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आदरणीय साहित्य-प्रेमियो,

सादर अभिवादन.

 

ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, अंक- 34 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है.

इस आयोजन में प्रयुक्त चित्र श्री कँवल आनन्द के सौजन्य से प्राप्त हुआ है जो जम्मू-कश्मीर में पत्रकार-फोटोग्राफर के रूप में कार्यरत हैं. इस चित्र को परिभाषित करती हुई छंद-रचना प्रस्तत करनी है.

आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ – 

18 जनवरी 2014  दिन शनिवार

से

19 जनवरी 2014 दिन रविवार

 

 

 

छंदोत्सव के नियमों में कुछ परिवर्तन किये गए हैं इसलिए नियमों को ध्यानपूर्वक अवश्य पढ़ें |

 

 

 

 

इस बार से "चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" के मूल स्वरूप को स्थायी रखते हुए व्यावहारिक परिवर्तन किया जा रहा है. छंदोत्सव का आयोजन अबसे निर्धारित छंदों पर ही आधारित होगा.

इस बार के आयोजन के लिए दो छंदों का चयन किया गया है, दोहा छंद और रोला छंद.

प्रस्तुतकर्ता एक बार की प्रवष्टि में अधिक-से-अधिक पाँच दोहे या/और दो रोले प्रस्तुत कर सकते हैं.

ऐसा न होने की दशा में आपकी प्रविष्टि ओबीओ प्रबंधन द्वारा अस्वीकार कर दी जायेगी.

 

उन सदस्यों के लिए जो दोहा और रोला छंदों के आधारभूत विधानों से परिचित नहीं हैं, उनके लिये संक्षिप्त विधान प्रस्तुत किये जा रहे हैं.

 

लेकिन उससे पूर्व मात्रिक छंदों में गेयता की सुनिश्चितता हेतु निम्न विन्दुओं को ध्यान से देखें.

शब्दों के उच्चारण और उसकी मात्राओं के समवेत स्वरूप के अनुसार शब्दों के कल  बनते हैं. जैसे, शब्दों के द्विकल, शब्दों के त्रिकल, शब्दों के चौकल, षटकल आदि. इसी के अनुसार पदों का प्रवाह निर्धारित होता है.

द्विकल, चौकल आदि शब्दों को सम मात्रिक शब्द कहते हैं.

जैसे, हम, वह, निज आदि.

जबकि त्रिकल या षटकल आदि शब्दों को विषममात्रिक शब्द कहते हैं.

जैसे, हुआ, बड़ा, कहाँ आदि त्रिकल हैं.

 

यों, कोई शब्द षटकल हो तो वह उच्चारण के लिहाज से सममात्रिक ही हुआ करता है. यानि वह दो विषम शब्दों का पूर्ण स्वरूप होने से सम शब्द ही माना जाता है. 

दीवाना, आवारा, परंपरा आदि षटकल शब्द हैं.

व्यवहार जैसा शब्द द्विकल और त्रिकल के समूह है. व्यव द्विकल तथा हार त्रिकल.

 

इस तथ्य को समझ लेने से चरणों के कुल शब्दों की मात्रा को गिनने के अलावे शब्द-विन्यास को निर्धारित करने में भी सहुलियत हो जाती है. साथ ही साथ, गेयता को सुचारू रूप से निर्धारित करने के लिए मात्रिकता को निभाना भी सहज हो जाता है.

यानि यह अवश्य मान लें कि कोई मात्रिक पद (छंद की एक पंक्ति) मूलतः सम शब्दों का ही समुच्चय बनाता है.

अर्थात कोई विषम शब्द हो तो उसके ठीक बाद विषम शब्द रख कर षटकल बनाने से सम मात्रिकता का निर्वहन हो जाता है. यानि विषम शब्द के बाद विषम शब्द ही आवे और सम के बाद एकदम से विषम शब्द न आवे.  आवे भी तो उस विषम के बाद एक और विषम शब्द रख कर सभी शब्दों के समुच्चय को सम मात्रिक बना लेते हैं.

