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कि है जो कर्ज़ माटी का लहू देकर चुकाते हैं-सतविन्द्र कुमार राणा

गजल
1222 1222 1222 1222
बताना है सभी को हम हलाली का ही खाते हैं
कि है जो कर्ज़ माटी का लहू देकर चुकाते हैं

सियासत भी है अच्छी शय जिसे अक्सर बुरा माना
भले कुछ रहनुमा भी हैं जो सबके काम आते हैं

दिशा दक्षिण में सर्दी चल पड़ी मधुमास आते ही
चमन में गुल महक उट्ठे भ्रमर भी गुनगुनाते हैं

समझना है जरा मुश्किल भरोसा किस पे करलें हम
कभी अपने उठाते हैं कभी अपने गिराते हैं

सलामत किस तरह दुनिया रहेगी आज 'राणा' बोल
भुलाकर लोग यकजहती यहाँ नफ़रत बढ़ाते हैं

मौलिक /अप्रकाशित

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Comment by नाथ सोनांचली on February 1, 2018 at 3:47am

आद0 सतविंद्र भाई जी बढिया ग़ज़ल कही आपने। शैर दर शैर मुबारकवाद।

Comment by रक्षिता सिंह on January 31, 2018 at 8:04am

आदरणीय सतविंद्र जी, बेहद बेहतरीन गजल ।

बहुत बहुत मुबारकबाद।

Comment by Mohammed Arif on January 30, 2018 at 9:15pm

आदरणीय सतविंद्र कुमार जी आदाब,

                       बढ़िया  अश'आरों से सजी बेहतरीन ग़ज़ल । हर शे'र माकूल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन  अपनी राय देंगे ।

Comment by TEJ VEER SINGH on January 30, 2018 at 8:35pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर जी।बेहतरीन गज़ल।

समझना है जरा मुश्किल भरोसा किस पे करलें हम
कभी अपने चढ़ाते हैं कभी अपने गिराते हैं

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 30, 2018 at 5:53pm
  • बहुत ख़ूब।‌ हक़ीक़त व सकारात्मकता लिए बढ़िया ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब सतविंद्र कुमार राणा साहिब।

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