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मैं चुप रही ....

रात के पिछले पहर
पलकों की शाखाओं पर
कुछ कोपलें
ख़्वाबों की उग आई थीं
याद है तुम्हें
तुम ने
चुपके से
मेरे ख्वाबों की
कुछ कोपलें
चुराई थीं
मैं चुप रही

तुमने
अपने स्पर्श से
उनमें बैचैनी का
सैलाब भर दिया
मैं चुप रही

तुमने
मेरी पलकों की
शाखाओं पर
अपने अधरों से
सुप्त तृष्णा को
जागृत किया
मैं चुप रही

रात की उम्र
ढलती रही
कोपलें
ख़्वाबों की
पलकों के
अतृप्त आँगन में
शनैः शनैः
झरती रही
तुम भी आखिर
ख्वाब ही निकले
मेरे ख्वाब की
हर कोपल तोड़
तुम भी
आखिर ख्वाब की तरह
मेरी झोली को
प्रतीक्षा पलों से भर
चुपचाप चल दिए
और
मैं चुप रही

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by TEJ VEER SINGH on April 6, 2017 at 4:19pm

बेहतरीन रचना आदरणीय सुशील सरना जी।हार्दिक बधाई।

Comment by Mohammed Arif on April 6, 2017 at 1:56pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, दिद को छू लेने वाली रचना । बधाई स्वीकार करें ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on April 6, 2017 at 11:38am
Waaaahhhhhhh. Bahut pyari rachna hui hai aadarniya Sushil sir ji . Badhayi sweekaren

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 6, 2017 at 10:17am

वाह्ह्ह्ह वाह्ह्ह्ह बेहतरीन नज्म आदरणीय सुशील सरना जी क्या कहने .बहुत बहुत बधाई आपको 

कृपया ध्यान दे...

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