जैसे, बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर जैसे पद में बड़ा त्रिकल के बाद हुआ भी त्रिकल है. दोनो मिल कर षटकल का निर्माण करते हैं जो कि सम संख्या भी है. इस तरह गेयता या पढ़ने के (वाचन) प्रवाह में कोई दिक्कत नहीं आती.

 

दोहा छंद

दोहा एक ऐसा छंद है जो शब्दों की मात्राओं के अनुसार निर्धारित होता है. इसके दो पद होते हैं तथा प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं. पहले चरण को विषम चरण तथा दूसरे चरण को सम चरण कहा जाता है. विषम चरण की कुल मात्रा 13 होती है तथा सम चरण की कुल मात्रा 11 होती है. अर्थात दोहा का एक पद 13-11 की यति पर होता है. यति का अर्थ है विश्राम.

यानि भले पद-वाक्य को न तोड़ा जाय किन्तु पद को पढ़ने में अपने आप एक विराम बन जाता है.

 

दोहा छंद मात्रा के हिसाब से 13-11 की यति पर निर्भर न कर शब्द-संयोजन हेतु विशिष्ट विन्यास पर भी निर्भर करता है. बल्कि दोहा छंद ही क्यों हर मात्रिक छंद के लिए विशेष शाब्दिक विन्यास का प्रावधान होता है.

 

यह अवश्य है कि दोहा का प्रारम्भ यानि कि विषम चरण का प्रारम्भ ऐसे शब्द से नहीं होता जो या तो जगण (लघु गुरु लघु या ।ऽ। या 121) हो या उसका विन्यास जगणात्मक हो

अलबत्ता, देवसूचक संज्ञाएँ जिनका उक्त दोहे के माध्यम में बखान हो, इस नियम से परे हुआ करती हैं. जैसे, गणेश या महेश आदि शब्द.

 

दोहे कई प्रकार के होते हैं. कुल 23 मुख्य दोहों को सूचीबद्ध किया गया है. लेकिन हम उन सभी पर अभी बातें न कर दोहा-छंद की मूल अवधारणा पर ही ध्यान केन्द्रित रखेंगे. इस पर यथोचित अभ्यास हो जाने के बाद ही दोहे के अन्यान्य प्रारूपों पर अभ्यास करना उचित होगा. जोकि, अभ्यासियों के लिये व्यक्तिगत तौर पर हुआ अभ्यास ही होगा. 

 

दोहे के मूलभूत नियमों को सूचीबद्ध किया जा रहा है.

 

1. दोहे का आदि चरण यानि विषम चरण विषम शब्दों से यानि त्रिकल से प्रारम्भ हो तो शब्दों का संयोजन 3, 3, 2, 3, 2 के अनुसार होगा  और चरणांत रगण (ऽ।ऽ) या नगण (।।।) होगा.

 

2. दोहे का आदि चरण यानि विषम चरण सम शब्दों से यानि द्विकल या चौकल से प्रारम्भ हो तो शब्दों का संयोजन 4, 4, 3, 2 के अनुसार होगा और चरणांत पुनः रगण (ऽ।ऽ) या नगण (।।।) ही होगा.

 

देखा जाय तो नियम-1 में पाँच कलों के विन्यास में चौथा कल त्रिकल है. या नियम-2 के चार कलों के विन्यास का तीसरा कल त्रिकल है. उसका रूप अवश्य-अवश्य ऐसा होना चाहिये कि उच्चारण के अनुसार मात्रिकता गुरु लघु या ऽ। या 21 ही बने.

