वो हमें कब मिला है खुदा की तरह ।
जो रहा है सदा बन हवा की तरह ।
अब उसे कैसे पहचान वो पायेगा,
जो यहाँ बदलता है अदा की तरह ।
अब वही राह दिखाने आया है मुझे,
जो मेरा था कभी बेवफा की तरह।
वो क्या भर देगा खुशिय़ा दामन तेरे,
जिन का अपना रहा है खला की तरह।
हम भुलाया जमाने को जिस के लिये ,
साथ वो फिर क्यूँ है सज़ा की तरह।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
अच्छा प्रयास है, शुभेच्छाएं आदरणीय।
शानदार प्रस्तुति है आ0 मोहन भाई जी..... बहुत बहुत बधाई....
आदरणीय मोहनजी ...
अब उसे कैसे पहचान वो पायेगा,
जो यहाँ बदलता है अदा की तरह ..इस सुंदर ग़ज़ल का ये शेर मुझे बेहद भाया ..सादर बधाई के साथ
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय मोहन जी ....बहुत बहुत बधाई आपको सादर
सुंदर गजल । बधाई आपको आ0 मोहन बेगोवाल जी ।
आदरणीय मोहन भाई , बहुत सुन्दर गज़ल कही है आपने , आपको बहुत बधाई !!!!! कुछ शे र बह्र से बाहर हो रहे है !
!!! कृपया सुधार लें !!!
शिज्जू जी, आप जी ने ठीक कहा,ये मुतदारिक मुसम्मन सालिम(212 212 212 212) हैं,गोपाल जी ,आप जी का भी उत्साह्त करने के लिए धन्यवाद
अच्छी लेखनी है आदरणीय वाहाहाह
बेगोवाल जी . श्या शायद टाइप त्रुटि है I मैं शिल्प पर अधिक ध्यान नहीं देता वह तो मंजते मंजते निखरेगा पर यदि भाव मन को छू लें तो वही रचना की सफलता है I फिलहाल आगाज़ ठीक है अंजाम आपकी मेहनत पर निर्भर करेगा I
आदरणीय बेगोवाल सर प्रथम दृष्टया आपकी ग़ज़ल से ऐसा लग रहा है आपने बह्रे मुतदारिक मुसम्मन सालिम(212 212 212 212) पे ये ग़ज़ल कही है मगर फिर भी आप बह्र का उल्लेख कर दें तो चर्चा आसान हो जायेगी,
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