीं।”
चित्रगुप्त इसे शीघ्र नर्क लोक भेजने की व्यवस्था करें।
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(33). श्री तेजवीर सिंह जी
तलाक़

आज बड़ी अदालत में तलाक़ के एक अनोखे  मुक़द्दमे की ज़िरह  थी। अदालत खचाखच भरी हुई थी| इस मुक़द्दमे की खासियत  यह थी कि लड़का मुसलमान था और लड़की हिन्दू थी। मोहल्ले वालों के अनुसार यह प्रेम विवाह का मामला था| लड़का मुस्लिम धर्म के मुताबिक उसे तलाक़ दे रहा था। लेकिन लड़की का परिवार मामले को अदालत में ले पहुंचा।
माननीय ज़ज़ साहब ने लड़के से चंद सवालात किये,
"क्यों ज़नाब, आप तलाक़ क्यूं देना चाहते हो"?
"हुज़ूर, यह लड़्की मेरी ख्वाहिशों पर खरी नहीं उतरती है"।
"मगर इससे तो आपने अपनी पसंद से शादी की थी"।
"जी हुज़ूर, इसका भाई मेरा दोस्त था। मेरा इसके घर आना जाना था। यह बहुत खूबसूरत थी और घरेलू काम काज में भी अब्बल थी। खाना भी बेहद लज़ीज़ बनाती थी”।
 "इसलिये आपको इससे मोहब्बत हो गयी"।
"जी नहीं हुज़ूर, मैंने तो कभी इससे बात तक नहीं की थी| हक़ीक़त यह थी कि इसके परिवार के लोग, इसका दो बार रिश्ता, होते होते टूट जाने से दुखी थे। इसलिये मैंने हिम्मत करके मेरे दोस्त से, आगे होकर इससे शादी की इच्छा ज़ाहिर कर दी"।
"और इसके परिवार वाले तुरंत मान गये"।
"तुरंत तो नहीं, मगर थोड़ी ना नुकर के  बाद राज़ी हो गये"।
"तो अब क्या यह बच्चा पैदा करने के क़ाबिल नहीं है"।
"नहीं हुज़ूर, ऐसी कोई बात नहीं है, हमारा एक बच्चा भी है"।
"तो ज़नाब अब ऐसी क्या परेशानी पैदा हो गयी कि बात तलाक़ तक आ पहुंची"।
"हुज़ूर यह लड़की गूंगी बहरी है"।
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(34). श्री सतविन्द्र कुमार जी
फैसला

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"भाइयो!गलती दोनों ने करी थी!बहिष्कार भी दोनों का ही हुआ था।छोरा जब गाँव में आया था,तो उसके परिवार वालों ने ही उसको धमका कर खदेड़ दिया था और अपने किये के पछतावे में उसने जहर निगल लिया था।उसको बचाया किसी ने नहीं,पर उसकी मौत का तमाशा हम सबने देखा,क्यूकर तड़फ कर मरा था वो? सब जानते हैं।"
पंचायत में एक मौजिज व्यक्ति ने बात कहनी शुरु की।सब ध्यान से सुन रहे थे।उसने आगे कहा,"भाइयो!लड़की की शादी उसके घर वालों ने बाहर ही करदी,गाँव को कुछ पता नहीं।गाँव वालों को इससे कोई मतलब भी नहीं।पर अब सुनने में आया है कि वो अपने घर आने-जाने लगी है।"
"हाँ..हाँ उसको देखा है,रात में ही आती है,कभी घर से निकलती नहीं और फिर किसी रात में ही चली जाती है।कर्मसिंह की घरवाली उनके घर ही थी उस शाम मुँह अँधेरे,जब वो घर आई थी।"
एक आदमी ने तुरंत जोड़ा।
सब पंचायती लड़की के पिता की ओर देखने लगे।
जो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और नज़र झुकाकर बोला,"जी,यह बात सच है,कभी-कभी आ जाती है हमारी बेटी।"
"अरे!उस टैम तू भी था न फैसले के पक्ष में? इनका छोरा तो जहान ते गया और तू बाप-बेटी का रिश्ता निभा रहा है।"
एक व्यक्ति बीच में से उठकर चिल्लाया।
दूसरे व्यक्ति ने और समझदारी दिखाई,"भाइयो,जिसकी जान गई वो गोपाल का छोरा था।अर सब गुनहगार भी अब गोपाल के ही हैं।"
सब ने उसकी बात को जायज ठहराया।
उसने हाथ जोड़कर निवेदन किया,"भाइयो!फेर फैसला लेने का हक भी उसे ही दे देना चाहिए।"
सब एक स्वर में चिल्लाए,"हाँ,यही सही है।"
ऐसा कहते ही सबकी नजर गोपाल की तरफ मुड़ गई।
गोपाल मायूस-सा बैठा था।यह बात सुनकर सकपका गया।फिर कुछ सोचता हुआ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोलना शुरु किया,"गाँव के मौजिज लोगों,मान सम्मान के योग्य सभी मौजूद गाँव वासियो!अगर मेरी ही बिनती को फैसला मान रहे हो ,तो किरपा करके उस लड़की को अपने मायके आने-जाने दिया जाए।वह गाँव की बेटी है,उसे छुप-छुप कर घर आने की जरूरत नहीं है।कईं साल की सजा काट ली उसने अपनी गलती की।अब भी शर्म के कारण किसी को मुँह नहीं दिखाती।"
कईं पंचायती दांतों तले उँगली दबा रहे थे।
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(35). डूबते अरमान

थाने में लोगों का जमावड़ा लगा था।मामला सवेंदनशील था इसलिए स्थानीय विधायक भी वहीँ उपस्थित था।दोनों तरफ से मौजिज व्यक्ति और प्रतिनिधि भी आ गए थे।
पीड़ित पक्ष के प्रतिनिधि को बोलने का अवसर दिया गया।उसने शुरु किया,"जैसा कि सबको पता है कि हमारी बिरादरी के बच्चे की घुड़चढ़ी के दौरान इन लोगों ने आफत मचाई,मारा-मारी की।ये बड़ी जात के हैं।पर क्या हमारी बिरादरी के लोग इंसान नहीं हैं?अपनी शादी का शौक हर किसी को होता है।"
फिर उसने एक लिस्ट निकाली और कहा,"इस लिस्ट में उन सभी का नाम है,जिन्होंने उस दिन इस वारदात को अंजाम दिया।"
और सबके नाम पढ़ दिये।उपस्थित लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ,क्योंकि अधिकतर नाम उन लोगों के थे जो उस दिन गाँव में भी मौजूद नहीं थे।मामला गम्भीर हो गया ।किसी के मुँह से निकला,"चने संग घुन की पिसाई।"
थानेदार भी ताड़ गया।पर मार-पीट तो हुई ही थी ,जो गलत थी।तभी दूसरे पक्ष के प्रतिनिधि को बोलने को कहा गया।
"ये सच है कि कुछ लड़कों ने घुड़चढ़ी को रोकने की कोशिश की थी..."
"सिर्फ कोशिश.!क्या बोल रहे हो आप?"
पहले प्रतिनिधि ने तुरंत टोका।
"जी,घुड़चढ़ी को रोकने के लिए कहा गया।जब इधर के लड़कों ने मना किया तो झगड़ा बढ़ गया और मार-पीट भी हुई।कुछ-कुछ चोटें दोनों पक्षों के लड़कों को आई।पर बड़ों ने मामला सँभाल लिया था।"
"हाँ,अब सही बोले।"पहले पक्ष से एक व्यक्ति बोला।
"इनसे पूछा जाए,कि किस हक़ से ये किसी को घुड़चढ़ी करने से रोक रहे थे?" पहला प्रतिनधि भड़का।
दूसरे प्रतिंनिधि ने विनम्रता से लिस्ट में लिखे हुए निर्दोष लोगों के नाम लिए और कहा,"इनको खामखाह घसीटा जा रहा है।इनका इस घटना से कोई लेना-देना नहीं।" फिर सरपंच की ओर नीची नजर करके देखा और उधर से वांछित इशारा पा बोलना जारी रखा,"घुड़चढ़ी को रोकने में बच्चे नादानीं कर गए।ऐसा नहीं है कि उनको ही घुड़चढ़ी नहीं करने दिया गया,पूरे गाँव में घुड़चढ़ी पर पंचायत की तरफ से रोक लगाई हुई है।घुड़चढ़ी के कारण कई बार बड़े झगड़े हो जाते थे।इसी लिए ऐसा फैसला लिया गया है।जब इन लोगों को यह बात समझाने की कोशिश की गई तो ये माने नहीं,कुछ लड़कों ने इधर से गर्मी दिखाई कुछ ने उधर से और झगड़ा हो गया।"
यह सुनते ही पहला पक्ष सकते में आ गया।
एक बोला,"यह झूठ है।ऐसी किसी बात की हमें तो खबर नहीं।"
विधायक बोले,"सरपंच साहब ऐसा कोई प्रस्ताव पारित हुआ है पंचायत की ओर से?"
सरपंच ने हामी भरते हुए प्रस्ताव रजिस्टर में घटना से एक दिन पहले पारित प्रस्ताव दिखा दिया।
थानेदार ने पहले प्रतिनिधि के मार्फत प्रस्ताव सबको दिखा दिया।
जिसे देखते ही कइयों के चेहरे उतर गए।
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(36). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
प्रवृत्ति