यानि, ध्यातव्य है, कि कमल जैसे शब्द का प्रवाह लघु गुरु या ।ऽ या 1 2 होगा. तो इस त्रिकल के स्थान पर ऐसा कोई शब्द त्याज्य ही होना चाहिये. अन्यथा, चरणांत रगण या नगण होता हुआ भी जैसा कि ऊपर लिखा गया है, उच्चारण के अनुसार गेयता का निर्वहन नहीं कर पायेगा.

 

३. दोहे के सम चरण का संयोजन 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3 के अनुसार होता है. मात्रिक रूप से दोहों के सम चरण का अंत यानि चरणांत गुरु लघु या ऽ। य 21 से अवश्य होता है.

 

कुछ प्रसिद्ध दोहे -

 

कबिरा खड़ा बजार में, लिये लुकाठी हाथ

जो घर जारै आपनो, चलै हमारे साथ

 

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर

पंछी को छाया नहीं फल लागै अति दूर

 

साईं इतना दीजिये, जामै कुटुम समाय

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय

 

विद्या धन उद्यम बिना कहो जु पावै कौन

बिना डुलाये ना मिले, ज्यों पंखे का पौन

 

रोला छंद

रोला छंद भी मात्रिक छंद ही है. रोला छंद के चार पद होते हैं. अतः आठ चरण होंगे.

लेकिन इसका मात्रिक विधान दोहे के विधान का करीब-करीब विपरीत होता है. यानि मात्राओं के अनुसार चरणों की कुल मात्रा 11-13 की होती है.

यानि, दोहा का सम चरण रोला छंद का विषम चरण बन जाता है और उसके विन्यास और अन्य नियम तदनुरूप ही रहते हैं.

किन्तु, रोला का सम चरण दोहा के विषम चरण की तरह नहीं होता.

 

प्राचीन छंद-विद्वानों के अनुसार रोले के भी कई और प्रारूप हैं तथा तदनुरूप उनके चरणों की मात्रिकता. लेकिन हम यहाँ इस छंद की मूलभूत और सर्वमान्य अवधारणा को ही प्रमुखता से स्वीकार कर अभ्यासकर्म करेंगे.

यहाँ प्रस्तुत उपरोक्त नियमों को फिलहाल रोला के आधारभूत नियमों की तरह लिया जाय.

 

रोला छंद के चरणों के विन्यास के मूलभूत नियम -

 

1. रोला के विषम चरण का संयोजन या विन्यास दोहा के सम चरण की तरह ही होता है,

यानि 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3 तथा चरणांत गुरु लघु या ऽ। या 21

 

2. रोला के सम चरण का संयोजन 3, 2, 4, 4 या 3, 2, 3, 3, 2 होता है. रोला के सम चरण का अंत दो गुरुओं (ऽऽ या 22) से या दो लघुओं और एक गुरु (।।ऽ या 112) से या एक गुरु और दो लघुओं (ऽ।। या 211) से होता है. साथही, यह भी ध्यातव्य है कि रोला का सम चरण ऐसे शब्द या शब्द-समूह से प्रारम्भ हो जो प्रारम्भिक त्रिकल का निर्माण करें.

 

रोला छंद के उदाहरण -

 

नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है.

सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है.

नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारा-मंडल हैं

बंदीजन खगवृन्द, शेष-फन सिंहासन है. .....(मैथिली शरण गुप्त)

 

ये मेरा खरगोश बड़ा ही प्यारा-प्यारा

गुलथुल गोल-मटोल, सभी को लगता न्यारा

खेले मेरे साथ, नित्यदिन छुपम-छुपाई

चोर-सिपाही दौड़, और पकड़म-पकड़ाई...  .....(कुमार गौरव अजीतेन्दु)

 

 

आयोजन सम्बन्धी नोट :

(1) 17 जनवरी 2013 तक Reply Box बंद रहेगा, 18 जनवरी दिन शनिवार से 19 जनवरी दिन रविवार  यानि दो दिनों के लिए Reply Box रचना और टिप्पणियों के लिए खुला रहेगा.

केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जायेंगीं.

