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सवैये : रामबली गुप्ता

वागीश्वरी सवैया

वशीभूत जो सत्य औ स्नेह के हो, जहाँ में उसे ढूंढना क्या कहीं?
न ढूंढो उसे मन्दिरों-मस्जिदों में,शिवाले-शिलाखण्ड में भी नहीं!
जला प्रेम का दीप देखो दिलों में, मिलेगा तुम्हें वो सदा ही यहीं।
जहाँ नेह-निष्काम निष्ठा भरा हो, सखे! ईश का भी ठिकाना वहीं।।

दुर्मिल सवैया

दुख जीवन में अति देख कभी, मन को नर हे! न निराश करो।
रहता न सदा दुख जीवन में, तुम साहस से मन धीर धरो।।
रजनी उपरांत विहान नया, अँधियार घना मत देख डरो।
लघु-दीप जला नित ही तम में, हिय आश-प्रकाश नवीन भरो।।2।।


मौलिक एवं अप्रकाशित

रचना-रामबली गुप्ता

शिल्प वागीश्वरी सवैया=सात यगणों की आवृति एवं अंत में लघु-गुरु(122×7+12)
शिल्प दुर्मिल सवैया=आठ सगणों की आवृति(112×8)

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Comment by रामबली गुप्ता on August 4, 2016 at 9:04am
हृदय से आभार आद0 अशोक रक्ताले जी
Comment by Ashok Kumar Raktale on August 4, 2016 at 7:58am

आदरणीय रामबली गुप्ता जी सादर, दोनों ही सवैये बहुत सुंदर रचे हैं. आपकी सतत छंद रचनाओं की प्रस्तुति मन को आनंदित कर रहीं हैं. बहुत-बहुत बधाई. सादर.

Comment by रामबली गुप्ता on August 3, 2016 at 11:15pm
सराहना के लिए हार्दिक आभार आद0 सुरेश कुमार जी
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 3, 2016 at 8:22pm
आदरणीय रामबली गुप्ता जी सवैया के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by रामबली गुप्ता on August 2, 2016 at 8:54pm
हृदय से आभार आद0 सौरभ पाण्डेय जी
Comment by रामबली गुप्ता on August 2, 2016 at 8:52pm
प्रसंशा के लिए हार्दिक आभार आद0 गिरिराज भाई जी

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 2, 2016 at 6:47pm

बहुत खूब प्रयास हो रहा है आदरणीय रामबली जी. बहुत-बहुत बधाइयाँ इस प्रयास केलिए. 

यदि आप सवैया के सूत्र लिख दें तो अन्यान्य पाठकों को रचना के विधान को समझने में सहूलियत तो होगी ही, वे शिल्प के सापेक्ष रचनाकर्म के तथ्य का आनन्द ले सकेंगे. 

 

जैसे दुर्मिल सवैया के लिए [(सगण, ११२, लघु-लघु-गुरु, सलगा) X 8] लिखा जाना कई पाठकों केलिए सवैया को समझना आसान कर देगा. उसी तरह वागीश्वरी सवैया के लिए [(यगण, १२२, लगु-गुरु-गुरु, यमाता) X 7 + लघु-गुरु] लिखना वागीश्वरी के विधान को समझने में सहज कर देगा.

आपने देखा होगा, भारतीय छन्द विधान समूह में सवैया के पाठ में ऐसे ही सूत्र दिये गये हैं. 

इसी तरह से ग़ज़लों को प्रस्तुत करने के क्रम में भी बहर के वज़न दिये जाने की परम्परा इस मंच पर शुरु हुई है. जो आज कई मंचों पर अपनायी जा रही है.

शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 2, 2016 at 1:56pm

आदरणीय रामबली भाई , सवैयों के लिये हार्दिक बधाई , छंद के लिये मै अज्ञानी हूँ , लेकिन पढ़ के  दुर्मिल सवैया बहुत अच्छा लगा ।

Comment by रामबली गुप्ता on August 2, 2016 at 11:27am
आद0 समर कबीर जी आपका बहुत बहुत आभार
Comment by Samar kabeer on August 2, 2016 at 10:23am
जनाब रामबली गुप्ता जी आदाब,बहुत सन्देशपूर्ण और सुंदर सवैया लगे,दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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