आज पाचवीं बार विद्यालय की गिरी हुई कोट (खेल मैदान की दीवार) को दीर्धविश्रांति में वह ठीक कर रहा था. तभी साथी शिक्षक सुदेश ने पास आ कर कहा,'' सर जी ! यह सब महेश का कियाधरा है. वह स्कूल के छात्रों को आप के खिलाफ उकसा कर पत्थर की कोट गिरवा देता है. ताकि छात्र इस शार्टकट के रास्ते से मैदान में आ सकें.''
'' जी. आप ने उन्हें ऐसा करते हुए देखा है ?''
'' मैं ने तो नहीं देखा है.'' सुदेश ने कहा,'' कक्षा में छात्रों से पूछा था. वे ही बता रहे थे. महेश सर ने कहा था.''
'' अच्छाअच्छा.''कहते हुए वह पत्थर जमा कर कोट दुरूस्त करता रहा.
'' जी हां. मैं सही कह रहा हूं.'' सुदेश बोला, '' वैसे भी आप स्कूल के लिए बहुत काम करते हैं. वह आप का काम बिगाड़ देना चाहता है.ताकि आप बदनाम हो जाए. इसलिए  आप को महेश के खिलाफ एक्शन लेना चाहिए.''
'' किस बात के लिए ?''
'' वह हर बार कोट गिरवा कर शासकीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाता हैं.''
'' अच्छाअच्छा,'' उस ने जमीन से दूसरा पत्थर उठा कर कोट पर रखा, '' मैं एक्शन लूंगा, आप गवाही देंगे.''
'' हांहां, क्यों नहीं. आप प्रधानाध्यापक है. आप की तरफ तो बोलना पड़ेगा.'' कह कर सुदेश उठा,'' सर जी, मुझे बच्चों का मूल्यांकन करना है. चलता हूं. फिर जैसा आप कहेंगे वैसा करूंगा.''
'' ठीक है, .'' कह कर उस ने पत्थर उठाया और कोट पर जमा दिया.
तभी उसे याद आया. सुबह महेश कह रहा था,'' सर जी ! सुदेशजी से बच कर रहना. वो पूरा कामचोर, मक्कार व पूरा नारदमुनि है. आप को और मुझ को लड़ा सकता है.''
उस के हाथ काम करतेकरते रुक गए.
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(37). डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
चक्रव्यूह
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जिस माँ ने जन्म दिया उसकी उसे याद तक न थी . जिस दम्पति ने गोद लिया उसका लंबा साथ न मिला . जब उसे गोद लिया गया वह पांच वर्ष का था . दैवयोग से जिस माँ ने गोद लिया  पांच वर्ष बाद उसकी गोद हरी हो गयी . उसने एक बेटी को जन्म  दिया . नाम रखा- सांत्वना  जब सांत्वना पांच वर्ष की हुयी  दंपत्ति एक दुर्घटना में मारे गए. उसने सांत्वना को मेहनत से पाल पोस कर बड़ा किया .अब सांत्वना बीस की है और वह तीस का . सांत्वना ने इंटर पास कर लिया है और अब  वह महसूस करता है कि बड़ी होकर वह थोडा आत्मकेंद्रित हो गयी है और कभी-कभी वह उसे संदेह से देखती है . जब से उसने राखी बंधवाने से मना किया वह और सतर्क हो गयी है . यह सच है कि सांत्वना के नैन-नक्श उसे भाते हैं , पर भाई –बहन हैं वो , हालाँकि दोनों जानते है कि वे असल भाई-बहन नहीं हैं . उसे सांत्वना से नहीं अपने से भय लगता है . इतने पैसे भी नहीं कि सांत्वना के हाथ पीले कर उससे पीछा छुडा ले.कैसे चक्रव्यूह में फंस गया है वह .
एक दिन किचन का काम समाप्त करते हुए सांत्वना ने कहा –‘ दद्दा मेरी बात मानो , अब तुम शादी कर लो .’
‘क्यों ------?’- वह चौंक उठा –‘अचानक तुम्हे यह क्या सूझी ? दो का पेट तो मुश्किल से भर पा रहा हूँ . तीसरी आफत और मोल ले लूं ?’
‘नहीं, मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ कि इससे मुझको लेकर जो तुम्हारी चिंता है वह ख़त्म हो जायेगी ?’
‘क्या मतलब . मेरी चिंता – क्या बकवास है यह ?’- वह बौखला गया . इस वाक्य के कितने गहरे अर्थ थे . वह सकते में आ गया .
‘भाभी आ जायेगी तो मेरा भी अकेलापन दूर होगा और तुम्हारा भी .’
उसे इस वाक्य में भी गुणीभूत-व्यंग्य नजर आया . वह सहसा गंभीर हो गया .
‘सांत्वना , सच तो यह है कि हम दोनों आपस में सगे भाई –बहन नहीं हैं पर सामाजिक दृष्टि से सगे न सही पर भाई बहन तो हैं ही . स्त्री-पुरुष के बीच उम्र का अपना एक आकर्षण होता है . अक्सर लोग इन बहावों में बहते हैं .पर आज तूने अपना पक्ष रख दिया है तो पैर मैं भी पीछे नहीं हटाऊगा . बहन,  तेरी शादी पहले होगी, चाहे जैसे हो ----. अभी तू मेरी जिम्मेदारी है .’
सांत्वना का सारा बोझ मानो उतर गया. उसे लगा वह चक्रव्यूह भेदकर बाहर आ गया है  .
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(38). सुश्री राहिला आरिफ जी
ख़ुराफ़ाती


हिसाब ,किताब का समय शुरू हो चुका था। एक -एक करके सबका किया धरा सामने आने लगा।आज मुकर जाने की स्थिति किसी की भी ना थी। हर बात के सबूत और गवाह मौजूद थे ।इतने पर भी किसी के साथ नाइंसाफी ना हो ,इसलिये वे अंग जिनकी जुबान नहीं होती ,उन्हें जुबान दे दी गयी ।
"अब जिसको जो कहना है अपनी सफाई में ,वह निडर होकर कह सकता है"ज़मीन और आसमान के सबसे बड़े न्यायधीश बोले।
सबसे पहले आँख बोली, "मेरा काम सिर्फ देखना था।किसे देखूं ,किसे नहीं,क्या देखूं ,क्या नहीं इसका फैसला मेरे हांथों में कभी नहीं रहा"
"और मेरा भी काम सिर्फ सुनना था। फैसला तो आँख की तरह मेरे बस में भी कभी नहीं रहा "कान ने अपनी सफाई दी।
"हे जगन्नाथ !कुछ ऐसा ही हाल हम सब का भी है। इस बार हाथ ,पैर और पींठ एक साथ बोले"
"हम सब बेक़सूर है ...,बेकसूर हैं।"सब एक साथ दुहाई देने लगे।
हाथ ,पैर और पीठ ने तो वह जख्म भी दिखाए ,जो उन्हें किसी और की खुराफात के चलते मिले थे।
"आप सब शांत हो जाईये ।यहाँ सिर्फ न्याय होगा । किसी के भी साथ रत्ती भर नाइंसाफी नहीं होगी ।बल्कि आप सब के गुनाहगार को कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी ।" ये सुन कर सब की जान में जान आ गयी ।लेकिन
दिमाग के पसीने छूट गये।
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(39). भरोसे की भैंस

एक साल की कहकर पूरे तीन साल बाद वतन लौटे अरशद के घर पर मिलने वालों का ताँता लगा हुआ था । उससे मिलने वाले हर इन्सान के पास सवालों की लंबी फेरहिस्त थी। अतीत की बदसूरत तस्वीर को याद करके वह उन सवालों के जबाब देते हुए बीच बीच में रो पड़ता था|
खुशनसीब था जो किसी की मेहरबानी और रहमदिली की वजह से वापस आ गया ।वरना वहाँ फंसा हर शख्स इतना खुश नसीब नहीं था कि उन ज़ालिम शेखों के चंगुल से आज़ाद हो सके।
"बस बेटा! इसलिए ही कहता था जल्दी और आसानी के चक्कर में रिस्क मत लो।"
"पर चचा!दिन-रात हाड़ तोड़ मेहनत के बाद जो यहाँ मिलता था ,वह वहां चंद घंटो की कमाई थी। इसलिए बड़ी नौकरी और जल्दी पैसा कमाने के चक्कर में कुछ समझ ही नहीं पाया।"
" लेकिन तुझे तो बढ़िया नौकरी मिली थी ना फिर ऐसा हाल?"
" काहे की बढ़िया नौकरी ,सब धोखा था। ओहदा, सिर्फ क़ागजों पर था।और इन्हीं झूठे सच्चे कागजों की वजह से फंस के रह गया था।" कहते हुए उसके चेहरे पर गहरी मायूसी छा गयी।
"लेकिन भाईजान ये तो होने वाली बात है, आपके साथ जो हुआ वह सबके साथ हो जरूरी तो नहीं।" वहीं खड़े अशरफ के चचेरे भाई ने कहा जो खुद भी बाहर जाने की जुगाड़ में लगा था|
"बिलकुल जरूरी नहीं ।लेकिन ना हो इसकी कोई गारंटी है क्या?"
"भाई!जो इंतेजाम करा रहा है,वह अपनी ही बिरादरी का है। ऐसे में गारंटी ही समझो।" विदेश की चकाचौंध से प्रभावित उसने अपनी बात के साथ, बिरादरी की ताकत भी बतानी चाही।
"जिसने मेरा और मेरे जैसे जाने कितनों का बेड़ागर्क किया, वह लोग भी गैर कौम के नहीं थे समझे | पूरा भरोसा दिलाया था कि वहाँ कोई परेशानी नहीं होगी ।क्या पता था कि ऐसे लोग सिर्फ दलाल होते हैं।"
"खाक डालो बीती बातों पर बेटा! तुम लोगों के लिए सबक बनकर लौटे हो। इतने पर भी जो लोग गलत लोगों पर भरोसा करने से गुरेज ना करें ,उनकी भरोसे की भैंस का पाड़ा ही पैदा समझो।" कहकर, एक नजर अपने लड़के पर डालते हुए, चचा वहाँ से उठ खड़े हुए।
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(40). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
उच्च शिक्षित