 

विशेष :

यदि आप अभी तक www.openbooksonline.com परिवार से नहीं जुड़ सके है तो यहाँ क्लिक कर प्रथम बार sign up कर लें.

 

अति आवश्यक सूचना :

आयोजन की अवधि के दौरान सदस्यगण अधिकतम दो स्तरीय प्रविष्टियाँ अर्थात प्रति दिन एक के हिसाब से पोस्ट कर सकेंगे. ध्यान रहे प्रति दिन एक रचना,   कि एक ही दिन में दो रचनाएँ.

 

रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.

नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.

 

सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर एक बार संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

 

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति संवेदनशीलता आपेक्षित है.

 

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.

 

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से रोमन फाण्ट का उपयोग करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.

 

छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ

 

"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" के पिछ्ले अंकों को पढ़ने हेतु यहा...

 

मंच संचालक

सौरभ पाण्डेय

(सदस्य प्रबंधन समूह)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

अवश्य आदरणीय.

भावपूर्ण दोहावली एवं रोला छंदों हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारे आदरणीय अरुन निगम सर........

waah waah dono hi prastutiyan ati sunder hardik badhai preshit hai aaddarmiy arun nigam sir ..saadar

//पथ  कोई   हो  देश  का , लगे  इलाहाबाद

श्यामल तन नत नयन पुन:,हमको आये याद |//

कितने आए औ गए, नीले पीले वाद

ठूँठ रहे पर ठूँठ ही, इतने बरसों बाद     

 

//“दृश्य - निराला” पूछता , हुआ कहाँ बदलाव

वही  अनबुझी  प्यास है , वही  रीसता घाव |//

एक पुरानी बात को, देकर नया घुमाव
इस दोहे में भर दिया, बड़ा निराला भाव

 

//लाचारी  करती  नहीं , भूख - प्यास में भेद

क्षुधा  मिटाता  नीर तो , तृषा बुझाता स्वेद |//

भूख प्यास की है मिली, ग़ुरबत को सौगात

सच फ़रमाया आपने, सहमत हूँ मैं तात 

//जेठ और बैसाख की, चिल-चिल चिलके घाम

छाँव  घमेला*   मांगता , रापा  भी  विश्राम |  //

रेखायों से मिट चुका, इनके तो आराम 

इनके माथे पर लिखा, काम काम बस काम  

टूटे  दिल-सी गिट्टियाँ  , करें  यही फ़रियाद

जिसने  तोड़ा  है  हमें , रहे  सदा  आबाद  |

टुकड़े टुकड़े दिल हुआ, ख़ुशी रही ना याद 

करें गुलामी पेट की, कहने को आज़ाद 


 

रोला

(१)

पाल रही परिवार ,बहा कर रोज पसीना

हालातों से हार, मानती किन्तु कभी ना

बदले कितने राज, खेल अब भी है जारी

सदियों से  संताप , झेलती  आई नारी  ||

खून जलाती रोज़, खोजती है दो रोटी   
खोटे पाये भाग, नुचे है बोटी बोटी
कुनबा लेती पाल, कमाकर ये बेचारी
देना मत भगवान, कभी ऐसी लाचारी

(२)

हुई  साँवली देह , धूप में श्रम कर करके

घर को रही सँवार,रात-दिन खुद मर मरके

आश्वासन सुन कान पके उठ गया भरोसा

है दिन का आहार , चाय के साथ समोसा ||

हुआ नदारद रूप, जवानी हुई बुढ़ापा

खो दी बेशक देह, नहीं खोया पर आपा

सपना छप्पन भोग, यही दिल से है माना

बस इतनी ही सोच, मिले कब पूरा खाना

बहुत ही सुन्दर आदरणीय! पाँचों दोहे और दोनों रोला छंद लाजवाब हैं! आपको बहुत बहुत बधाई!

