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"अंखियों के झरोखों से" (लघुकथा)

होटलों में बर्तन धोने से लेकर नेताओं और अधिकारियों के पैर दबाने तक, मूंगफली बेचने से लेकर अख़बार बेचने तक सभी काम करने के साथ ही साथ उस अल्पशिक्षित बेरोज़गार के यौन-शोषण के कारण होशहवास खो गये थे, या किसी शक्तिवर्धक दवा के ग़लत मात्रा के सेवन से या अत्याधिक मानसिक तनाव के कारण उसकी अर्द्धविक्षिप्त सी हालत थी; किसी को सच्चाई पता नहीं! हां, सब इतना ज़रूर जानते थे कि बंदा है तो होनहार और मिहनती। जो काम दो, कर देता है। इसलिए सड़क पर आज भी उसकी ज़िन्दगी सुरक्षित चल रही है परिजनों की उपेक्षा और दयावानों के दानों से! हर रोज़ की बदलती जुगाड़ू दिनचर्या के तहत आज फिर वह मंदबुद्धि, सनकी, पागल कहा जाने वाला 'नेताजी' अपने पेट की जुगाड़ के लिए काम पर निकल चुका था :


"अरे देख! वही अजमेरी भाईजान! कल अजमेर की दरगाह पर चादर चढ़ाने  के लिए चंदा मांग रहा था हरे कपड़े पहने और आज साइकल पर झंडा, तख्तियां,भोंपू, माइक वग़ैरह लगाकर नेताजी बनके नारे लगाता फिर रहा है!" एक दुकानदार ने अपने ग्राहक से कहा।
"अजमेरी नहीं, दयाराम है ... दयाराम! थोड़ी देर में होश में आ जायेगा, जब पगले पर बच्चों के पत्थर पड़ेंगे! .. साला परसों हमारे मंदिर के सामने दूसरे गहरे रंग केे कपड़े पहन कर भजन गा-गा कर नाच रहा था एक बड़े नेता के जुमले बोल-बोल कर!" दुकान पर खड़ा एक अन्य युवक बोला।
"अरे, चुनाव आने वाले हैं न! .. तो हर चुनाव की तरह किसी पार्टी ने इसे इसके काम पर लगा दिया है पूरे शहर में अपने नेताओं और उम्मीदवारों की जयकारा लगाने के लिए! साले की अच्छी-खासी कमाई हो जाती होगी!" एक और आवाज़ सुनाई दी।
"पागल सा है, लेकिन बंदा है टेलेंटिड! रटाये गये जुमले और भाषण बेहतरीन अदायगी से हर चौराहे पर दुहराता है! एक और दुकानदार से एक पुलिसकर्मी ने अपनी हथेली पर तंबाकू घिसते हुए कहा।
"आज तो किसी ने इसको ग़ज़ब का कुर्ता पहना दिया है! उस पर नये वाले नोट बने हैं, मेट्रो-बुलेट-ट्रेन बनी है, धार्मिक-स्थल बने हुए हैं, आस्था के पशु-पक्षी भी तो बने हैं! दुकान पर खड़े एक शिक्षक-दर्शक ने उसे ग़ौर से देखकर कहा।
"जो हर रोज़ देखते-सुनते हैं, वही इन लोगों को दिखाई दे रहा है! .. उसकी ग़रीबी, मानसिक बीमारी, लाचारी और उसका शोषण किसी को नहीं दिख रहा? सब सिर्फ़ मज़े लेते रहे हैं और आज भी ले रहे हैं, बस!" सड़क किनारे दर्शकों की एकत्रित भीड़ में फंसी एक बुज़ुर्ग महिला ने आंखें नम करते हुए कहा, जो शायद उसमें अपने गुमशुदा इकलौते जवां बेटे को देखने की कोशिश कर रही थी।


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Naveen Mani Tripathi on October 9, 2018 at 10:43am

आ0 उष्मानी साहब बहुत ही प्रभावशाली प्रस्तुति । हार्दिक बधाई ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 8, 2018 at 10:55pm

गरीबी हमारे देश में ही नहीं सारे विश्व में प्रचारित की जाती है , गरीबी से कमाई अच्छी होती है , बस ज़मीर बेचना पड़ना है , एक बार। फिर कोई परेशानी नहीं होती। लोग कहते हैं वे सत्तर साल से गरीबी मिटा रहे हैं , मिटा नहीं पाए। सच तो यह है की वे गरीबी को एक अबोध बच्चे की तरह पोस रहे हैं , सहेज रहे हैं। ‘ ये हमारे गरीब हैं , इन्हें हमसे कोई ले नहीं सकता है.’ वाला भाव है। कौन करता है गरीबों का इतना ख्याल ? महान लोग हैं।
बहुत गहरे भाव को उजागर करते लघु -कथा के लिए बधाई , आदरणीय शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी , सादर।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 8, 2018 at 7:01pm

आ. भाई शेख शहजाद जी, अच्छी कथा हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by TEJ VEER SINGH on October 8, 2018 at 12:56pm

हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी।वर्तमान परिदृश्य को लेकर अच्छा ताना बाना बुना हौ।बहुत कुछ कहती बेहतरीन लघुकथा।

Comment by Neelam Upadhyaya on October 8, 2018 at 12:04pm

 आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, लघुकथा बहुत ही प्रभावी बन पड़ी है।  अंत की पंक्ति  तो मन को छू गयी -
"उसकी ग़रीबी, मानसिक बीमारी, लाचारी और उसका शोषण किसी को नहीं दिख रहा? सब सिर्फ़ मज़े लेते रहे हैं और आज भी ले रहे हैं, बस!"
हार्दिक बधाई प्रस्तति के लिए।

Comment by Samar kabeer on October 8, 2018 at 12:02pm

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Mohammed Arif on October 8, 2018 at 11:06am

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,

                                          अर्धविक्षिप्त नौजवान के चुनाव प्रचार में इस्तेमाल की पृष्ठभूमि पर लिखी गई बहुत ही ज्वलंत और सामयिक लघुकथा । यह साल चुनावी साल है । अच्छा तमाचा जड़ा है आपने भक्तों पर । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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