आदरणीय साथिओ,
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सावन का अँधा
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 युवा कवयित्री कनिका को अचानक सामने पाकर साठ से अधिक वसंत देख चुके सत्यार्थी जी एकदम चौंक उठेI लगभग एक वर्ष के पश्चात आज वे एक पार्टी में अप्रत्याशित रूप से एक दूसरे के सामने थेI सत्यार्थी जी कनिका की जलती हुई आँखों का सामना नहीं कर पा रहे थे, उनका दमकता हुआ चेहरा एकदम पीला पड़ने लगा थाI उन्होंने आँखें बचाने की भरपूर चेष्टा की, किन्तु कनिका तेज़ी से उनकी तरफ बढ़ी और लगभग उन्हें घेरते हुए बोली:
 "कहिए सत्यार्थी जी, कैसे हो?" 
 "जी..जी.. मैं ठीक हूँ कनिका जी, आप कैसी ..?" सकपकाते हुए सत्यार्थी जी ने उत्तर दियाI 
 "मेरी छोड़ो, बस आप एक बात का जवाब दोI" कनिका यह अवसर चूकना नहीं चाहती थीI 
 "देखिए कनिका जी! उस दिन जो कुछ हुआ, मैं उसके लिए आपसे माफ़ी मांगता हूँI” मिमियाते हुए सत्यार्थी जी ने कहाI 
 "माफ़ी वाफी कुछ नहीं, आज सबके सामने तुम्हारी औकात का भांडा फोड़कर रहूंगीI" क्रोध का ज्वालामुखी फूटने को तैयार थाI 
 "देखिए आप एक समझदार लड़की हैं..." धीमे स्वर में वे बोलेI 
 "लड़की? उस दिन फोन पर क्या कह रहे थे? आधी रात को कैसे कैसे मेसेज दे रहे थे?" कनिका की ऑंखें क्रोध से लाल हो रही थींI 
 "कनिका जी प्लीज़...."
 "याद है क्या कह रहे थे? सर्दी का मौसम है और पत्नी भी एक हफ्ते के लिए बाहर गई है मुशायरे के लिएI" कनिका गुस्से में उबल पड़ीI
 "प्लीज़ कनिका जी....ज़रा धीरे बोलिए लोग सुन लेंगे तो क्या कहेंगे?" सत्यार्थी जी गिड़गिड़ाएI 
 "ये बात तब याद नहीं आई थी जब मुझे कह रहे थे ठंडे बिस्तर पर अकेले नींद नहीं आती, आ जाओ कनिका?" कनिका का स्वर लगातार उग्र होता जा रहा थाI 
 "मैं तब शायद नशे में था, प्लीज़ मुझे माफ़ कर दोI"
 “मैं तुम्हारी बेटी की उम्र की हूँ, शर्म नहीं आई थी आधी रात को ऐसे अश्लील सन्देश भेजते हुए?" 
 “मैं उस दिन के लिए बहुत शर्मिन्दा हूँ..." सत्यार्थी जी की झुकी हुई गर्दन उठने का नाम नहीं ले रही थीI 
 "तुम्हारी पत्नी मेरी गुरु माँ हैं, पता है न तुम्हें? तो आखिर तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई थी मुझे से ऐसे बात करने की?"
 “जी...वोI" सत्यार्थी जी की नजरें अब भी धरती में गड़ी हुई थीं.
 “क्या तुम्हें ये लगा था कि मै चरित्रहीन हूँ?”
 “नहीं वो बात नहीं..."
 “तो फिर तुम शालीनता की हर सीमा क्यों लांघ गए थे?" 
 ज़मीन पर नज़रे गड़ाए खड़े सत्यार्थी जी की ज़ुबान पर अंतत:सच आ ही गया, गले का थूक निकलते हुए वे बोले: 
 "दरअसल, आपके खुले स्वभाव से मुझे लगा था कि शायद आप भी मेरी बीवी जैसी ही हैंI“
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 (मौलिक और अप्रकाशित)
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, आपने एक सुन्दर और सामयिक विषय पर आधारित लघुकथा के साथ रजत जयंती की लजवाब शुरुआत की है |हमलोग इस कथा को पढ़कर लघुकथाएं लिखने की कला से रूबरू होते हैं | एक सार्थक रचना के लिए साधुवाद!
भाई सुनील वर्मा जी, मुझे न केवल आपकी रचना की ही प्रतीक्षा रहती है बल्कि रचनाओं पर समीक्षा की भीI किन्तु इस लघुकथा पर आपकी प्रतिक्रिया उस स्तर की नहीं है जिसकी मुझे आशा रहती हैI आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि मैं आलोचना से घबराता नहीं हूँ, बल्कि आलोचना करने वाला का हमेशा आभार मानता हूँ, इसीलिए कभी कुर्तक नही करता और न ही बिना मतलब सफाई दिया करता हूँI गलती हो तो उसे ईमानदारी से स्वीकार करता हूँI इस कथा में कुनिका और सत्यार्थी के इलावा एक और भी पात्र है जिसके चरित्र का सर्टिफिकेट खुद उसके पति ने पेश किया है, उस तरफ कम से कम आपका तो ध्यान जाना चाहिए थाI छवि को नुक्सान पहुँचाने वाली बात से भी मैं सहमत नहीं हूँ, क्योंकि मेरी रचना का मूल सार किसी की छवि पर केन्द्रित है ही नहींI यहाँ तो मुद्दा ही अलग है, किसी नवोदित को दो तरफ़ा धोखा मिलने का हैI
//जो बत कल तक दोनों के मोबाईल संदेशों में कैद थी आज वह भरे सभागार में सबके सामने थी// तो क्या यहाँ पलायनवादी नजरिया ठीक रहता? अपराधी को खुले आम छूट दे दी जाती? बिलकुल नहींI बहरहाल, इतने मनोयोग से टिप्पणी करने व शुभारम्भ की बधाई हेतु हार्दिक आभारI
रजत जयंती आयोजन का श्रीगणेश करने के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ।
हार्दिक आभार डॉ रवि प्रभाकर जी.
इस स्नेहसिक्त टिप्पणी हेतु हार्दिक आभार आ० मोहम्मद आरिफ जी.
हार्दिक आभार आ० डॉ विजय शंकर जी.
आपकी बधाई सर आँखों पर सीमा सिंह जी.
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