मध्यावकाश की घंटी बजते ही वर्मा जी ने अपने बैग से टिफिन निकाला और साथी शिक्षकोंके साथ नाश्ता करने लगे।
"सर, आप भी स्वाद लीजिए, आज मैंने ही अपना टिफिन तैयार किया है।" कुछ चम्मच पोहे देते हुए साथियों से वर्मा जी कहते जा रहे थे- "वो क्या है कि मेरी श्रीमती जी मायके गई हुई हैं, सो पहली बार बनाये हैं मैंने ये पोहे! खाकर बताइए कि कैसे बने हैं?"
"वाह सर, मज़ा आ गया!" कहते हुए कुछ चम्मच और पोहे उन शिक्षकों ने लिये, जो टिफिन नहीं लाते थे।
तारीफ़ों से ख़ुश होकर महिला शिक्षकों की ओर मुख़ातिब होते हुए वर्मा जी ने एक फ़िल्मी गीत की पंक्ति गाते हुए कहा- "राम दुलारी मायके गई.... लीजिए मैडम आप भी टेस्ट करिये मेरे बनाये पोहे!"
टिफिन आधे से ज़्यादा खाली हो गया था। वर्मा जी को भूख ज़ोर से तो लग रही थी, लेकिन सभी शिक्षकों से तारीफ़ सुन कर अपने पेट को भूल से रहे थे। टिफिन लेकर अब वे अपने बेटे की कक्षा में पहुंचे यह देखने कि दोस्तों के साथ शेयर करने के लिए उसे और पोहे की ज़रूरत तो नहीं! तभी स्टाफ- रूम में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई।
"कभी अपनी पत्नी का बनाया हुआ नाश्ता तो हमें चखाया नहीं, आज जले से पोहे खिलवा दिये सबको!" एक महिला शिक्षक ने ग़ज़ाला मैडम से कहा। कहीं और खोई हुई ग़ज़ाला जी ने मुंह फेर कर अपनी आंखों पर रूमाल लगा लिया। फिर अपनी बिटिया की कक्षा में जाकर उसे सहेलियों के साथ टिफिन साझा करते हुए देखने लगीं। लेकिन उनकी आंखें अभी भी नम थीं।
"उनका टिफिन कैसे तैयार होता होगा?" सोचते हुए ग़ज़ाला जी को अपने बेटे की याद आने लगी, जो उनके शौहर के साथ दूसरे शहर में रहता था।
पूरा एक साल होने वाला था अपने शौहर व बेटे को छोड़ कर आये हुए। अहं और वहम पर उन के बीच ख़ूब झगड़े होते थे, लेकिन न तो तीन तलाक़ की नौबत आई, न कोर्ट-कचहरी की! दोनों उच्च शिक्षित जो थे, भले दीनी तालीम में नहीं!
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(41). 'परवरिश'
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"फिर क्या सोचा तुमने? तुम्हारे मज़हब में तो बहुत आसान है, तलाक़ क्यों नहीं दे देते? यूं अलग-अलग रहकर क्यों ढो रहे हो इस रिश्ते को? तुम्हारी जगह मैं होता तो ...." सुमित अपने दोस्त वहीद को पुनः समझाते हुए बोला- "जब तुम्हारे घर वाले भी तलाक़ कराना ही चाहते हैं, तो देर क्यों?"
"लेकिन मैं नहीं चाहता! उसका ऐसा कोई कसूर भी तो नहीं!"
"कसूर! तुम्हारे अब्बू तो कहते हैं कि ऐसी बहुत सी बातें हैं तुम दोनों के बीच, जो तलाक़ का आधार बनती हैं तुम्हारे मज़हब में!"
"अब्बू अपने ज़माने के हिसाब से सोचते हैं और मैं अपने ज़माने के हिसाब से!"
"दरअसल तूने कुछ ज़्यादा ही क़िताबें पढ़ लीं हैं!"
"अब जैसा तुम समझो, सुमित! सच तो यह है कि तलाक़ जैसे हालात तो आजकल अधिकतर लोगों की ज़िंदगी में हैं! मेरी बीवी बहुत ही ज़िद्दी, बेअदब और मुंहफट है अपनी अम्मी की तरह और ऊपर से नये ज़माने की कुछ ग़लत सनक! कसूर उसका नहीं, उसकी परवरिश का है!"
सुमित नि:शब्द था।
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(42). सुश्री नयना(आरती)कानिटकर जी
मौन संग्राम


नन्हीं सी परी को लेकर घर मे प्रवेश करते ही अगरबत्ती की मधुर महक से वो उल्हासित हो  उठी .  ओह तो निनाद ने उसके स्वागत में यह सब किया है.  उसका मन खिल उठा. अपने कमरे मे प्रवेश करते अचानक उसका ध्यान अमोघ के कमरे की ओर  गया,  ताज़ा फूलों की माला  चित्र पर टँगी थी.  धूप  भी जल रहा था . ओह ! कैसे वह  भूल गयी  अजय की पुण्यतिथि.  अमोघ ने पिछे मुड़कर उपहास और  उपेक्षा से देख ऐसे हँसा जैसे कह रहा  हो तुम्हें याद भी है मेरे पिता की पुण्य तिथि? . उसकी कटाक्ष दृष्टि उसे अंदर तक चीरती  चली गई . अजय की तस्वीर उसके कमरे से यहाँ... क्या निनाद जी ने...? यदि  उन्होने ऐसा किया है तो वह माफ नही कर पाएँगी. वो आज भी अजय से जुड़ीं है .सब  घूम गया  था चल चित्र सा---
निनाद के अस्पताल के कमरे मे आते ही उसने पूछा था
" अमोघ कैसा है? वो क्यो नहीं आया. जब मैं यहाँ आयी  तब वह कोचिंग गया था." उसने अधैर्य होकर पूछा था.
"   अम्मा ने उसे सब बता दिया है. तुम फ़िक्र ना करो . वो ठीक है. उससे पूछा था एक बार माँ को देखने चलोगे, पर ना में केवल सर हिलाया और अपनी पढ़ाई में मग्न हो गया." निनाद ने सपाट सा जवाब दिया था.
एक बार फिर उसे अपराध बोध ने घेर लिया . अमोघ का बचपन छिन कर उसने ना सुधरने वाली भूल की थी. असल में यह निर्णय तो उसने उसी के लिए लिया था. माँ के प्यार के साथ पिता का संरक्षण बच्चे के सहज जीवन के लिए जरूरी था. वो अपने पिता का प्यार जान ही कहाँ पाया था. बस वही सदा उसे उसके पिता के बारे में कुछ ना कुछ बताती रहती थी. सोचते सोचते उसकी आँख लगी ही थी कि मद्दम सी आवाज़ सुनाई दी--
" कैसी हो माँ?". आँखें खोल देखा तो आमने अमोघ खड़ा था, दूर झिझका हुआ सा. इधर आ वहाँ दूर क्यो खड़ा है, बैठ मेरे पास. फिर भी वो खड़ा ही रहा था. सपाट दृष्टि, उसमे लेश मात्र भी जिज्ञासा नहीं थी अपने छोटी बहन से मिलने की.बारह-तेरह साल का किशोर एकदम सयाना हो गया था.
एक दिन उसने अमोघ से कहा था "देख तेरी प्यारी सी बहना अब तुझे राखी बाँधेगी.उसे गोद नहीं उठाएगा."
" नहीं मम्मा अभी तो यह बहुत छोटी है." उसने दूर से ही कहा था. परी की तरफ़ देखा तक नहीं था. बस उसका मम्मा कहना दिली सुकून दे गया था.
क्या नारी का जीवन इतना लानत भरा भी हो सकता है. ना नारीत्व का सुख , ना मातृत्व की तुष्टी. जी मे आता है दोनों से मिले निर्वासन  के हुक्नामें पर पागलों की तरह चीख उठे.
नही! नही!नहीं! ऐसा नहीं हो सकता मै इतनी कमजोर नहीं हूँ.परी को गोद मे उठाए,अमोघ की उँगली थामे वो चल पडी थी नये क्षितिज की खोज में.
दोनो के पिता अलग हैं तो क्या हुआ माँ तो एक ही है.
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(43).  बी प्रोफेशनल

