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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181

परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 181 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा वरिष्ठ साहित्यकार स्वर्गीय गोपाल दास ‘नीरज’ जी की ग़ज़ल से लिया गया है।
तरही मिसरा है:
“तुझ को मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए”
बह्र है फ़ायलातुन्, फ़ायलातुन्, फ़ायलातुन्, फ़ायलुन् अर्थात् 2122 2122 2122 212
रदीफ़ है ‘’चाहिए’’ और क़ाफ़िया है ‘’लना’’
क़ाफ़िया के कुछ उदाहरण हैं गलना, पलना, चलना, छलना, जलना, ढलना, मलना, संभलना, उछलना आदि
उदाहरण के रूप में, मूल ग़ज़ल यथावत दी जा रही है।
मूल ग़ज़ल:
है बहुत अँधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए।


रोज़ जो चेहरे बदलते हैं लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उन का निकलना चाहिए।


अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए।


फूल बन कर जो जिया है वो यहाँ मसला गया
ज़ीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए।


छीनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आँख से आँसू नहीं शो'ला निकलना चाहिए।


दिल जवाँ सपने जवाँ मौसम जवाँ शब भी जवाँ
तुझ को मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए।

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 26 जुलाई दिन शनिवार को हो जाएगी और दिनांक 27 जुलाई दिन रविवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

तिलक राज कपूर

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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2122 2122 2122 212
****
रात से मिलने को  दिन  तो यार ढलना चाहिए
खुशनुमा हो चाँद को फिर से निकलना चाहिए।१।
*
अजनवी सी राह भी है और हम भी अजनवी
पर सफर में दो कदम तो साथ चलना चाहिए।२।
*
मन की तन्हा झील में जब भी कोई पत्थर गिरे,
कुछ पुरानी पीर को भी फिर उछलना चाहिए।३।
*
चाँद जो सोया  हुआ  है  कश्तियों  के तीर पर,
एक साहिल उसकी तन्हाई को मिलना चाहिए।४।
*
रूह की गलियों में है इक अनबुझा-सा दीप जो,
इस जहाँ की हर हवा से बच निकलना चाहिए।५।
*
हैं खुली भयभीत इतनी बन्द तक होती नहीं
बन्द आँखों में कहीं तो स्वप्न पलना चाहिए।६।
*
मन में  गहरे  राज  हैं  जो  जानने को सब सजग
"तुझ को मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए”।७।

*
मोह लेते नित "मुसाफिर" रास्ते बेढब मगर
मंजिलों के वास्ते भी मन मचलना चाहिए।८।
*
मौलिक/अप्रकाशित

इस बार के तरही मिसरे को लेकर एक प्रश्न यह आया कि ग़ज़ल के मत्ले को देखें तो क़ाफ़िया 'अलना' निर्धारित होता है अत: तरही मिसरा ''तुझ को मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए' में 'मिलना' शब्द से मिल रहे 'इलना' क़ाफ़िया को ईता दोष माना जायेगा। इस तरही में उदाहरणस्वरूप दिये गये क़ाफ़िया गलना, पलना, चलना, छलना, जलना, ढलना, मलना, संभलना, उछलना आदि हैं जो 'अलना' स्वर का पालन कर रहे हैं। ऐसे में यह तो स्पष्ट है कि स्वीकार्य क़ाफ़िया शब्द क्या होंंगे लेकिन गिरह का शेर में अरूज़ के अनुसार ईता दोष रहेगा। इसी ग़ज़ल से अन्य कोई मिसरा तरही के लिये देना सरल होता लेकिन फिर भी ग़ज़ल से ऐसे मिसरे का चयन किया गया जो क़ाफ़िया पर चर्चा का कारण बन सके। 

एक अन्य प्रश्न तरही मिसरे में तनाफ़ुर ऐब को लेकर आया जो 'इस समय' में 'इस' के अंत में आये 'स' और 'समय' के आरंभ में आये 'स' के सामीप्य को लेकर है। तनाफ़ुर का दोष है या नहीं यह केवल किसी व्यंजन विशेष के सामीप्य मात्र से निर्धारित नहीं हो सकता है। इसी कारण इसे ऐब माने जाने पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। मेरा मानना है कि अगर पूर्व के शब्द और बाद के शब्द को बह्र में स्वतंत्र रूप से पढ़ा जा सकता है तो तनाफ़ुर का प्रश्न उठाना प्रासंगिक नहीं है। 