सुंदर छंदों के लिए बधाई स्वीकारें अरुण जी

पथ  कोई   हो  देश  का , लगे  इलाहाबाद
श्यामल तन नत दृग पुन:, हमको आये याद |
महाप्राण को क्या कहें, जिनकी पहुँच कमाल
एक शहर के नाम से, करते कई सवाल

“दृश्य - निराला” पूछता , हुआ कहाँ बदलाव
वही  अनबुझी  प्यास है , वही  रीसता घाव |
सही रखा यह तथ्य भी, धन्यवाद श्रीमान
दुखिया जीवन आजतक, दर्द रहा है टान

लाचारी  करती  नहीं , भूख - प्यास में भेद
क्षुधा  मिटाता  नीर तो , तृषा बुझाता स्वेद |
उन्नत शब्दों से किया, तथ्य यहाँ अभिव्यक्त
क्षुधा-तृषा के यज्ञ में, होम दिखे है रक्त  

जेठ और बैसाख की, चिल-चिल चिलके घाम
छाँव  घमेला*   मांगता , रापा  भी  विश्राम |  
बहुत दर्द है छंद में, निकले उर से आह  
आदम की बच्ची कहो, कितनी हुई तबाह !

टूटे  दिल-सी गिट्टियाँ  , करें  यही फ़रियाद
जिसने  तोड़ा  है  हमें , रहे  सदा  आबाद |
कवि की उर्वर कल्पना, कवि के सुन्दर छंद
कवि से हमसब ले रहे, भाव-शब्द के बंद  


रोले पर अब क्या कहें, अद्भुत हुआ प्रयास
चित्र निखर कर और भी, हुआ शब्द से खास

आदरणीय अरुण भाईजी,  हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ..
सादर

लाचारी  करती  नहीं , भूख - प्यास में भेद

क्षुधा  मिटाता  नीर तो , तृषा बुझाता स्वेद |........वाह ! बहुत खूब !

आदरणीय अरुण निगम साहब सादर, बहुत ही सुन्दर दोहा और रोला छंद रचे हैं सादर बधाई स्वीकारें.

दिन-दिन बढती जा रही, श्रमिकों की तादाद |

प्यास बुझाएं स्वेद कण, क्या है इसके बाद ||

वाह आदरणीय वाह, पाँचो दोहे और दोनों रोले बहुत ही श्रेष्ठ स्तर के हुए हैं, आपने अपनी प्रस्तुति में चित्र को समाहित कर लिया है, एक लेकिन …….

है दिन का आहार , चाय के साथ समोसा

मजदूरों को चाय समोसा कहाँ मिले आदरणीय।

बधाई इस प्रस्तुति पर।

हमारे क्षेत्र में मजदूर दोपहर को चाय और समोसा खाकर ही गुजारा कर लेते हैं.

आ० अरुण निगम जी 

हर दोहे और रोले में शब्द भाव के मोती चुन चुन के पिरोये हैं 

टूटे  दिल-सी गिट्टियाँ  , करें  यही फ़रियाद

जिसने  तोड़ा  है  हमें , रहे  सदा  आबाद  |...............यह दोहा तो बहुत ही लाजवाब हुआ है 

चित्र  को पूर्णतः परिभाषित करती इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय 

वही  अनबुझी  प्यास है , वही  रीसता घाव |...जवाब नहीं 

लाचारी  करती  नहीं , भूख - प्यास में भेद

क्षुधा  मिटाता  नीर तो , तृषा बुझाता स्वेद |..क्या कहने 

छाँव  घमेला*   मांगता , रापा*  भी  विश्राम |   घमेला* / रापा* *छत्तीसगढ़ की याद  दिला  दी 

बदले कितने राज, खेल अब भी है जारी

सदियों से  संताप , झेलती  आई नारी  ||...सुंदर 

हुई  साँवली देह , धूप में श्रम कर करके

घर को रही सँवार,रात-दिन खुद मर मरके.....सटीक अरुण कुमार निगमजी 

 

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