" मे आय  कम इन सर." सुनयना ने केबिन मे प्रवेश करते हुए पूछा
"यस! यस! कम -कम  अरे! ये कोई पूछने की बात है. तुम तो अब काम पर अच्छी पकड़ बना रही हो. भई मानना पड़ेगा हम तो तुम्हें बस खालिस गृहिणी समझते रहे. --विजय ने हँसते हुए उसे बैठने का इशारा किया
" इसमे वो सब काम है जो आपने मुझे  दिया था. पूरा हो गया है. पेन ड्राइव आगे करते हुए वह बोली.
विजय पेन ड्राइव लगा काम देखने लगा और वह विचारों मे खो गई.
 बच्चों की जिम्मेदारियों से थोड़ा-थोड़ा मुक्त होते ही अपने पति के कामों मे हाथ बटाना आरंभ कर दिया था और स्वभाव से मेहनतकश होने से जल्द ही काम पर पकड़ बना ली थी. अब तो बहुत सारा काम वह स्वतंत्र रुप  से अपनी ज़िम्मेदारी मे लेकर करने लगी थी...
" अरे! वाह बडा जल्दी सब काम निपटा दिया. मानना पड़ेगा. " आनंदित होते हुए उसने कहा
" तो क्या आगे की सारी प्रोसेस व फ़ार्मलिटिज के लिए क्लाइंट को बुला लू. " वो उत्साहित होते हुए बोली
" अरे नही नही अभी  दो-चार दिन रुको. इतनी जल्दी जल्दी सब  प्रोसेस हुआ तो हमारी इमेज... विजय कहते हुए बाहर निकलने को उठ खड़े हुए .
" मै समझी नही."
 व्यवसाय में व्यस्तता  ना हो तो भी  दिखानी पडती  है.
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(44). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी 
परम्पराओं के नाम पर


" सलीमा तुम पुनः निकाह कर लो।" अरशद ने चंद दिन पूर्व तलाक दी बेगम से कहा
" आपका मतलब हलाला से हैं?"
" हाँ सलीमा , और कोई रास्ता नहीं हैं।"अरशद ने सलीमा पर दबाव डालते हुए कहा
उनकी खुशहाल गृहस्थी में हुए एक छोटे से पारिवारिक क्लेश मे ही अरशद ने उसे तलाक का फरमान सुना दिया था।अब पछतावा हो रहा था अतः हलाला की बात कर रहे थे।
ओह !" लेकिन आज से पूर्व कोई गैर मर्द मुझे देखे यह भी आपको मंजूर ना था और अब "
" वह बात और थी यह बात हमारे मजहब से जुडी हैं जो मेरे लिए सर्वोपरी हैं।"
" आज हलाला जैसी परम्पराओं का सर्वत्र विरोध हो रहा हैं।"
" इन लोगो की बातों में ना आओ। ये हमे बाटने की कोशिश कर रहे हैं।"क्रोधित हो अरशद चीख़ पड़े
सब्र खो चुकी सलीमा भी फट पड़ी ,"आपका कृत्य स्त्री को वेश्या की तरह इस्तेमाल करने का हैं जिसके लिये मैं तयार नहीं।"
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(45). जिम्मेदारी

" अच्छा कमाता खाता लड़का पेशे से इंजिनियर लड़के का प्रस्ताव मामा सुरेन्द्र ने अपनी भांजी रिया के समक्ष रखा। उसे समझाते हुए कहा :
" घर चलाने की जिम्मेदारी आजीवन तुम्हारी ही हैं क्या ।यह जिम्मेदारी अब दोनों भाइयों को उठाने दे नहीं तो तुम्हारे पापा की तरह वे भी मुफ़्त की रोटियां ही तोड़ते रहेंगे।"
" थोड़ी देर चुप्पी छाई रही।असमन्जस में रिया को देख वे पुनः कह उठे :
" मैं तुझ पर किसी भी तरह से दबाव नहीं डाल रहा हूँ।अगर तुझे लड़का पसन्द हैं तभी आगे बात करूँगा।"
रिया ने " जैसा आप उचित समझे " कह कर अपनी स्वीकृति दे दी।
अब तक चुप्पी साधे रही रिया की मम्मी तिलमिला उठी " इसीलिए बेटियों को जन्म से पराई कहते हैं क्योकि वह मायके को अपना घर कभी समझती ही नहीं।उसे मायके की जिम्मेदारियां सदैव बोझ लगती हैं।"
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(46). श्री मुज़फ्फर इकबाल सिद्दीक़ी जी
(1). फर्ज"

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”देख रुचि! अंश बहुत अच्छा लड़का है। घर के लोग भी कुलीन हैं और फिर बैंगलोर में ही है। शादी के बाद तुझे जॉब भी स्विच नहीं करना पड़ेगा। तेरे पिताजी ने तो पंडित जी से कुंडली भी मिलवा ली है। अब तू ना मत करना। इन्हें भी तेरी बहुत चिंता है। एक ही साल तो रह गया है रिटायर होने में।“
“नहीं माँ! मैं कितनी बार बोल चुकीं हूँ। अभी मुझे शादी नहीं करनी। जब करनी होगी तो बता दूँगी।"
"क्यों नहीं करनी? आखिर , तेरे हाथ पीले करना हमारा फर्ज है। धीरे-धीरे समय भी गुज़रता जा रहा है। हर काम का एक समय नियत है। समय रहते काम हो, तभी अच्छा लगता है। यदि तेरे दिल में कोई और बात है तो खुल कर बोल न। हम तेरी हर खुशी में राजी हैं। मैं मना लूँगी तेरे पिताजी को, तू बोल तो सही।"
“नहीं माँ! ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है। तू मुझे गलत समझ रही है।"
“तो फिर सही क्या है?”
“अरे माँ! अब तू नहीं मानती तो सुन! आप लोगों ने हम दोनों बहनों को बड़े लाड़-दुलार से पाला-पोसा। हमारी शिक्षा दीक्षा से लेकर हमारे शौक, पसंद-नापसंद में कभी कोई कमी नहीं आने दी। इसी कारण पिताजी ने अपने मकान बनाने तक के बारे में कभी नहीं सोचा। अब पिताजी के रिटायर होने पर ये क्वार्टर खाली करना ही पड़ेगा न?"
”हाँ!”
“फिर श्रेया की पढ़ाई भी शेष है। अब तू ही बता. मेरा भी कुछ फर्ज बनता है कि नहीं?"
“----“
“माँ  मैंने तो प्रण किया है कि जब तक हम अपने घर में नहीं पहुँच जाएँगे, तब तक मैं शादी नहीं करूँगी।"
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(47). सृष्टि

"गुड मॉर्निंग डार्लिंग।“
"मॉर्निंग सूरज! आजकल तुम्हारा मॉर्निंग वॉक भी कुछ ज़्यादा ही लम्बा होता जा रहा है। वॉक तो अपनी जगह है, फिर ये कभी शुक्ला जी तो कभी वर्मा जी के यहाँ टी पार्टी? और मोबाइल भी नहीं ले जाते। कभी ,कुछ लौटते समय मंगाना हो तो, किस से कहूँ?"
"आज तो मैडम कुछ ज़्यादा ही नाराज़ लग रही हैं। ये तुम्हारी बगीचे की चिड़ियाँ भी लगता है तुम्हारा गुस्सा भांप चुकीं हैं। बड़ी खामोश बैठीं हैं। नहीं तो सुबह से ही इस डाली से उस डाली पर चह -चहाती फिरतीं हैं। और ये गुलाब का फूल कितना शानदार खिला है, भई मान गए। बहुत मेहनत करती हो इन सब पर। तभी तो सुबह- सुबह यहाँ बैठ कर काफी पीने का आनन्द अलग ही  होता है।“
"अच्छा, अब जल्दी बताओ क्या हुआ है ?"
"तुम जान कर भी क्या करोगे सूरज? तुम्हें मेरी परवाह तो है नहींI आज काफी बनाने के लिए जैसे ही फ्रिज से दूध निकालना चाहा, पतीली हाथ से फिसल गई। सारा दूध किचिन में फैल गया। एक तो मुझे रात भर नींद भी तो नहीं आती। सर वैसे ही भारी था। सोचा काफी पींने से तबीयत हलकी हो जाएगी। मेरा मूड ख़राब हो गया, तुम्हारा फोन भी यहीं पड़ा था। मैं दूध किस से मंगाती?”
"मैं अभी ला देता हूँ। "
“सृष्टि, मैं कुछ दिन से देख रहा हूँ तुम देर रात तक जागती रहती हो,कभी कैंडी क्रेश तो कभी फेसबुकI"
"क्या बताऊँ सूरज, ये सब तो, किसी तरह दिल को बहलाने के तरीके हैंI अंदर से एक बेचैनी है,एक खालीपन, तुम तो समझते हो  न। मैं लाख चाह कर भी तुम्हें एक वारिस  नही दे पाई। अब तो सारी आस भी टूट चुकी है।"
“सृष्टि मैं कितने बार कह चुका हूँ। भूल जाओ इन सब बातों को। मुझे नहीं चाहिए वारिस।मैं ने सदा तुम्हें चाहा है। तुम भूल गईं जब मैंने तुम्हें कालेज के गार्डन में प्रपोज़ किया था और तुम जैसे, बिना सुने ही चल दीं थीं। मैं रात भर यही सोचता रहा था - "काश ! तुम एक बार मेरी हो जाओ।"
“हाँ सूरज फिर एक बार कालेज से लौटते समय तुमने अपनी बाइक ,मेरी कार के सामने अड़ा दी थी।  और कहा था कि या तो हाँ कर दो या.. मैं तुम्हारी ज़िद के आगे ....."
"फिर मुझे तुम मिल चुकी थीं। तुम ही मेरी सृष्टि हो।"
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(48). श्री राज्यवर्धन सिंह “सोच”जी
काश...