आदरणीय तिलक जी नमस्कार 

बहुत बहुत आभार आपका ,ये प्रश्न मेरे मन में भी थे 

सादर 

आ. भाई तिलकराज जी, सादर अभिवादन। 'मिलना' को लेकर मेरे मन में भी प्रश्न था, आपके मार्गदर्शन से समाधान हो गया। इसके लिए आभार।

आ. तिलकराज सर,

मैंने ग़ज़ल की बारीकियां इसी मंच से और आप की कक्षा से ही सीखीं हैं।

बहुत विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि गोपालदास नीरज जी के इस मिसरे में ग़ज़ल के परिपेक्ष्य में ईता दोष है।

सिर्फ़ चर्चा हो सके इसके लिए कोई पोस्ट तैयार की जा सकती थी अथवा कोई फोरम डिस्कशन किया जा सकता था लेकिन सबसे लोकप्रिय आयोजन में ऐसे त्रुटिपूर्ण मिसरे को देकर आप ने मुझ जैसे ग़ज़ल प्रेमियों को आज के आयोजन से दूर कर दिया।

मेरे मतानुसार तरही आयोजन ग़ज़ल पर चर्चा का माध्यम बाद में है, पहले ग़ज़ल कहने वालों को ग़ज़ल कहने हेतु प्रेरित करने का माध्यम पहले है।

साथ ही यह मंच की समृद्ध परंपरा और गरिमा से जुड़ा प्रश्न भी है।

आप से निवेदन है कि इसी ग़ज़ल का कोई और मिसरा दे दें ताकि सिर्फ गिरह का शेर बदलने से ग़ज़ल भी दोष से बच जाए और अन्य मंचों पर बातें भी न बनें।

शेष आपके विवेक पर छोड़ता हूं।

सादर

अभी तो तात्कालिक सरल हल यही है कि इसी ग़ज़ल के किसी भी अन्य शेर की द्वितीय पंक्ति को गिरह के शेर में ले लें "अलना" को काफिया लेते हुए। गिरह का शेर भर ही बदलना होगा। 

गिरह का शेर तो यूं भी किसी अन्य के मिसरे का उपयोग किए जाने के कारण ग़ज़ल को मुशायरे के बाद अंतिम रूप देते समय हटा कर इसका निराकरण किया जा सकता है।

मैं इससे सहमत हूं कि "मिलना" का उपयोग दोषपूर्ण है और ग़ज़ल से यह मिसरा उठाते समय मुझे यह उपयोग अखरा लेकिन फिर भी मेरे मन में यह विचार आया कि नीरज जी द्वारा इसका उपयोग किया गया तो मेरी समझ में इसका कारण यही रहा होगा कि अरूज़ का ज्ञान पूर्व में सहज उपलब्ध नहीं था और हिंदी में शायरी करने वालों द्वारा शब्दांत पर काफिया बांध जाता रहा है तो क्यों न इस पर मंच पर तरही के माध्यम से चर्चा ही कर ली जाए। इस पर अलग पोस्ट हो सकती थी लेकिन मैं देख रहा हूं कि अब जिनकी रुचि बची है वो अधिकांश संख्या में तरही पर ही उपस्थित होते हैं।

इसके बारे में बाद में आर पी शर्मा महर्षि जी ने अपनी पुस्तकों और आलेखों में बहुत सी बातें स्पष्ट की हैं जिनमें मूल शब्द के भी अंदर जाकर देखने की बात आई। यह बात ग़ज़ल की कक्षा में हुई काफिया पर चर्चा में स्पष्ट की गई है।

