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हो गया वह बे मुरव्वत देखते ही देखते

ग़ज़ल
फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन-फाइलुन

मिल गई उल्फ़त की जन्नत देखते ही देखते।
हो गई उन से मुहब्बत देखते ही देखते।

आ गया है कौन आख़िर हुस्न के बाज़ार में
हो गई बरपा कियामत देखते ही देखते ।

हो गया शायद वफाओं का सितमगर पर असर
ख़त्म करदी उसने नफ़रत देखते ही देखते।

कारवां वालों को हासिल ही न था जिसको यक़ी
उसने पा ली है क़यादत देखते ही देखते।

ये है खारों की हिमायत का नतीजा बागबां
हो गई हर सू बग़ावत देखते ही देखते।

ज़ुल्म का प्याला लबालब हो चुका था दोस्तों
यूँ नहीं बदली हुकूमत देखते ही देखते ।

ग़म यही है सौंप दी तस्दीक़ जिसको ज़िन्दगी
हो गया वह बे मुरव्वत देखते ही देखते।

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 2, 2017 at 2:34pm
मुहतरम नरेंद्र सिंह साहिब, हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 2, 2017 at 2:32pm
मुहतरम जनाब गिरिराज साहिब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफजाई का तहे दिल से शुक्रिया
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 2, 2017 at 2:30pm
मुहतरम जनाब नीलेश साहिब,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया---
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 2, 2017 at 2:28pm
मुहतरम जनन आरिफ साहिब,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
Comment by narendrasinh chauhan on May 2, 2017 at 2:03pm

लाजवाब, बेहतरीन गजल। ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 2, 2017 at 12:36pm

क्या बात है , आदरनीय तस्दीक भाई , बेहतरीन गज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को .. मुबारकबाद कुबूल कीजिये ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 8:22am

वाह वाह आ. तस्दीक़ साहब ...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है...
बधाई 

Comment by Mohammed Arif on May 2, 2017 at 8:14am
आदरणीय तस्दीक़ अहमद जी आदाब, बहुत ही शानदार ग़ज़ल । कुछ शे'र तो सामयिक बन पड़े हैं । शे'र दर शे'र दादा के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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