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गजल(घिर गयीं कितनी घटाएँ....)

2122 2122 2122 212
घिर गयीं कितनी घटाएँ बेसबब मौसम रहा
डूबते हैं घर कहीं पर आदमी बेदम रहा।1

झेलते ही रह गये वाचाल मौसम की अदा
नम हुई धरती किसीकी तो कहीं पे गम रहा। 2

उठ गया जो सरजमीं से सुन रहा कुछ भी नहीं
बस तिरंगे के तले फहरा मुआ परचम रहा।3

श्वान भी शरमा रहे हैं भौंकने से इस कदर
मुफ्त की रोटी उड़ाकर वह दिखा दमखम रहा।4

देश-सेवा को चला वह लूट का सामान ले
लूटने की ताक में कहते यहाँ हरदम रहा।5

बाँटकर कुछ बोटियाँ वह मुफलिसी जाहिर करे
मिल गया हर आदमी क्यूँ भीख से बमबम रहा।6

लाठियाँ लेता उठा तू इक भली ललकार पर
कट रहा तू, मर रहा तू, वह सदा बेगम रहा।7

आँसुओं से धुल सकेगा क्या कभी खूं का निशां
घाव जितना भी लगा वह हर दफा कुछ कम रहा।8

ले गया कितना उड़ाकर माल तेरा बावरे !
सोचता तबसे 'मनन' क्यूँ फिर वही हमदम रहा।9
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on July 12, 2016 at 10:18pm
आदरणीय आशुतोष जी,आपका आभार।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 11, 2016 at 9:04am
भाई मनन जी इस रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर बधाई के साथ
Comment by Manan Kumar singh on July 11, 2016 at 6:44am
आभार आपका आदरणीय महेंद्र जी।
Comment by Mahendra Kumar on July 10, 2016 at 4:06pm
आँसुओं से धुल सकेगा क्या कभी खूं का निशां
घाव जितना भी लगा वह हर दफा कुछ कम रहा... वाह! क्या बात कही है आदरणीय मनन जी आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार करें, सादर!
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 7, 2016 at 11:31am

ओह ! ठीक है भाई ट्यूबलाईट देर से जली. सुंदर शेर हुआ है. सादर.

Comment by Manan Kumar singh on July 7, 2016 at 6:31am
आदरणीय यहाँ भूख नहीं,मुफ्त का माल उड़ाने वालों की खबर लेने का प्रयास है,सादर।रचना को मान देने के लिए पुन: शुक्रिया।
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 6, 2016 at 10:32pm

आदरणीय मुझे यहाँ दोनों मिसरों में राबिता का अभाव लगा. क्योंकि भूख के कारण शर्म वाली बात समझ नहीं आयी. सादर.

Comment by Manan Kumar singh on July 6, 2016 at 10:16pm
आदरणीय अशोक जी,रचना पर विचार व्यक्त करने के लिए आपका शुक्रिया।हाँ,मैं आशय नहीं समझ पाया आपका।
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 6, 2016 at 9:31pm

वाह ! अच्छी गजल कही है आदरणीय मनन कुमार सिंह जी. फिरभी इस शेर को देख लें.

श्वान भी शरमा रहे हैं भौंकने से इस कदर
मुफ्त की रोटी उड़ाकर वह दिखा दमखम रहा।4

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