2122 2122 2122 212

दोस्तों के वास्ते घर से निकलना चाहिए

सिलसिला यूँ ही मुलाक़ातों का चलना चाहिए १

है जुदा हर एक इंसाँ शख़्सियत भी है अलग

क्यों किसी के वास्ते खुद को बदलना चाहिए २

जी सकें जिसके लिए हो ज़ीस्त का मक़सद कोई

ख़्वाहिशों को तो दिलों में यार पलना चाहिए ३

अलविदा कहना हुआ मुश्किल तो दिल ने ये कहा

साथ उसके मुझको भी कुछ देर चलना चाहिए ४

तान कर सीना डटे हैं सरहदों पे देशभक्त

उनके जैसे ही लहू अपना उबलना चाहिए ५

अपनी अपनी जिद पे कब तक यूँ अड़े रहिएगा आप

बीच का रस्ता "रिया" अब तो निकलना चाहिए ६

गिरह-

रात बारिश की कहे चल भीगते हैं साथ हम

"तुझको मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए”

“मौलिक व अप्रकाशित”

ग़ज़ल

आ गया है वक्त अब सबको बदलना चाहिये।
मेहनत से जिन्दगी में रंग भरना चाहिये।
-
मेहनतकश की नहीं होगी कभी झोली खाली
अब पसीने की महक हर ओर बहना चाहिये।
-
भूख आगे आज सब रिश्ते हुए क्यों गौण है
दाल रोटी वक्त दो मिलना सभी को चाहिये।
-
आदमी को मुफ्त में कोई खुशी मिलती नहीं
मेहनत का मोल अब सबको समझना चाहिये।
-
हो गये है आलसी हम भागते है काम से
अब बहानो से वतन को दूर रखना चाहिये।
-
देश अपना हो चमन है कामना अब तो यही
मेहनत का इक नया संसार बसना चाहिये।
-
गिरह
प्यास दिल में प्यार की जब भी जगे तो सांवरी
“तुझ को मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए”।
- दयाराम मेठानी
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
- दयाराम मेठानी

आदरणीय तिलकराज कपूर जी, आज लाइव तरही मुशायरा में मैने जो ग़ज़ल पोस्ट की है उसके काफिये में ध्यान रखना भूल गया और बाद में मुझे महसूस हुआ कि काफिया गलत मन मर्जी के लिखे है। अब मैं इनको बदलना चाहता हूँ या अपनी रचना को हटा लेना चाहता हूँ। कृपया बतायें कि मैं इसे कैसे हटा सकता हूँ या आप ही हटा दें ताकि मैं इसे ठीक कर फिर पोस्ट के काबिल बना सकूँ। सादर।
— दयाराम मेठानी

इसमें एडमिन की सहायता लगेगी आपको।

२१२२ २१२२ २१२२ २१२

अब तुम्हारी भी रगों में खूँ उबलना चाहिए

ज़ुल्म करने वालों का सीना दहलना चाहिए/१

थर्थरा उठ्ठे हुक़ूमत शोषितों की गूँज से

हर दबी आवाज़ को बाहर निकलना चाहिए/२

हो गुमाँ जिसको घिनौनी जातिवादी सोच पर

उसको अपना नज़रिया फ़ौरन बदलना चाहिए/३

धर्म से ऊपर रखेंगे हम सभी इंसानियत

हर किसी की आँख में ये ख़्वाब पलना चाहिए/४

सैकड़ों मज़हब से अच्छा है रहूँ मैं नास्तिक

क्यों मुझे हर भेड़ के जैसे ही चलना चाहिए/५

कौन हो क्या हो बताओ जाति क्या है आपकी

पूछने वालों का सर पहले कुचलना चाहिए/६

जिससे लड़ने के लिये रहबर बने अंबेडकर

दैर वो दलदल है बहुजन को संभलना चाहिए/७

लिख रहा है ग़र अछूतों पर सितम की दास्ताँ

क्यों नहीं मेरा क़लम शोले उगलना चाहिए/८

मुद्दतों शोषण किया मज़हब ने जिसको डालकर

औरतों के रुख़ से वो पर्दा फिसलना चाहिए/९

दो किलो राशन के बदले छीन ले जो हक़ सभी

क्या हमें ऐसे खिलौने से बहलना चाहिए/१०

आँधियाँ आयें तो आयें ग़म नहीं आज़ी' मगर

ये चराग़-ए-तर्बियत हर रोज़ जलना चाहिए/११

गिरह का दोषपूर्ण शे'र-

भीड़ में गुमराह ना कर दें तुझे सरगोशियाँ

"तुझ को मुझसे इस समय सूने में मिलना चाहिए"

(मौलिक व अप्रकाशित) 

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2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

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