कुंडलिया -
सबके अन्दर जी रहा , मेरा , मै का भाव
वही डिगाता है सदा , आपस का सदभाव
आपस का सदभाव , मिटाये ऐसी दूरी
रिश्ते का सम्मान , हटा दे हर मजबूरी
टूटे रिश्ते जुड़ें , सामने कहता रब के
रहे सरलता भाव, प्रज्वलित अन्दर सब के
मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
कुंडली के भाव बहुत सुन्दर हैं, बधाई स्वीकारें आ० भंडारी जी.
आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब सादर, सुन्दर कुण्डलिया छंद रचा है. संशोधन के बाद के प्रभाव पर ध्यान न देने से रचना के भाव गड्डमड्ड हो गए हैं. “टूटे रिश्ते जुड़ें” में गेयता बाधित है. देख लें. सादर
जिस ‘मैं’ के भाव को लेकर आपने रचना की है वह यकीनन आज प्रबल है.
सबके अन्दर जी रहा, अब तो मैं का भाव
जितनी झाडू फेर दो, बदले नहीं स्वभाव
बदले नहीं स्वभाव, अहम का पिंड निराला,
पाकर चिंदी आज, हुआ मूषक मतवाला,
हो मालिक या दास, रहे ना कोई दब के,
वर्तमान नव रूप, भरे अन्दर मैं सबके ||
इस संयत प्रयास के लिए हार्दिक बधाई भाईजी.
सुधीजनों ने सार्थक बातें बतायी हैं. अच्छा लग रहा है.
सादर
आदरणीय गिरिर्राज जी, आपका प्रयास सही दिशा में है!
दोहे का अंतिम चरण रोले का प्रथम चरण होता है लेकिन तब यह भी ध्यान रखना होता है कि रोले के दूसरे चरण से उसकी तारतम्यता बनी रहे, यहाँ थोड़ी चूक हुई लगती है जिसके कारण अर्थ उल्टा हो रहा है! रोले की तीसरी पंक्ति में भाव अस्पष्ट है!
इस प्रयास के लिए आपको हार्दिक बधाई!
मित्र/ अनुज
छंदकार बन जायेंगे , गज़लकार जी आप i
यह तो अद्भुत सत्य है, कोई दिव्य प्रताप ii
कोई दिव्य प्रताप, सुरभि देता जब मन में i
उठते नव उदगार , सहज ही भाव गगन में ii
आती है विश्रांति , तब लोचन होते बंद i
मोती सा तब सीप, में जगमग करता छंद ii
बहुत बहुत बधाई मित्र i
आदरणीय राम भाई , आपका शुक्रिया !! सुधार के प्रयास मे हूँ ॥
आदरणीय नादिर खान भाई , रचना की सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय रमेश भाई , प्रयास की सराहना और सही सलाह के लिये आभार । सुधार के प्रयास मे हूँ ।
आदरणीय श्याम भाई, आपका बहुत बहुत आभार ॥
आदरणीय बड़े भाई , कुंडलिया रचने के प्रयास मे हूँ , धीरे धीरे सीख रहा हूँ । प्रयास की सराहना के लिये आभार । आपकी सलाह भी सही है , भाव गलत हो रहा है , आवश्यक सुधार करूंगा ॥
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