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ग़ज़ल नूर की- पड़ गयी जब से आपकी आदत

पड़ गयी जब से आपकी आदत,

फिर लगी कब मुझे नई आदत. 
.
ज़ाया कर दी गयीं कई क़समें
ज्यूँ की त्यूं ही मगर रही आदत.
.
मुझ को तन्हा जो छोड़ जाती है
शाम की है बहुत बुरी आदत.
.
पैरहन और कितने बदलेगी? 
रूह को जिस्म की पड़ी आदत.   
.
चन्द साथी जो बेवफ़ा न हुए,  
अश्क, ग़म, याद, बेबसी, आदत.
.
ज़िन्दगी यूँ न तू लिपट मुझ से
पड़ न जाए तुझे मेरी आदत.
.
आदतन याद जब तेरी आई
रात भर आँखों से बही आदत.
.
ये ज़माना नहीं भलाई का
छोडिये “नूर जी” भली आदत.
.
निलेश 'नूर'
मौलिक / अप्रकाशित  

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2018 at 7:05am

शुक्रिया आ. सुशील जी 

Comment by दिनेश कुमार on May 4, 2018 at 9:05pm

बहुत ही उम्दा ग़ज़ल आदरणीय निलेश जी। मुरस्सा कलाम ऐसी ही ग़ज़लों को कहते होंगे। वाह वाह वाह।

पड़ी और बेबसी क़ाफ़िये वाले शेर तो बस कमाल। 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 4, 2018 at 7:11pm

आदरणीय भाई नीलेश जी इस उम्दा ग़ज़ल पर हरीश बधाई सादर

Comment by Hariom Shrivastava on May 4, 2018 at 5:43pm

वाह,वाहहह,लाजवाब गजल। सुंदर सुंदर ख्याल।

Comment by नादिर ख़ान on May 4, 2018 at 4:31pm

चन्द साथी जो बेवफ़ा न हुए,   
अश्क, ग़म, याद, बेबसी, आदत.... क्या खूब लिखते है आदरणीय नीलेश जी, हमारे यहाँ तो अकाल पड़ा हुआ है और आपके यहाँ झमाझम बारिश हो रही है |

Comment by Sushil Sarna on May 4, 2018 at 3:59pm

पैरहन और कितने बदलेगी?
रूह को जिस्म की पड़ी आदत.

वाह आदरणीय नीलेश जी वाह ... बहुत ही खूबसूरत अहसासों से सजी इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

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