मलय ने माँ-बाप के मौत के बाद अपनी चाचा-चाची से अलगाव कर लिया था, फिर गुजरते वक्त में चाचा की भी मौत हो गयी। चूंकि उनकी कोई संतान नहीं थी अतः चाची अब अकेली रहती हैं।
आज दरवाजे की घंटी सुनकर चाची दरवाजे की तरफ बढ़ीं। देखा तो, सामने मलय था, न जाने किस लालसा से हाथ में मिठाई और चेहरे पर धूर्त मुस्कुराहट लिये।
“आओ बेटा, बैठो, क्या लोगे; चाय या काॅफी?”
“अरे कुछ नहीं चाची, मैं तो आपको खुशखबरी सुनाने आया हूं।”
“अरे वाह, क्या है खुशखबरी!, सुनाओ जल्दी से।“
“चाची, मैनें और आपकी बहू ने मिलकर एक एनजीओ खोला है, जिससे अनाथ लोग जुड़ेंगे और बूढ़े-बेसहारों अपनायेंगे। इससे उनको माँ-बाप का और बेचारे बुजुर्गों को बच्चों का प्यार मिलेगा”
“लीजिये, मुँह मीठा करिये, चाची”- कहते हुये मयल ने मिठाई का एक टुकड़ा चाची को दिया और दूसरा मुँह में रख लिया।
“काश ऐसा हो, बेटा... काश ऐसा हो!” चाची बुदबुदायी और मलय की निगाह उनपर टिक गयी।
चाची ने मलय की आँखों में झाँका;
"आजकल अपनों को तो कोई अपनाता नहीं, गैरों की फिक्र किसे होगी बेटा!”
मिठाई, मलय के मुँह में कसैली सी हो गयी।
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(49). श्री वीरेंद्र वीर मेहता जी
पत्थर दिल

पुत्रबघू के कहे शब्दों ने उन्हें इस कदर चोट पहुँचाई थी कि उनका मन स्वयं को घर लौटने के लिए तैयार नही कर पा रहा था। शाम ढलने लगी थी और वे काफी देर से इस पार्क में बैठे थे जहां अधिकतर वृद्ध लोगों का ही जमघट देखने में आता था। कुछ देर से उनकी नजरें सामने की एक बेंच पर लगी हुयी थी जहां दो वृद्ध आपस में अपने परिजनों की बातें कर रहे थे।
"केशू भाई, अब नही सहा जाता बच्चों का बेरुखा व्यवहार। कभी कभी मन करता है कि वृद्धाश्रम में ही चला जाऊं।"
"अरे सतबीर भाई तुम भी बच्चों की बातों को दिल से लगा लेते हो। मुझे देखो हर रोज 'बहू' कुछ न कुछ जला-कटा सुना ही देती है लेकिन मैंने कभी बुरा नही माना।"
"अब भाई तुम्हारे जैसा पत्थर दिल तो है नहीं अपना दिल।" कहते हुए सतबीर फीकी हँसी हँस दिया।
"हाँ भाई सतबीर!" दिल तो पत्थर का ही बना लिया है मैंने" अपनी बात कहते हुए केशू सहज ही गंभीर हो गया था। "....पर 'लिखने वाली' स्लेट के पत्थर जैसा। जिस पर लिखा हुआ सब कुछ अपने बच्चों की दिन में कही एक मीठी बात से ही साफ़ हो जाता है।अरे भाई हम भी तो बच्चों को गुस्से में न जाने कितना कुछ कह देते थे तो क्या वे घर छोड़ चले जाते थे।"
चाहे अनचाहे केशू की बातें उनके दिल को ठंडक दे रही थी पर मन अभी अशांत था। घर लौटने के निर्णय पर वे अभी पशोपश में ही थे कि सामने बहू पोते का हाथ थामें आ खड़ी हुयी।
"ओह 'थैंकस गॉड' आप यहाँ है! बाऊजी आप भी न.. मेरी बात पर बच्चों की तरह नाराज हो जाते है। पता है आप के बिना हमें घर कितना सूना लगता है।" चेहरे पर याचना, शिकायत और अपनत्व सभी झलक रहे थे।
"नहीं बहू नही, ऐसा कुछ भी तो नहीं। बस जरा हमउम्र लोगों के बीच वक़्त भूल गया था।" कहते हुए सहज ही, वे भी अपना दिल स्लेटी पत्थर का बना महसूस करने लगे थे।
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(50). संबंध

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"अतीत मन का होता है तन का नहीं। डरो मत तान्या, इन अंधेरी गलियों से निकलने की कोशिश करो। यही कहा था न तुमने....." तान्या अपनी बात कहते हुए कुछ उदास हो गयी। "...और आज जब मैं इन अंधेरों से बाहर आना चाहती हूँ तो सब से पहले तुम ही मेरा साथ नही देना चाहते।"
छोटी उम्र से ही गलियों में, पान चबाती रंगीन कपड़ों वाली औरतों को देख वह चमकीले जीवन के सपने देखने लगी थी। 'रंगीन जीवन जीती है वे सब' माँ के बार बार ये बात दोहराने पर वह अक्सर खुद से कहा करती थी। "मैं भी यही सब करूंगी।" और फिर समय बीतने के साथ वह खुद ही एक ऐसे रास्ते पर आ खड़ी हुयी थी जहां कभी किसी काम के लिये 'न' नहीं बोला जाता था। ऐसे में वही तो पहला इंसान था जिसने उसके अहसासों को जगाया था।
"हां, मैंने कहा था।" वह शांत था। "लेकिन जिंदगी हमेशा दूसरों के सहारे नही जी जाती, हिम्मत करो और आगे बढ़ो।"
"मैं तुम्हारे साथ के बिना तो अपनी कल्पना भी नहीं कर सकती।"
"नहीं तान्या, हम दोनों के रास्ते बिलकुल अलग है। मेरी अच्छाई ने तुम्हें रास्ता दिखाया और तुम्हारे प्रेम ने मुझे मेरे परिवार का अर्थ समझाया। बस यही संबंध था हमारा।" वह अब गंभीर हो चुका था।
"लेकिन तुम्हारा बार बार मेरे पास आना और वह सब....।" तान्या उलझन में थी।
"सिर्फ एक जरूरत! हाँ तान्या, हमारे बीच सिर्फ तन और धन का रिश्ता था और..." अपनी बात पूरी कहता हुआ वह पलट चुका था। ".... और मुझे ख़ुशी है कि हम दोनों इससे आगे निकल अपने अस्तित्व को पाने की राह पर आ चुके है।
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(51). सुश्री अर्पणा शर्मा जी
प्रच्छन्न भेड़िये

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सुबह स्कूल पहुँचते ही कक्षाध्यापक ने बुला भेजा। मिनी अपनी एक सहपाठी को साथ लेकर उनके कमरे में पहुँची।
"ये तुम्हारी मासिक परीक्षा की काॅपी जाँच रहा था"
बहुत देर वे काॅपी पलटकर दिखाते रहे। स्वस्थ और ऊँची कद-काठी की मिनी अपनी पाँचवीं कक्षा की सहपाठीयों से बड़ी दिखती थी। उसकी मित्र कब तक रूकती उसे उसकी कक्षा में जाना था। मिनी भी उठ खड़ी हुई।अध्यापक ने उसे झिड़़का-
"इस बार तुम्हारा प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा है।"
ये सुनकर पढ़ाई में मेहनती मिनी के चेहरे पर तनाव और परेशानी झलकने लगी।
अध्यापक ने मिनी को सांत्वना देने उसके सिर और फिर उसके कंधे को हाथ से थपथपाया। अचानक उनका हाथ उसके कंधे से फिसल कर उसके दूसरे अंगों तक पहुँच गया। उसने मिनी को जकड़ लिया । सर की उन्मत्त मुखाकृति देख पहले तो मिनी घबराई फिर उसे माँ की सीख याद आई। जोर से हाथ में पकड़ी कलम सर के हाथ में गड़ा दी। हाथ की पकड़ छूटते ही भागी और शोर मचाने लगी।
तत्काल प्रभाव से निलंबित उस अध्यापक को जब पुलिस लेजारही थी तब अपनी सहपाठीयों के साथ खड़ी मासूम मिनी की आँखें साहस से चमक उठीं....!!
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(52). सुपात्र

