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बातों ही बातों में उनसे प्यार हुआ - सलीम रज़ा रीवा

22 22 22 22 22 2 ..

बातों ही बातों में उनसे प्यार  हुआ.

ये मत  पूछो  कैसे कब इक़रार हुआ

.      

जब से आँखें उनसे मेरी चार हुईं.

तब से मेरा जीना भी दुश्वार हुआ

.

वो शरमाएँ जैसे  शरमाएँ कलियाँ.

रफ्ता रफ्ता चाहत का इज़हार हुआ

.

दिल की बातें वो  ऐसे पढ़  लेता है.

दिल न हुआ जैसे कोई अख़बार हुआ

.

उनसे  ही खुशियाँ है मेरे आंगन में.

उनसे ही  रौशन मेरा घर बार हुआ

.

आँखों में बस उनका चेहरा दिखता है.

शोख़ हसीना का जब से दीदार हुआ

....

मौलिक व अप्रकाशित

Gazal by salimrazarewa

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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on October 29, 2017 at 6:05pm
जनाब सलीम साहिब , उम्दा ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
शेर 2 उला मिसरे में आपने आँखें इस्तेमाल किया है इसलिए हुई को हुईं
करलें | उला मिसरे के हिसाब से सानी मिसरा यूँ होना चाहिए " तब से
मेरा जीना भी दुश्वार हुआ " आखरी शेर में चेहरा को चहरा करलें ----
Comment by Afroz 'sahr' on October 29, 2017 at 5:29pm
जनाब सलीम रेवा साहिब इस रचना पर मेंरी और से बधाई स्वीकार करें।
Comment by SALIM RAZA REWA on October 27, 2017 at 7:36pm
आ. नीलेश जी,
मेरा इस पर ध्यान नहीं गया,
आपकी पारखी नज़र के लिए शुक्रिया,
शुरु में ( ये) लगाने से काम बन जाएगा देखिएगा..
(ये मत पूंछो कैसे कब इक़रार हुआ)
Comment by SALIM RAZA REWA on October 27, 2017 at 7:36pm
आ. नीलेश जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया.
Comment by SALIM RAZA REWA on October 27, 2017 at 7:28pm
जनाब आरिफ साहब,
आपकी महब्बत के लिए शुक्रिया.
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 27, 2017 at 6:51pm

आ. सलीम साहब 
अच्छी ग़ज़ल है ..
.
मत पूंछो की कैसे कब इक़रार हुआ ..यहाँ की नहीं कि आएगा और बहर गड़बड़ हो जायेगी ..
की को कि पढ़ा जा सकता है लेकिन कि को की (मात्रा वृद्धि) नहीं पढ़ा जा सकेगा
कुछ और सोचिये 
अखबार वाले शेर के लिए विशेष बधाई 
सादर 

Comment by Mohammed Arif on October 27, 2017 at 6:24pm
आदरणीय सलीम रज़ा साहब आदाब, बहुत ही शानदार ग़ज़ल । हर शे'र लाजवाब है । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by SALIM RAZA REWA on October 8, 2017 at 6:41am
जनाब नादिर खान साहिब,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया,
Comment by SALIM RAZA REWA on October 8, 2017 at 6:40am
आदरणीय वीनस जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया इस ग़ज़ल पे बहुत दिनो बाद आया माफ़ी चाहता हूँ.
Comment by वीनस केसरी on February 12, 2013 at 12:19am
जब  से आँखे उनसे   मेरी    चार हुई !
इक पल भी जीना मेरा दुश्वार हुआ !!
 

वाह वा क्या बात है शानदार रवायती ग़ज़ल कही है
बहुत खूब सलीम जी

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