१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ
ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ
इबादत में वजू करती मुक़द्दस नीर से जिसके
पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ
परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को
बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ
भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली
तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ
तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो तोड़ा
सिसकते आईने के वो बता टुकड़े कहाँ रक्खूँ
हमारे वस्ल की रंगी फिज़ा इतना बता जाना
ख़जाँ की मार से पीले हुए पत्ते कहाँ रक्खूँ
तेरे लिक्खे हुए जो हर्फ़ मेरा मुँह चिढाते हैं
खतों के वो तेरे जलते हुए सफ्हे कहाँ रक्खूँ
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया राजेश दीदी ग़ज़ल बहुत अच्छी हुई है, काफी सार्थक चर्चाएँ भी हुई हैं, बहुत-बहुत बधाई आपको। मतले में गमले की जगह पौधे कहा जाए तो कैसा रहेगा?
आद० डॉ० आशुतोष जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया | मेरा तो यही कहना है ओबीओ की लैब से निकल कर कोई भी रचना सर उठा कर चल सकती है | अगर कोई चाहे तो यहाँ एक दूसरे से बहुत कुछ सीखने को मिलता है|
आद० गिरिराज जी,ग़ज़ल पर आपकी दाद मिली दिल मसर्रत से भर गया मेरा लिखना सार्थक हुआ आपका तहे दिल से बहुत बहुत आभार मूल पोस्ट में मैं मिसरे में बदलाव कर चुकी हूँ यहाँ भी कर लूँगी यथा ---खतों के वो तेरे जलते हुए सफ्हे कहाँ रक्खूँ
किरचे को भी टुकड़े से बदला है कोई कसर क्यूँ छोडनी :-)))))))
प्रिय प्रतिभा जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ |बहुत बहुत आभार |
आदरनीया राजेश जी , बहुत खूब ! अच्छी गज़ल कही है आपने , दिली मुबारक बाद कुबूल करें ।
आदरनीय समर भाई जी की बातों से मै भी सहमत हूँ । खुतूत स्वयँ बहु वचन है ख़त का । इसलिये कोई भी कहे गलत तो गलत ही रहेगा , ये उतना ही गलत है जितना जज़्बातों लिखना गलत है , आप असमंजस मे न पड़ें ।
मुक़द्दस नीर से जिसके इबादत में वजू करती
पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ ... वाह
परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को
बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ...... क्या बात है
बधाई प्रेषित है खूबसूरत ग़ज़ल के लिए आदरणीया राजेश जी
आद० तस्दीक जी ,आपने सही फरमाया अंतिम मिसरा इस तरह कर दिया है --खतों के वो तेरे जलते हुए सफ्हे कहाँ रक्खूँ
सफ्हे मैंने बहुत ग़ज़लों में प्रयोग होते हुए देखे हैं जैसे लम्हात भी होता है सफ्हात भी होता है ..तो लम्हे की तरह सफ्हे भी प्रयोग होता है |
आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया |
मोहतरमा राजेश कुमारी साहिबा , अच्छी ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---ग़ज़ल के आखरी शेर के सानी मिसरे में आपने दो शब्द इस्तेमाल किये हैं --- ख़ुतूतों और सफ्हे , मेरी जानकारी के हिसाब से ख़त का बहुवचन ख़तूत और सफ़्हा का बहुवचन सफ़्हात होता है ---देख लीजियेगा , शुक्रिया
आद० समर भाई जी, ग़ज़ल पर आपकी दाद मिली मेरा उत्साह दुगुना हो गया आपका मशविरे का सदा स्वागत है |मूल रचना में किरचे के स्थान पर टुकड़े कर दिया है लिखते हुए मैं भी सोच रही थी टुकड़े एक और मिसरे में ले चुकी थी इसलिए यहाँ किरचे ले लिया था फिर कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती इस लिए टुकड़े कर दिया |पर भाई जी खुतूतों के प्रयोग ने अस्मंजस में डाल दिया मुझे पता है खुतूत खत का बहुवचन है किन्तु यहाँ जिस भाव में प्रयोग हुआ है यहाँ मेरे उस्ताद जो बड़े शायर हैं इसे सही बताया है अब मैं सोच रही हूँ क्या करूँ खतों लिखकर थोडा संशोधन कर सकती हूँ किन्तु खुतूतों शब्द के आकर्षण ने बाँध रक्खा है खैर और विमर्श करके कुछ करती हूँ |आपका तहे दिल से शुक्रिया |
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