धीरे से लाॅन का गेट खोला, तो वहाँ लगे झूले पर कोई  झूलता दिखाई दिया, उसके गुनगुनाने की मद्धिम सी स्वरलहरी फूलों की खुशबू के साथ वहाँ फैली हुई थी।
" सुनिये, शुचि से मिल सकता हूँ क्या?",
उसने पुकार कर कहा। आज न जाने किस मनोदशा के वशीभूत हो उससे मिलने चला आया।  करीब दस-बारह वर्ष हुए जब अपने कारोबार के सिलसिले में अमेरिका जाने की बात सूचित भर कर वहाँ से चला आया था। वह भी एकरस जीवन में बदलाव चाहता था। ,  ये सोचते पल्लव के मन में शब्दों का ताना-बाना जुड़ रहा था कि  वह कैसे शुचि को समझायेगा...
झूले से उतर वह व्यक्ति धीरे-धीरे उसके पास आया।
वह देककर हक्का-बक्का रह गया। वही वर्षों पुरानी शुचि... जरा भी समय की धूल नहीं चढ़ी, तनिक भी दुःख में नहीं घुली..वही सलज्ज, मासूम आँखें , आत्मविश्वास से दमकता चेहरा और कोमल मुस्कान । लंबे काले घने बाल।
सारे रास्ते बुने उसके संशय, विचार और पौरूष का दर्प धुआँ-धुआँ हो उड़ चले थे। " वो, वो मैं यूँ ही जरा आज इधर आया था तो सोचा कि तुम्हारा हाल जान लूँ", वह हकला गया। मानो जिह्ववा में कोई शक्ति ही ना हो ।
शुचि की हँसी वहाँ खनकती बिखर गई -" क्या हाल जानना है मेरा, बोलो..?? जब तुम एक सधे व्यापारी से नाप-तौलकर, सब हिसाब कर आगे बढ़ लिये थे तो आज इतने बरसों बाद क्या देखने आए हो...??? ...तुमने सोचा होगा कि मैं तुम्हारे दुख में विगलित , संतप्त जीवन काट रही होऊंगी। पर मैंने तुम्हारे धोखे की पीड़ा को अपनी जीवन धरा की खाद बनाकर उस पर हँसी-खुशी के उजास उपजायें हैं । ",
पल्लव अपराधी सा सिर झुकाए सुन रहा था।
ईश्वर नहीं चाहते थे कि मेरे सच्चे विश्वास को गलत हाथों में सौंपें इसलिए उन्होंने तुम्हारी जगह रिक्त कर दी , जिससे कि सर्वथा उपयुक्त पात्र ही उसका हकदार बने..!! कहकर मुस्कुराती वह पुनः झूले की ओर चल दी ।
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(53). श्री महेंद्र कुमार जी
सीधा आदमी

"तेरी मईया का..." टीवी खोलते ही डॉ. मुकुल के मस्तिष्क में यह वाक्य गूँज उठा।
डॉ. मुकुल शहर के जाने-माने मनोचिकित्सक हैं। आज सुबह जब वह अपने क्लीनिक जा रहे थे तो रास्ते में एक मोटा और भद्दा-सा व्यक्ति एक सीधे-सादे आदमी को पीट रहा था। वह उसकी पकड़ से बचने की लाख कोशिश कर रहा था मगर सब बेकार।
"प्लीज हेल्प!" उसने कहा, मगर पब्लिक चुपचाप खड़ी थी।
पिटने वाला शख़्स गोरे-चिट्टे बदन का छरहरा नौजवान था। उसके सूट, टाई और ब्रीफ़केस को देख कर लग रहा था कि वह किसी अच्छी जगह काम करता है। इसके विपरीत वह थुलथुला आदमी शक़्ल से ही गुण्डा लगता था। उसने कुर्ते के साथ आधी टांग तक उठा हुआ पायजामा पहन रखा था और पैरों में हवाई चप्पल।
"तेरी मईया का..." वह उसे लगातार पीटते हुए गालियाँ दे रहा था।
अचानक वह युवक किसी तरह उसकी पकड़ से छूटा और सीधे पब्लिक की तरफ़ भागा जहाँ डॉ. मुकुल भी खड़े थे। वह आदमी भी उसके पीछे लपका मगर इस बार उसे पब्लिक ने रोक लिया। उस आदमी का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वह उन्हें भी गालियाँ देने लगा जो उस युवक को बचाना चाहते थे। बस फिर क्या था, पब्लिक लगी उसे धुनने। मौका देखकर वह नवयुवक वहाँ से भाग गया।
टीवी पर दिखायी जाने वाली इस घटना की सीसीटीवी फुटेज से साफ़ पता चल रहा था कि किस तरह उस आदमी के पान थूकने पर बगल में खड़े उस नवयुवक ने ज़रा सी छींट पड़ने पर उसकी पेंटिंग फाड़ दी थी।
टीवी पर एंकर बोल रही थी, "देश के महान चित्रकार शाहिद अहमद हमारे बीच नहीं रहे। अचेतन अवस्था में उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहाँ उनकी मौत हो गयी। उनकी नवीनतम कृति को फाड़ने वाला जेल से भागा हुआ कुख्यात अपराधी अभी भी फ़रार।"
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(54). वह तोड़ती पत्थर

वह महिला अभी भी इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ रही थी। एक आदमी जो बहुत देर से उस महिला को देख रहा था, ने कलम से काग़ज़ पर कुछ लिखा और कहा:
"यह एक हृदय विदारक कविता होगी।" महिला ने उसकी तरफ देखा और पुनः चुपचाप पत्थर तोड़ने लगी।
वह महिला अब बूढ़ी हो चुकी थी। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ थीं तो जिस्म पहले से और ज़्यादा काला। उसने आज भी वही मैली-कुचैली धोती पहनी थी जो अब लोकतंत्र की तरह जगह-जगह से फट चुकी थी।
"तुम चिन्ता मत करो, मैं तुम्हें अमर कर दूँगा।" उस आदमी ने पत्थर तोड़ती हुई महिला से कहा।
उसने घूर के उसकी तरफ़ देखा और खड़ी हुई। फिर हथौड़ा फेंक कर उसे मारा और कहा:
"कविता कलम से नहीं हथौड़े से लिखी जानी चाहिए।"
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(55). सुश्री विभा रानी श्रीवास्तव जी
“समझदारी”

 
“सुबह ऑफिस जाते समय ही बोला था कि मेरे सारे कपड़े आज आयरन हो जाने चाहिए ऑफिस से मैं वापस लौट भी आया ... सारे के सारे कपड़े ज्यूँ के त्यूँ ही रखे हुए हैं दिन भर करती क्या हो जो अठारह-बीस कपड़े तक आयरन नहीं हो सके...” धनेश अपनी पत्नी सिया पर चिल्ला पड़ा
“कुछ घंटे तक बिजली नहीं थी , कुछ देर के लिए मैं बाहर चली गयी थी”
“बाहर! बाहर कहाँ गयी थी तुम! शाम में ही न कुछ देर के लिए सब्जी-दूध लाने गयी होगी”
“सब्जी-दूध लौटते समय ली थी”
“लौटते समय! कहाँ से लौटते समय?
“एयरपोर्ट गई थी, कुछ देर के लिए”
“एअरपोर्ट! एअरपोर्ट क्यों जाना पड़ा और गयी तो किसके साथ?
“अकेले गई थी ... शहीद को श्रद्धांजली देने”
“और कोई क्यों नहीं गया ? एअरपोर्ट पर आया शहीद तुम्हारे रिश्ते में था क्या”?
“कोई और क्यों नहीं गया मैं नहीं जानती, जहाँ तक रिश्ते की बात है... शहीदों के कारण ही हम सभी सुरक्षित रहते आये हैं, और जहाँ तक मैं समझती हूँ देश का नाता खून के नाते से कहीं उपर है, जो अमिट और अमर है”
पत्नी की सोच-समझ पर आज पति नतमस्तक हो चुका था और फिर एक शब्द बोल नहीं सका...
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(56). श्री मोहन बेगोवाल जी
अपराध की सज़ा


पंचायत घर में, लोगों ने एकत्र होना शुरू कर दिया, कुछ ही समय बाद मोतबर लोग भी वहाँ आ गए। भीड़ में जो धीमी आवाज से बातचीत चल रही थी, तब कुछ थम गई.थी जब सरपंच ने बंता से पूछा"
“बंता बता, क्या बात हुई थी ?”.
"अब मैं क्या  बताउं? सारी दुनिया जानती है”  बंता ने कहा।
"हाँ, पंचायत ने भी सुना है कि जीता तेरी घर वाली को भगा कर ले गया है "।
"पंचायत के आगे बात तो रखनी चाहिएI" पास बैठे बिल्लू पंच ने कहा ।
“कैसे कहें तुम हमारे हो, और हमारा ही पंचायत के आगे मज़ाक बना रहे हो” ।
“बन्ते की घर वाली अब पंचायत के पास है” सरपंच ने कहा ।
“जीते की बहू को भी हम ने यहाँ बुला लिया है “।
“तो क्या निर्णय किया है फिर पंचायत ने?“ नंबरदार ने पूछा ।
"निर्णय ये हुआ है",  थोड़ी देर चुप रहने के बाद सरपंच फिर बोला।
“अब छोड़िये जो हो गया, परंपरा के अनुसार तो निर्णय यही कि अगर बंता की घर वाली जीता ले गया है, तो जीते की घरवाली बंते के घर  रहे ”, सरपंच ने कहा ।
“ये कैसी परंपरा?” एक साथ दो आवाज़े भीड़ में गूंज गई,  अपराध करने वाले  को सज़ा  देने की बजाय उनको सजा क्यों जिन का कोई अपराध नहीं न हो? ”
“हम नहीं मानते आपका निर्णय, हम लोगों को आप पे कोई विश्वास नहीं रहाI"और फिर दोनों आवाज़े भीड़ को चीरती हुई खुले आसमां के नीचे आ गई ।
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(57). सुश्री राजेश कुमारी जी
ज्योति से ज्योति


