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अतुकांत कविता : खेती (गणेश जी बागी)

ऊँची, नीची, मैदानी, पठारी, 

उथली, गहरी...

दूर तक विस्तृत

उपजाऊ जमीन.

 

यहाँ नहीं उपजते

गेहूँ, धान

फल, फूल,

न उगायी जाती हैं साग, सब्जियाँ

किन्तु,

जो उपजता हैं

उससे....

करोड़ों कमाती हैं

बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ

 

तय होतें हैं

सियासी समीकरण

 

बनती बिगड़ती हैं

सरकारें

 

पैदा होता है

विकास

आते हैं

अच्छे दिन.

 

हम जैसे तो बस

डालते रहते हैं उसमें

खाद और पानी

परिणाम स्वरूप  

लह-लहाती रहती है 

झूठ की खेती.

(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on March 20, 2016 at 4:28pm
स्पष्ट शाब्दिक हुआ है कटु-अनुभवपूर्ण परिदृश्य। कम शब्दों में बढ़िया सम्प्रेषण। सादर बहुत बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय गणेश जी बागी जी।
Comment by TEJ VEER SINGH on March 20, 2016 at 2:37pm

हार्दिक बधाई आदरणीय गणेश जी बागी  जी!बहुत सार्थक,सामयिक और वर्तमान परिदृश्य से रूबरू कराती कटाक्ष मिश्रित बेहतरीन प्रस्तुति!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 20, 2016 at 12:53pm

प्रखर सोच की एक अत्यंत मुखर रचना ! बहुत-बहुत शुभकामनाएँ भाई गणेश जी. 

हार्दिक शुभेच्छाएँ 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on March 20, 2016 at 12:35pm
वाह । आज के कडवे सच को उजागर करती है यह आपकी रचना । बधाई आदरणीय ।
Comment by Ram Ashery on March 20, 2016 at 11:41am

हमें तो सच का पता नहीं 

उनके झूठ पर इतरा रहे 

मानते गलत को ही सही

सियार की तरह आवाज मिला रहे 

सच बोलने की हममें ताकत नहीं 

बहुत ही सही आपने लिखा है आपको सहृदय बधाई स्वीकार हो.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 20, 2016 at 9:51am

हम जैसे तो बस

डालते रहते हैं उसमें

खाद और पानी

परिणाम स्वरूप  

लह-लहाती रहती है 

झूठ की खेती.---वाह वाह आज के सियासी खुदगर्जी माहौल पर कितना सुंदर सटीक कटाक्ष किया है आ० गणेश जी इस अतुकांत कविता के माध्यम से दिल खुश हो गया बहुत- बहुत हार्दिक बधाई .

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