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निकलेगा आफ़ताब इसी आसमान से (ग़ज़ल)

221   2121  1221  212

क़ीमत ज़बान की है जहाँ बढ़के जान से
है वास्ता हमारा उसी ख़ानदान से

चढ़ना है गर शिखर पे, रखो पाँव ध्यान से
खाई में जा गिरोगे जो फिसले ढलान से

पल - पल झुलस रही है ज़मीं तापमान से
मुकरे हैं सारे अब्र अब अपनी ज़बान से

काली घटाएँ रास्ता रोकेंगी कब तलक?
निकलेगा आफ़ताब इसी आसमान से

ये दौलतों के ढेर मुबारक तुम्हीं को हों
हम जी रहे हैं अपनी फ़क़ीरी में शान से

क्या-क्या न हमसे छीन गयी ये तरक्कियाँ
गुल तो हैं पर है ख़ुशबू नदारद बगान से

छू ली बुलंदियाँ तो ये एहसास "जय" हुआ
कितनी क़रीब है ये ज़मीं आसमान से

(मौलिक व अप्रकाशित)

© जयनित

Views: 630

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Comment by Shyam Narain Verma on August 27, 2018 at 11:54am
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई ! 
Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on August 26, 2018 at 2:07pm

आदरणीय जयनीत कुमार मेहता जी सुंदर गजल लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 26, 2018 at 11:30am

भाई जयनित जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई .

Comment by Samar kabeer on August 25, 2018 at 10:50pm

यहाँ भी ऐडिट कर दीजिये ।

Comment by जयनित कुमार मेहता on August 25, 2018 at 10:47pm

आदरणीय समर कबीर जी, सादर प्रणाम।

ओबीओ से दूर रहने के दौरान जो कमी खलती रही, वो आज पूरी होती-सी लग रही है। मैं बता नहीं सकता एक लंबे समय से ग़ज़ल का अभ्यास छूटने के बाद किसी नई रचना पर आपकी ऐसी प्रतिक्रिया प्राप्त होना मेरे लिए कितनी ख़ुशी की बात है। आपके सुझाव के अनुसार मैंने मूल प्रति में संशोधन कर लिया है। निरंतर मार्गदर्शन के लिए पुनः कोटि-कोटि धन्यवाद आपको। आपका आशीर्वाद बना रहे, यही कामना करता हूँ।

Comment by जयनित कुमार मेहता on August 25, 2018 at 10:42pm
आदरणीय सुशील सरना जी, ग़ज़ल को पढ़ने व प्रतिक्रिया देने हेतु हार्दिक आभारी हूँ आपका।
Comment by Samar kabeer on August 25, 2018 at 10:33pm

जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब, बहुत समय बाद ओबीओ पर आपकी ग़ज़ल पढ़ने का मौक़ा मिला है ।

बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

कुछ बारीक बातें आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा ।

'मुकरे हैं सारे अब्र अब अपनी ज़बान से'

इस मिसरे को अगर यूँ कर लें तो लय की दृष्टि से उचित होगा :-

'मुकरे हैं सारे अब्र जो अपनी ज़बान से'

'क्या-क्या न हमसे छीन गयी ये तरक्कियाँ'

इस मिसरे में 'गयी' को " गईं" कर लें ।

'छू ली बुलंदियाँ तो ये एहसास "जय" हुआ'

इस मिसरे में 'छू ली' को "छू लीं" कर लें ।

Comment by Sushil Sarna on August 25, 2018 at 6:06pm

आदरणीय जयनित जी इस सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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