“मैं गौरव मलिक अपने होश-ओ-हवास में ये सब कह रहा हूँ |
कुछ दिनों से मैं महसूस कर रहा था कि मेरा  दोस्त अतुल जो पढ़ाई में बहुत ही कमजोर था वो तथा अन्य पढ़ाई में एवरेज लड़के अचानक टेस्ट में  इतने अच्छे नम्बर लायेंगे सभी के नम्बर  सुनकर मुझे  हैरानी होती  थी फिर सोचा ये सब मुकेश सर से ट्यूशन जो पढने लगे थे उसका ही असर होगा ट्यूशन का ऑफर मेरे  पास भी मेरा  दोस्त अतुल लेकर आया  था किन्तु मैं  अपनी खुद की मेहनत पर विश्वास रखता था इसलिए उसे  मना कर दिया था| उस दिन मुकेश सर ने ट्यूशन के बाद पार्टी भी रखी थी तो अतुल के आग्रह करने पर मैं  भी चला गया| पार्टी में जो सॉफ्ट ड्रिंक मैंने  पिया उसके बाद मुझे  नींद सी आने लगी मैं  बिना कुछ और खाए घर आकर जल्दी ही सो गया| सुबह मुझे  अपनी आँखें लाल दिखाई दी बदन टूटा सा महसूस हुआ तो  पार्टी की बातें याद करने लगा कुछ दिनों से इसी तरह का परिवर्तन मुझे  अपने दोस्त अतुल में भी दिखाई दे रहा था  उसकी आँखें भी कुछ सूजी हुई सी तथा लाल रहने लगी थी  पहले जैसा एक्टिव भी नहीं दिखता था | उसके बाद मुझे  कुछ शक होने लगा तो  यह बात अपने मम्मी पापा से भी शेयर की किन्तु उन्होंने अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने और ऐसे दोस्तों से दूर रहने की हिदायत देकर मुझे चुप कर दिया |किन्तु मैं  चुप नहीं रहा मन ही मन कुछ फेंसला कर बैठा| मैंने गणित  में प्रोब्लम होने का बहाना बनाया और  अतुल के साथ ट्यूशन ज्वाइन किया| वहाँ मैं  कथित स्मरण शक्ति वर्धक ड्रिंक लेता और चुपके से गमले में डाल देता| कुछ दिन में मुझे  सभी बातें स्पष्ट हो गई वहाँ मौत का कारोबार एक टीचर के जरिये से स्कूल में फैलाया जा रहा था ड्रग्स माफिया सीधे उस टीचर के संपर्क में थे जो ट्यूशन के बहाने और बच्चों को फँसाने का काम कर रहे थे| उस नेटवर्क को खत्म करने अपने इतने अच्छे कॉलेज को बदनामी के दाग से मुक्त करने का मैंने मन में बीड़ा उठाया |
 
मेरी  यहाँ गलती यह हो गई कि  अपने दोस्त अतुल को इस काम में अपने साथ लेने की कोशिश की| उसके बाद से मुझे धमकियाँ मिलने लगी अर्धवार्षिक परीक्षा में भी फेल कर  दिया गया मम्मी पापा को भी लगा मैं गलत संगत में आ गया हूँ इसी लिए रोज वो भी खरी खोटी सुनाने लगे| मैंने फिर प्रिंसीपल साहब से इस बात को शेयर किया उन्होंने चुपचाप और सबूत इकट्ठे करने को कहा तब से मैं अपने काम पर लग गया | मैं वो सब सबूत लेकर प्रिसीपल साहब के घर जा ही रहा था कि ये एक्सीडेंट हो गया| मुझे ये तो नहीं पता कि अब मैं  जिन्दगी में चल भी पाऊँगा या नहीं वो कभी पकडे जायेंगे या नहीं मुझे  अफ़सोस सिर्फ इस बात का है कि इस लड़ाई में मैं अकेला हो गया हूँ अंकल”
“नहीं तुम अकेले नहीं हो पता है हम मीडिया वालों को किसने बुलाया??.... तुम्हारे दोस्त अतुल ने  तुम्हारी क्लास का हर बच्चा तुम्हारे लिए बाहर प्रार्थना कर रहा है तथा तुम्हारी लड़ाई में सब साथ हैं तुम्हें चिंता करने की अब कोई जरूरत नहीं तुमने ज्योति जला दी है बेटे”  मीडिया वाले अंकल ने गौरव के  सर पर हाथ रखते हुए कहा |

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58. पलटन बाज़ार (हास्य)

 रामचन्दर की सब उम्मीदों पर पानी फिर गया जब अपनी हलवाई की दुकान के ठीक दूसरी तरफ एक छोटी से जगह में चाय की दुकान खोलने का सपना धराशाई हो गया जैसे ही उसने उस जगह पर बोर्ड लगा देखा जिस पर लिखा था ‘जुम्मन कसाई मीट वाला’| हे भगवान् ये ही दिन दिखाने थे कह कर माथा पीट लिया राम चंदर ने| उसके बाद धीरे-धीरे जुम्मन की दुकान के आगे मुर्गियों के पिंजरे भी रखे गए रेडीमेड गारमेंट्स की तरह बकरे भी लटका दिए गए | मक्खियाँ भी दावत को आने लगी |
सुबह सुबह रामचंदर दुकान में अगरबत्ती घुमाता तथा मन्त्र पढ़ता दूसरी तरफ जुम्मन खटके( मीत काटने वाला बड़ा छुरा ) की धार तेज करता तथा गीत गुनगुनाता | रामचंदर जैसे ही जलेबी तलता उधर जुम्मन ख़ट-ख़ट करके मीट काटता  ये सब देखकर रामचंदर की आँखों में खून उतर आता|
सफाई को लेकर दोनों में अक्सर जुबानों की तलवारें चलने लगी पूरे मार्केट में उन दोनों की चर्चा मिर्च मसालों  के साथ पेश की जाने लगी| जुम्मन की दुकान से आने वाले ग्राहक को राम चंदर खड़ा भी नहीं होने देता था | एक बार तो नौबत हाथापाई तक आ गई जब जुम्मन की मुर्गियां पिंजरे से भाग निकली जुम्मन ने कहा की पिंजरा रामचंदर ने खोला सच्चाई क्या थी राम जाने किन्तु मुर्गियों का कुछ सैर सपाटा तो हो ही गया था| दोनों दिन में दस बार एक दूसरे  को घूर न लें तब तक मन नहीं भरता था| जैसे तैसे दिन  गुजर रहे थे शहर में अन्य स्थानों पर तो अतिक्रमण रोक अभियान चल ही रहा था कि आज सुबह अचानक पलटन बाज़ार में भी कुछ दुकानों पर नोटिस चिपक गया रामचंदर और जुम्मन की दुकानें भी चपेट में आ गई|
ऐसा पहला दिन था जब दोनों एक दूसरे को घूरे नहीं बल्कि अपने अपने नोटिस को देख कर सर पकड़ के बैठ गए|
आस पास के लोग मजे भी ले रहे थे कुछ सहानुभूति भी जता रहे थे| जुम्मन ने सब लोगों को इकट्ठा होकर विरोध करने के लिए उकसाया रामचंदर को भी बुलाया अन्य दुकानदार भी साथ हो लिए किन्तु हैरत की बात थी कि सबसे आगे रामचन्द्र और जुम्मन हाथ पकड़ कर नारे लगाते हुए चल रहे थे| इसी बीच जुम्मन ने पूछा:

“जनाब रामचंदर साहब यदि दुकान हाथ से निकल गई तो आप अपनी दुकान कहाँ खोलने का इरादा रखते हैं” ???
सुनते ही रामचंदर का चेहरा तमतमा गया बाकि सब लोग ठहाका मार कर हँसने लगे|
=====================================

(59). श्री चन्द्रेश कुमार छतलानी जी
पहचान


वह पता नहीं कौन था!  उस छोटे से सर्कस में, चाहे जानवर हो या इंसान, वह सबसे बात करने में समर्थ था। प्रत्येक के लिए वह एक ही प्रश्न लाया था - "तुम कौन हो?", सभी के पास जाकर वह यही प्रश्न पूछ रहा था।
सबसे पहले उसने एक शेर से पूछा तो शेर ने उत्तर दिया, "मैं शेर हूँ।"
फिर एक हाथी से पूछा तो हाथी ने कहा, "हाथी हूँ।"
एक कुत्ते ने पूछने पर उत्तर दिया, "कुत्ता और कौन?"
एक गधे ने रेंकते हुए बताया कि, "मैं तो गधा ही हूँ।"                                                   
अब वह मुड़ा और एक आदमी से वही प्रश्न पूछा, उस आदमी ने गर्व से कहा,
"मैं पंडित प्रकाश हूँ।"
वह चौंक गया और दूसरे आदमी से पूछा, जिसने कहा,
"मैं मोहम्मद नूर हूँ।"
उसे विश्वास नहीं हुआ अब वह एक महिला के पास गया और पूछा, उसे उत्तर मिला,
"मैं रौशनी कौर हूँ।"
उसके लिए अब असहनीय हो गया और वह उल्टे पैर लौटने लगा, सर्कस का कुत्ता वहीँ खड़ा था। कुत्ते ने उससे पूछा, "क्या हुआ तुम्हें?"
उसने उत्तर दिया, "ये सारे इंसान हैं, लेकिन खुद को इंसान नहीं कहते।"
कुत्ता हँसते हुए बोला, "ये तो मुझे भी टॉमी कहते हैं, लेकिन तुम कौन हो?"
वह मुस्कुरा कर बोला, “मैं तुम हूँ, तुम सब हूँ...लेकिन इंसानों में मैं भी नहीं जानता कि मैं कौन हूँ... बहुत सारे नाम हो गए...”
कहकर वह लम्बे डग भरता हुआ चला गया।

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सुश्री अन्नपूर्णा बाजपेई 
(60). टाइमपास
.
ऑफिस में सुबह से वर्क प्रेशर झेल रही नीला रेस्टोरेंट में कॉफी पीने के लिए बैठी इंतजार कर रही थी । सर दर्द से फट रहा था सो उसने ऑंखें बंद करके कुर्सी की बैक पर अपना सिर टिका दिया । तभी चार-पांच लड़कियों का झुण्ड शोर मचाता हुआ अंदर दाखिल हुआ और ठीक उसके बैक साइड टेबल पर आकर विराजमान हो गया । इस अचानक उपजे शोर से अचकचा कर उसने आँखे खोली और पलट कर पीछे देखा फिर घूम कर बैठ गई उन लड़कियों में से एक ने पूछा , "लवली तू बता तेरा एग्जाम कैसा गया ? "
"अच्छा रहा ! मैंने तो यूँ ही मैंने टाइम पास के लिए दिया था मम्मी पाप दिमाग खाते थे इसलिए मैंने फॉर्म भर दिया ।"
लवली ने उससे पूछा ,' तू अपनी सुना तूने कोई एग्जाम दिया ??"
उसने कहा , " नहीं , मैं तो किसी तरह ग्रेजुएशन कर लूँ बस शादी कर लूँ तब तक मम्मी पापा के घर में किसी तरह टाइमपास तो करना है न !!"
सुधा ने कहा , " अखिलेश से शादी कर रही है न !"
वो बोली ,"न! न! वो आउटडेटेड फैशन का है उससे कौन करेगा शादी ! उसके साथ तो मैं सर्फ टाइमपास कर रही थी । वो बेचारा सचमुच दिल दे बैठा है , ईडियट कहीं का!! "
कुछ कहना चाहा उसने , लेकिन तब तक उनमें से एक बोल उठी ," अरे ! चल जल्दी वरना मेरे पेरेंट्स गला फाड़ना शुरू कर देंगे । दुनिया भर लेक्चर मिलेगा और मैं सुनने के मूड में नहीं हूँ ।" नीला उन लड़कियों की बातों से हैरानी में थी , "ये कैसा टाइमपास !! क्या सोच हो गई है इन कथित मार्डन कहलाने वाली लड़कियों की !!"
तब तक उसकी कॉफ़ी आ गई वह अपनी काफ़ी पीने में मशगूल हो गयी । लड़कियों की बातें उसके कानों में चुभ रही थी वह जल्दी जल्दी बाहर निकल जाना चाहती थी ।
--------------------------------------
(61) कृपा दृष्टि
.

नेता जी टोपी संवारते हुए तिरछी दृष्टि से कृतिका को देखे जा रहे थे , उन्होंने हाथ उठा कर कार्यकर्त्ता को बुलाया और उस लड़की के विषय में पूछा जो बहुत देर से सबको पानी नाश्ता देने में लगी हुई थी । चेले ने बताया ," सर वो बहुत गरीब घर की लड़की है उसका बाप शराबी था ,माँ ने चार चार बेटियां जनी तो उसे छोड़ कर दूसरी औरत के साथ भाग गया । माँ टी बी की मरीज है घर में यही कमाने वाली है बेचारी ने पढाई लिखाई भी छोड़ दी इसका सपना डॉक्टर बनने का था । लेकिन किस्मत इसे यहाँ ले आई ।"
नेता जी ने कहा ," इसको शाम को मेरे पास भेज देना , मैं इसके सारे दुःख दूर करने की कोशिश करूँगा । आखिर हमारा कर्त्तव्य है ।"
चेला दौड़ कर कृतिका के पास गया बोला," आज शाम नेता जी के निवास पर चली जाना तेरे वारे न्यारे हो जायेंगे, आज कृपा दृष्टि तुझ पर हुई है ।" और अपनी बायीं आँख धीरे से दबा दी ।
कृतिका का मन कड़वाहट से भर गया , कमीने कहीं के !! इतना ही बोल सकी ।
====================================================


(यदि किसी साथी की रचना संकलन में सम्मिलित होने से रह गई हो तो अविलम्ब सूचित करें) 

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इस त्वरित संकलन हेतु हृदय से आभार आदरणीय प्रधान सम्पादक जी.

जय ओबीओ

आदरणीय मंच संचालक महोदय,
(ओबीओ लघुकथा गोष्ठी)

लघुकथा गोष्ठी के भव्य रजत जयंती अंक 25 के शानदार आयोजन ,संचालन व शानदार ५८ लघुकथाओं के संकलन हेतु तहे दिल से बहुत-बहुत बधाई और आभार। सूचना अनुसार मैंने अपना पूरा पता, ई-मेल(२) विवरण व फोन नंबर सहित प्रेषित कर दिए हैं अपनी प्रोफाइल व व्यक्तिगत ई-मेल से।
सभी सहभागी रचनाकारों को बेहतरीन सहभागिता व सक्रियता के लिए सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
(०१/०५/२०१७)

आदरणीय शेखजी यह सभी को देना है क्या ? बताएं.

जिन्हें सहभागिता प्रमाण-पत्र चाहिए, उन्हें तो अपना पूरा पता मेल करना ही होगा० ओमप्रकाश क्षत्रिय जीI प्रमाण पत्र छप कर आ चुके हैं, सभी साथिओं के पते मिल जाएँ तो भेजने की प्रक्रिया आरम्भ होI 

ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

सशि, पोस्ट ऑफिस के पास

रतनगढ़-458226(नीमच) मप्र

opkshatriya@gmail.com

9424079675

 

 

आदरणीय भाई साहब, 

प्रणाम.

यह इस आयोजन को एक यादगार गौरुवमय प्रतिक होगा, जिसे हर कोई सम्हाल कर रखेगा. इस नए व उम्दा विचार के लिए बधाई. सभी को शुभकामनाएँ.

आप का साथी  

लघुकथा गोष्ठी​ के रजत जयंती अंक को चिंतन-मनन की ऊंचाई​ पर पहुंचाती हुई बेहतरीन विचारोत्तेजक व प्रभावोत्पादक लघुकथा "पहचान" के लिए आदरणीय डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी जी को तहे दिल से बहुत-बहुत बधाई और आभार। इंसान अपनी मूल पहचान खोकर अपने बहुत सारे नामों में ही तो उलझ कर रह गया है! प्रकाश/नूर/रौशनी होते हुए भी अंधकार में रौशनी के लिए ही भटक रहा है, अपने ही अंदर ईश्वर के अंश रूपी मानवता के नूर को पहचाने बिना मृग की तरह दुनिया की मृग-मरीचिका में मृगतृष्णा के साथ!
सादर

- शेख़ शहज़ाद उस्मानी
क्रमांक १७ पर रचनाकार​का नाम त्रुटिपूर्ण टंकित हुआ है?

इसे "ईस्टर एग" कहते हैं जो रौनक बरकरार रखने की गर्ज़ से जान बूझकर भी छोड़ दिया जाता हैI वैसे प्रतिभा पाण्डेय जी के नाम में भी त्रुटी थी, वह कैसे नज़र अंदाज़ कर गए भाई उस्मानी जी?

रजत जयंती आयोजन धूमधाम से संपन्न हुआ,इस बार आयोजन में बेहतरीन कथायें पढने मिली ।दिली बधाईयां आद०योगराज प्रभाकर जी व पूरी टीम को मेरी तरफ से सादर ।

ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी रजत जयंती अंक के सफल संचालन और सफलता पूर्वक समापन हेतु आदरणीय योगराज जी सर और पूरी ओबीओ टीम को सादर हार्दिक बधाई| 

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